भाजपा यह कहकर की पंजाब तो पहले भी हमारा नहीं था, इस बार भी नहीं हुआ, लेकिन ‘आप’ जैसी नई पार्टी जब इतनी अधिक सीटों से जीत हासिल कर सकती है तो भाजपा क्यों नहीं? यह भाजपा के लिये आत्म-चिन्तन का विषय है। कांग्रेस ने तो अपना सूपड़ा साफ कराने की ठान ही रखी है, अतः उसकी इस शर्मनाक हार से वह क्या सबक लेगी? सबसे पुरानी और देश पर सर्वाधिक समय शासन करने वाली सबसे सशक्त माने जाने वाली कांग्रेस इस चुनाव में बहुत पिछड़ गई है, उसके दुबारा खड़े होने की संभावनाएं भी धुंधली होती जा रही है। कांग्रेस अपने गठन के बाद से अब तक कई बार टूटी, बिखरी, हारी लेकिन हर बार अधिक तेजस्वी एवं ताकतवर बनकर उभरी, देश में अपना राजनीतिक वजूद कायम रखती रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी ने जब से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया है, उसका वर्चस्व एवं स्वीकार्यता लगातार गिरती जा रही है। ऐसा क्यों हुआ? क्या और कहां कमियां रहीं? इन पर मंथन के लिए कांग्रेस कार्यसमिति की पिछले दिनों की बैठक में तरह-तरह के मुद्दों पर विमर्श हुआ और इस चुनाव में हार तथा उसके गिरते प्रदर्शन के महत्वपूर्ण कारणों का पता लगाने का प्रयास किया गया। उसका यह विचार-मंथन व्यर्थ है, क्योंकि इस और पूर्व की हार एवं कमजोर प्रदर्शन का एकमात्र कारण गांधी परिवार एवं राहुल गांधी है। जी 23 ग्रुप के तीव्र विरोध एवं हमलों के बावजूद गांधी परिवार के चाटुकार शीर्ष नेताओं ने राहुल को हार का कारण मानने से सिरे से खारिज कर दिया। हालांकि, स्वयं सोनिया गांधी ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रस्ताव रखा था कि यदि पार्टी को ऐसा लगता है तो वह खुद दोनों संतानों- राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ पार्टी पद से हटने के लिए हमेशा तैयार हैं।
‘आप’ का देशव्यापी बढ़ता वर्चस्व लोकतांत्रिक दृष्टि से उपयोगी एवं प्रासंगिक है। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल का एक तरफा वर्चस्व लोकतंत्र के लिये उचित नहीं माना जा सकता है। उन्नत एवं आदर्श लोकतंत्र वही माना जाता है जो संकीर्ण एवं सीमित दायरों में नहीं बंधता। लेकिन हमारे देश में लोकतंत्र इसलिये लगातार कमजोर होता रहा है कि यहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा और प्रांत के नाम पर मतदाता को बांटा जाता रहा है। अच्छाइयों एवं बुराइयों के मानक बदलते रहे हैं और चरित्र से भी ज्यादा चेहरों को मान्यता मिलती रही है। जबकि लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिये जरूरी है समय के साथ-साथ चिन्तन शैली बदले। कुछ नये सृजनशील रास्ते खुलें। बुराइयों के विरुद्ध नैतिक संघर्ष का स्वर बुलंद हो। ऐसा कुछ न करने के बावजूद ‘आप’ का डंका बज रहा है तो इस कारण भारतीय मतदाता की अपरिपक्व सोच है। इसी का फायदा आप ने बेखूबी उठाया है।
