भंवर बागां म्है आज्यो जी ! हास्य-व्यंग्य

शिव शंकर गोयल
किशोरावस्था तक मैं उस घडी को कोसता रहता था जब मां-बाप ने मेरा नाम भंवर रखा. जब युवावस्था में सावन माह का आगमन हुआ तो इस नाम की महत्वता पता लगा. सावन शिवजी का महीना है और वर्ष में बसंत के बाद सबसे सुहावना माह है. इस माह में रिम-झिम वर्षा ऋतु अपने साथ जामुन जैसा उपयोगी (डायबिटीज) फल लेकर आती हैं.
राजस्थान में यह फल पुष्कर के नाम से बेचा जाता है. एक बार मेरे यहां पुष्कर के मेरे मित्र बैठे हुए थे, जो संयोग से साफ रंग के है. उसी समय सोसायटी में एक फेरीवाला काले-काले, पुष्करवालें की आवाज लगाता हुआ निकला. यह सुनकर मित्र को लगा कि जामुन बेचनेवाला उन्हें निशाना बना रहा हैं. वह बाहर निकल कर उससे झगडने लगे कि मुझें काला कैसे कहा ? वह गरीब सफी देते-देते थक गया. खैर,
आपको तो पता ही है कि सावन में पवन बहुत शोर करता है. यह बात एक फिल्म में सुनील दत्त भी नाव चलाते चलाते नूतन को कह रहे है. सावन का महीना, पवन करें शोर (अरे बाबा ! शोर नही सोर). ऐसे ही सोर में एक बार सावन के किसी सोमवार को मुझें कही दूर कही सुरीली आवाज सुनाई दी “सावन के झूलें पडे, ….तुम चले आओ !…..” सुनकर मैं असमंजस में पड गया कि कौन कहां बुला रहा है ? अब कोई जाये तो कहां जायें ? तरह तरह की कल्पना कर के रह गया.
उसी निगोडे सावन महीने के ही एक और सोमवार को फिर किसी षोडशी ने अपनी सुरीली आवाज बिखेरी “बन्ना रे बागां म्है झूलां डाल्या….” यानि कहने का तात्पर्य यह कि वन-सोमवार और बागों में झूलें डले हुए है और कोई बुला रही है. सच में, “मन की बात” बताऊं ? किस नौजवान का दिल, वहां जाकर, झूलें की पेंग बढाने का मन नही करेगा ? आप ही बतायें ? परन्तु उस दिन भी किसी ने यह नही बताया कि किस बाग की बात होरही है ? ऐसे में, तब भी, मन मसोसकर रह गया, और क्या करता ?
रिम-झिम सावन है और वन-सोमवार भी है तो बागों में बहार भी आएगी ही सो एक बार फिर समधुर आवाज सुनाई दी. लेकिन इस बार खास तौर पर नाम लेकर, बुलावा आया. “भंवर बागां म्है आज्यौ जी….” . सुनकर मेरे कान खडे होगए. कोई कुंवरी बाग में मुझें बुला रही है. उस समय बेकारी के आलम में तो पहले से ही था तो फटाफट सूटेड-बूटेड होकर (कृपया सूटेड-बूटेड को किसी अन्य बात से ना जोडें) घर से बाहर निकलने वाला ही था कि सोचा, मेरे को किस बाग में बुलाया है यह तो उसने बताया ही नही.
मैं थोडा ठिठका, फिर सोचने लगा और एक एक करके मुझें मेरे शहर अजमेर के बाग याद आने लगे. शुरूआत में अनुमान लगाया कि षोडशी ने कही दौलत बाग में तो नही बुलाया है ? जिसे कोई कोई कभी सुभाष-बाग भी बोल देता है. वैसे शहर का सबसे बडा और मशहूर पार्क यही हैं जिसके पास ही आना-सागर, बारहदरी और खांमेखां के तीन दरवाजें भी है. कभी वहां सावन-भादौ नामक एक घना कुंज भी हुआ करता था. लेकिन अब वह बातें कहां रही ? इस बाग की दशा जान मैंने सोचा कोई भी मुझें वहां क्यों बुलायेगा ?
तो फिर हो सकता है कि उसने मुझें दौलत-बाग के पास ही स्थित काला-बाग अथवा नगीना बाग में बुलाया हो. लेकिन सबको पता है कि अब यह नामके ही बाग रह गए है. काफी सोचने के बाद, नगर निगम के विशेष रख-रखाव वालें लक्ष्मी-पार्क और आजाद पार्क की याद आई. वैसे तो निमंत्रण देने वाली को चाहिए था कि साफ-साफ बताती कि कहां आना है लेकिन चलो, कोई बात नही, उसने नही बताया तो अपन तो अनुमान लगा ही सकते है.
लक्ष्मी पार्क तो, आजकल शादी-समारोह में ज्यादा काम आने लगा हैं जहां कई बार लोग सूटेड-बूटेड होकर बिना बुलायें मेहमान की तरह पहुंच जाते है. ऐसे ही एक समारोह के ऐसे लोगों का खुलासा करने के प्रयास में वर-वधु दोनों पक्षों के लोगों ने मिलकर वहां announce किया कि वर-पक्ष के मेंहमान दाहिनी तरफ और वधु-पक्ष के लोग बांयी तरफ आजाय. ऐसा ही हुआ. अब जो बिना पक्ष यानि अनचाहे लोग शेष रह गए वह बगलें झांकने लगे. बेइज्जती हुई वह अलग से.
लक्ष्मी पार्क के बाद आजाद पार्क में भी मुझें गुंजाईश नही दिखी कि उसने मुझें वहां बुलाया होगा. नतीजतन मैं तो घर पर ही रूक गया कि अब वह बाग का नाम बतायेगी तभी चलना ठीक रहेगा. अत: वर्षों इंतजार ही करता रहा.

error: Content is protected !!