इधर के वर्षों में हम यह स्वीकारोक्ति या आचरण से च्युत हो रहे हैं या किए जा रहे हैं।हमारी आस्थाएँ हिंसक होने हद तक एकाकी हुई जा रही हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि एक पूरी पीढ़ी दूसरे धर्मों से की गई घृणा को अपने अस्तित्व से जोड़कर देखने लगी है । विभिन्न माध्यमों से उसके पास घृणा के अनेक तर्क मौजूद हैं। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हनुमान चालीसा को लेकर हम देख ही रहे हैं।
यह वही हनुमान है जो हमारे पूजाघरों में राम जी के चरणों बैठे हैं या उन्हें काँधे उठाए उड़ रहे हैं या फिर सीना चीरकर भीतर बसी राम की मोनोरम मूरत दिखा रहे हैं।
राम की वह मनोरम मूरत जो पूजाघरों में सौम्यता, शालीनता और सौंदर्य का सबसे बड़ा मानक बनी रही है। आज वही हनुमान या राम रौद्र रूप में शत्रु का संहार करते हुए परोसे जा रहे हैं । राम कथा में करुणा, त्याग, दया, मानवीयता के रूपक छोड़कर युद्धोन्मादी चरित्र को गाया जा रहा है।यह कितना सही या ग़लत है इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि वे हमारे भीतर क्या रोप रही हैं।
राम या हनुमान की बदली हुई तस्वीर पूजाघरो की निर्मलता या स्वीकार्यता को खा रही है और इस तरह सदियों सींचे गए हमारे धार्मिक आचरण को भी निगल रही है।
पृथ्वी को जीने योग्य बनाने के लिए धर्म या आस्था की ज़रूरत है उसे उन्माद की भट्टी में झौंकने के लिए तो सत्ता की भूख ही काफ़ी है। अतः आस्थाओं प्रतीकों से उनकी पहचान मत छिनिए ,वे हमें जीवन सूत्र सौंपती हैं।
रास बिहारी गौड़