भारतीय लोकतंत्र में परिवर्तन की बयार प्रवहमान है। परिवर्तन कब किसके रोके रुका है। न पहले रुका, न आगे कभी रुकेगा। बस प्रतिक्रियावादी या कट्टरवादी (हार्ड लाइनर्स) इसकी रफ्तार कम कर सकते हैं। यह भी प्रकृति का नियम है कि जिसे जितना रोका जाएगा, चाहे वह व्यक्ति हो या समाज, राजनीतिक दल हो या कौम, वह और त्वरा से आगे बढ़ेगा। कांग्रेस ने भाजपा को रोकने का वर्षों प्रयत्न किया, वह उतनी ही तीव्रता से आगे बढ़ी। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा कांग्रेस के बाद देश की एकमात्र ऐसी पार्टी बनी जिसने चुनाव भले ही गठबंधन साथियों के साथ लड़ा, लेकिन 282 सीटें हासिल कर अपने बूते बहुमत हासिल किया। वर्ष 2019 में बंपर 302 सीट जीतकर देश के आमलोगों की अपनी पार्टी बन गई। आज भाजपा देश की ही नहीं, विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है जिसके देश-विदेश में करोड़ों समर्थक हैं। हाल में संपन्न हुए पांच राज्यों में से चार- मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में पहले भी भाजपा सत्ता में थी, लेकिन इस चुनाव में कुछ राज्यों में अच्छा प्रदर्शन रहा। उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन भी शानदार रहा। लोगों ने समाजवादी पार्टी को सरकार बनाने लायक तो नहीं, लेकिन सरकार पर कड़ी निगरानी रखने के लिए एक मजबूत विपक्ष की भूमिका का काम कर सके, इसके लिए उसकी सीटों में इजाफा जरूर कर दिया है।
नरेन्द्र मोदी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं, चारों तरफ से विकास और प्रगति की आवाज उठ रही है। सुधार और सरलीकरण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। और आज भी हार्ड लाईनर रोकने का प्रयास कर रहे हैं, कल भी रोकेंगे। विश्व मानचित्र पर हो, चाहे राष्ट्र विशेष की संसद हो, विभिन्न राज्यों की विधानसभाएं हो चाहे समाज विशेष का मंच हो, हर जगह हार्ड लाईनर रहते हैं/होते हैं। कोई 100-200 वर्ष पहले की मान्यता अपने शरीर पर चिपकाए होते हैं तो कोई देश, काल, स्थिति के साथ सोच बदलने वाली विचारधारा के होते हैं। इनमें कोई सम्पूर्ण क्रांति व कोई सतत् क्रांति के समर्थक होते हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया तो निरंतर चलनी चाहिए, अन्यथा परिवर्तन की थ्योरी का कोई अर्थ नहीं रहता। परिवर्तन में ठहराव प्रकाशहीनता ला देता है। व्यक्ति बूढ़ा होता है जीवन नहीं। जीवन को तो सदैव तरोताज़ा रखना है। चाहे राष्ट्रीय जीवन हो चाहे सामाजिक जीवन हो।
जिस नेतृत्व ने देश, काल, स्थिति नहीं समझी या जो समय की नब्ज नहीं पहचान सका वह समाज को भटका देता है। हार्डलाईनर्स का नारा यही होता है कि हम ऐसा करते आए हैं इसलिए बदलने से सब कुछ खो देंगे। जबकि आवश्यकता है आज ऐसा करें जिससे हमारी विरासत, हमारी वर्तमान जीवन शैली तथा भावी पीढ़ी सभी सुरक्षित रहें। जीवन संयमित रहे, व्यवस्था संयमित रहे। ऐसा क्रम ही लाभदायक होता है। मंगलकारी होता है। संभवतः इसी परिवर्तनवादी सोच ने ‘आप’ को जीतने का धरातल दिया है।
समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी जैसे दल कट्टरवादी शिकायतें करते हुए जीते हैं और निराशा को प्राप्त होते हैं। बदलाव के सिवाय कुछ भी यहां स्थायी नहीं है। बदलाव को बहुत नफरत और आलोचना सुननी पड़ती है। फिर भी यही वह चीज है जो प्रगति लाती है। जब-जब भी कट्टरवाद उभरे, कोई न कोई नरेन्द्र मोदी सीना तानकर खड़ा होता रहा। तभी खुलेपन और नवनिर्माण की वापसी होगी, तभी सुधार और सरलीकरण की प्रक्रिया चलेगी। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा। तभी लोक जीवन भयमुक्त होगा और तभी सशक्त भारत बनेगा। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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