वैचारिकी-अमृत वर्ष का अमृत

रास बिहारी गौड़
यूँ 75 वर्ष एक देश के संदर्भ में बड़ा समय नहीं होता …लेकिन उस देश की आज़ादी की के लिए बड़ा अर्थ रखता है जो सदियों ग़ुलाम रहा..बल्कि सच मायने में देश होने की किसी भी अवधारणा से दूर रहा…।
जी हाँ..मैं भारत के भारत होने के तीन चौथाई सदी के सफ़र की बात कर रहा हूँ…स्वभाविक रूप से यह गर्व, ख़ुशी और मान का विषय है..।
यहाँ खड़े होकर हमें, हमारे पुरखों का संघर्ष पुकार रहा है…तकनीक से सजा वर्तमान भरमा रहा है ..समाज का संकुचित होते जाना डरा रहा है …। हम भविष्य को लेकर या तो बहुत उत्साहित है या बहुत आशंकित….। दोनों सिरों पर बिछा यही अतिवाद हमारी कमजोरी बन हमसे हमारी नज़रें छीन रहा है….।
जाने-अनजाने हमनें राष्ट्रीय गौरव को राजनीतिक नारा बनाकर हवा में इस तरह उछाल दिया गया है कि उसकी चमक में समाज की ज़रूरी पहचान लगातार खो रही है ….धर्म को आचरण से निकाल कर अस्मिता के बचे रहने से जोड़ दिया हैं… लोकतंत्र को शासन व्यवस्था ना मानकर शक्ति अर्जित करने का उपकरण मान बैठे हैं…।इन सारी स्थितियों में आज़ादी के अर्थ को नया कल सौंपते हुए अपना आज पढ़ना बहुत ज़रूरी लगता है ..बशर्ते इसे सारे राजनैतिक चश्मे उतार कर पढ़ा जाए…।
जब हम देश या समाज की बात करते हैं तो उसके मूल में सर्वश्रेष्ठ होने का प्रथम भाव ही खुले विचारो को बाधित कर देता है …।दुनिया का हर देश..हर समाज अपने अतीत से गौरव बटोरता है …लेकिन जो उस बटोरे गये गौरवमयी अतीत में ही विचरता रहता है वह वर्तमान और भविष्य से धीरे धीरे बाहर होता चला जाता है …। यहाँ मैं भारत की बात कर रहा हूँ ..हमें हमारे अतीत के उजले पृष्ठों को सहेजना तो है लेकिन उन पर कल की इबारत नहीं लिखनी है…।
वैश्विक भूगोल के दायरे में खड़े होकर आस पास के दृश्यों या देशों से आँखें मुँदे बैठना हमारे ..अपने सबसे बड़े सच को नकारना है ..। जिन-जिन देशों ने स्वम को अतीत के गौरव में लपेट कर धर्म आवरण से ढँका या छिपाया..वे या तो ख़त्म होते चले गए या अपने दौर का सबसे हिंसक समाज गढ़ने लगे..। जर्मन, यूनान, पुर्तगाल से लेकर सोवियत संघ, ईरान, इराक़, फ़िलिस्तीन, इज़राइल, अफगनिस्तान , साऊदी अरब, पाकिस्तान आदि अनेक मुल्क इसके उदाहरण हैं…। हालाँकि इनमे से कई तो बहुत चमकादार भी हैं लेकिन वे सच्चे मायानों सभ्य समाज नहीं माने जा सकते..।
भारत में इसकी आज़ादी के समय से ही एक धार्मिक राष्ट्र में बदलने की सम्भावना थी…हमारा एक हिस्सा पाकिस्तान इसी आधार पर बना था…। किंतु भारत के तात्कालिक नेतृत्व ने देश को इस भय से मुक्त रखा..सर्वधर्म को सूत्र वाक्य की जगह इसे समाज रचने का अनिवार्य मूल्य माना..। एक अन्य अर्थ में हमें अमानवीय होने से बचाया… क्योंकि जब सत्ता के मूल में धर्म होता है तो बहुत सम्भावना होती है कि वह प्रगति पथ को रोक दे..एक सा जड़ समाज की संरचना कर दे….।
बहरहाल, 75 वर्षों बाद दबा हुआ जिन्न बाहर आने को बेताब दिख रहा है ..हम धर्म को आधार बनाकर समाज गढ़ना चाह रहे हैं… पौराणिक गौरव को रास्तों में बिछाकर आस्थाओं का दोहन करन निकल पड़े हैं…हम साधु-साध्वी को त्याग की मूरत ना मानकर अपना सामाजिक रक्षण सौंप रहे हैं…। धर्मिक पहरन यथा भगवा ,हरा,सफ़ेद या कोई और रंग को शक्ति का प्रतीक मान रहे हैं..।
अक्सर खाड़ी देशों या ईसाई कट्टरता वाले मठों में सार्वजनिक पदों पर धार्मिक पहरन या धर्म का आचरण वांछनीय रहता है…परिणाम बताने की ज़रूरत नहीं..तालिबान उसका बोलता रूपक है..।
आप ठीक समझ रहे हैं कि हमारे बिना चाहे भीतर पनपता धर्मिक आग्रह हमें देश का असली चेहरा नहीं देखने दे रहा है …बल्कि किन्ही अर्थों में एक दूसरा देश रच रहा है..जहाँ इच्छाओं का मतलब ही आसमानी जन्नत होकर धरती की हक़ीक़त से दूर होता सा लग रहा है…।
कुल मिलाकर अद्रश्य गौरव के पीछे भागते-भागते हम उस डर के पास तो पहुँच रहे हैं…जिससे बचाकर अमृत वर्ष का अमृत हम पी रहे हैं..हमें अपने अमृत को बचाना..।

*रास बिहारी गौड़*

error: Content is protected !!