वैचारिकी-चाँद जैसी सूरतों का ईंधन

रास बिहारी गौड़
राष्ट्रवाद का झंडा उठाए ताक़तवर अज्ञानी-आत्ममुग्ध समूह गाँधी-नेहरु को लतियाते हुए सुभाष बोस या भगत सिंह से अपनी निकटता सिद्ध करने की कोशिश करता रहता है..। जबकि यह तथात्मक सत्य है कि इस तथाकथित राष्ट्रवादी समूह के वैचारिक पूर्वजों (बोस या भगत सिंह के समकालीन) ने कभी किसी वक्तव्य, आलेख या विचार में उनका कभी कोई ज़िक्र नहीं किया।इसके उलट बोस या भगत दोनों देश, स्वतंत्रता और धार्मिक सहिष्णुता को लेकर गाँधी-नेहरु के बिलकुल क़रीब खड़े नज़र आते है..।अनेको पुस्तकें और विचार इस बात की गवाही देते हैं कि रास्तों की परवाह किए बग़ैर आज़ादी के इन नायकों की मंज़िल एक थी जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई व अन्य से मिलकर एक स्वतंत्र भारत बने…।
जबकि जो जिन्ना की सीधी कार्यवाही के राजनैतिक सिपासिलार थे। तात्कालिक सरकारों का साथ देकर हिंदू मुस्लिम संहार बने थे। जिन्होंने विभाजन के ख़ून ख़राबे से लेकर रोज़मर्रा के दंगो का नेतृत्व किया..। वे पहले से गाँधी की अहिंसा का मखौल उड़ाते रहे हैं, नेहरु को खलनायक बताते हैं, आज़ादी को झूठ मानते हैं..। इंही लोकप्रिय झूठों के सहारे वे देश के इतिहास को नकार कर नफ़रत की खेती करते हैं…। हम मशालों के नाम पर यह घर घर अंधेरा बाँट रहे हैं।
सच तो ये है जिन्होंने जीवन पर अंधेरे की पूजा की हो वे हर क़िस्म की रोशनी और ज्योति से उसी प्रकार डरते हैं जैसे जंगल के जानवार चमकीली चीज़ से भयभीत होकर या तो भागते हैं या फिर उस पर हमला करते हैं..। आज अमर ज्योति के साथ वही सब हुया..सेकेंड वर्ल्ड वार के बाद अब तक का सबसे बड़ा सैनिक समर्पण ..हमारे गौरव का सबसे बड़ा प्रतिमान…केवल इसलिए बुझा दिया गया कि उसकी रोशनी में सच्चे चेहरे चमक रहे थे या कहे अपने हाथो से लीपे-पुते चहेरों का सच उसमें नज़र आ रहा था..। यही सब नए संसद भवन होने वाला है ..संसदीय दुनिया को बांचने वाले सारे पन्ने फाड़कर वहाँ मृत्त मूर्तियों का बखान किया जाएगा..। जो लोग स्वयं इतिहास दाखिल नहीं हो पाते फिर नई जगह बनाने की कुवत नहीं रखते। वे इतिहास को पहले कोसते हैं फिर उनकी किताबों को फाड़ते हैं..इस पर किसी ध्यान ना जाएँ इसलिए किसी देवालय में ध्यानमग्न होकर बैठ जाते हैं..।
भगत सिंह, सुभाष बोस, नेहरु, गाँधी, पटेल, गोखले, अम्बेडकर, मौलाना, महज़ आज़ादी के महनायक ही नहीं थे अपितु दुनिया के लिए खुली हवा और मानवीय प्रेम का शिलालेख हैं। वे गुटनिरपेक्ष अवधारणा से लेकर मंडेला और ओबामा पैदा करते हैं..वहाँ कभी कोई गोडसे, ओसामा, अफ़ज़ल या प्रज्ञा पैदा नहीं होते…।
यही डर है कि यह सतही राष्ट्रवादी समूह गाँधी को अपनाने के ढोंग और सुभाष बोस से निकटता की आड़ में गोडसे को आज़ादी का नायक गढ़ने के एजेंडे को अपनी शक्ल ना दे दें।
आज के समय में अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल ये शेर बरबस याद आ रहे हैं-
अब मकानों मकीं होंगे न आवाज़ों के फ़ूल/
सिर्फ़ दीवारों पे तस्वीरें लगा दी जाएँगी
कल का सूरज हश्र दर आग़ोश निकलेगा फ़राज़
चाँद जैसी सूरतें ईंधन बना दी जाएँगी

रास बिहारी गौड़

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