बदलाव को बयां करती यह दो घटनाएं, दकियानूसी विचार अब टूटने लगे, बेटों का दायित्व निभाने लगी हैं बेटियां व दामाद
यह दो तस्वीरें समाज में बदलाव की कहानी कहती हैं। पहली तस्वीर में अजमेर नगर निगम की उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) श्रीमती सीता वर्मा अपनी तीन अन्य बहनों के साथ माताजी की अर्थी को कंधा दे रही हैं, तो दूसरी तस्वीर में अजमेर नगर निगम में कांग्रेस के मनोनीत पार्षद भरत कुमार यादव अपनी पत्नी के साथ सास की अर्थी को कंधा दे रहे हैं। श्रीमती वर्मा के कोई भाई नहीं है और वे चार बहनें हैं। इसलिए उन्होंने ही अपनी माताजी के निधन पर बहनों के साथ मिलकर अंतिम संस्कार की सभी रस्में निभाई हैं। इसी प्रकार भरत कुमार के कोई साले नहीं हैं, इसलिए उन्होंने ही पत्नी के साथ मिलकर अपनी सास के अंतिम संस्कार की रस्में पूरी कीं। सवाल यह नहीं है कि क्या कोई बेटी या दामाद अपनी मां या सास का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते या अर्थी को कंधा नहीं दे सकते। सवाल यह है कि अभी तक दकियानूसी लोगों ने बेटियों अपनी मां और दामाद को अपने सास-ससुर के अंतिम संस्कार की रस्में अदा करने से दूर क्यों रखा। आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी? केवल बेटे ही अपने माता-पिता का निधन होने पर अंतिम संस्कार की रस्में पूरी कर सकते हैं, यह दकियानूसी विचार अब चिता की अग्नि के साथ जलते हुए दिखाई दे रहे है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं और कहते थे कि बेटे या बेटों द्वारा मुखाग्नि दिए बिना या कपाल क्रिया किए बिना मृत आत्मा की मुक्ति नहीं होती है या उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती है या उनको मोक्ष नहीं मिलता है। लेकिन ऐसे दकियानूसी विचार रखने वालों ने कभी इस सवाल पर विचार नहीं किया था कि जिन माता-पिता के बेटा या बेटे ही नहीं हैं और केवल बेटियां हैं, तो क्या उनका निधन होने पर चिता को मुखाग्नि बेटी या बेटियां नहीं दे सकती हैं।
दकियानूसी विचारों को पालने वालों ने यह भी नहीं सोचा कि जिन माता-पिता के बेटा या बेटे हैं, वे उनकी कितनी सेवा करते हैं। जो बेटा या बेटे अपने माता-पिता की सेवा नहीं कर सकते, जीते-जी उनको अपने साथ नहीं रख सकते, बीमार होने पर उनका इलाज नहीं करा सकते, माता-पिता से बदतमीजी से बात करते हैं, आए दिन झगड़ा करते हैं, उन्हें बोझ समझ कर वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं, तो फिर ऐसे बेटे या बेटों से माता-पिता के मरने के बाद अंतिम संस्कार की रस्में पूरी कराने का क्या औचित्य है। ऐसे में बेटी या बेटियां यह रस्में क्यों नहीं निभा सकती हैं। आखिर किस आधार पर समाज के कतिपय ठेकेदार उस दुख की घड़ी में बेटियों को दूर रखते हैं। कई जगह या कुछ समाजों में तो दामाद को सास या ससुर का निधन होने पर शवयात्रा में शामिल नहीं होने देते, अर्थी को कंधा लगाने नहीं देते और अंतिम समय में दर्शन करने भी नहीं देते। आखिर ऐसा क्यों? ऐसे में भरत कुमार जैसे लोग ही आगे आकर सारे दायित्व पूरे करते हैं। मुझे नहीं पता कि मेरे इन विचारों से लोग कितने सहमत-असहमत होंगे, लेकिन यह बात बिल्कुल सही है कि यदि बेटा या बेटों के नहीं होने पर बेटियां या दामाद अंतिम संस्कार की रस्में पूरी करते हैं, तो फिर मृतात्माओं के निकम्मों बेटे या बेटों के मौजूद होने के बावजूद उन्हें दरकिनार कर बेटी या बेटियों व दामाद से अंतिम संस्कार की सभी रस्में अदा क्यों नहीं कराई जाती हैं। यदि दामाद भी निकम्मा हो, तो उसे भी इन रस्मों से पूरी तरह दूर रखा जाना चाहिए, लेकिन बेटी या बेटियों को यह दायित्व निभाने देना चाहिए। सवाल यह है कि जो लोग जीते-जी रोटी-पानी नहीं दे सकते, सार-संभाल नहीं कर सकते, घृणा करते हैं, दुत्कारते हैं, उनसे सामाजिक बंधनों की दुहाई देकर अंतिम संस्कार की रस्में अदा कराने का क्या औचित्य है, वह फिर बेटा-बेटे हो या दामाद हो या बेटी-बेटियां हों या नाती-नातिन या पोता-पोती या भाई-बहन या भतीजा-भतीजी या अन्य कोई नजदीकी रिश्तेदार ही क्यों न हो। अंतिम संस्कार की रस्में अदा करने का हक केवल उन्हें ही दिया जाना चाहिए, जिन्होंने मृतात्माओं की जीते-जी सेवा की हो।
✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर