राजनीति पल-पल नया आकार लेती है, इसलिये राजनीति में सही वक्त पर सही ढंग से इस्तेमाल करने का हुनर होना अपेक्षित होता है, जो अच्छा चल रहा है उसे बिगाड़ना आना चाहिए और जो बिगड़ रहा है उसे सुधारना आना चाहिए। इसी को कहते है राजनीति। इसी राजनीति के महारथि के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा की रणनीति तीक्ष्ण एवं प्रभावी बनकर सामने आ रही है। शतरंज के खेल की भांति राजनीति में भी कब किस घोड़े को और किस सैनिक को ऊंट को मारना है ताकि धमाकेदार चुनाव परिणाम तक पहुंचा जा सके, ये कला आनी चाहिए। इस कला में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं है। वह राजनीतिक शतरंज की चालों में माहिर है और उसकी दृष्टि नये बन रहे राजनीतिक जोड़-तोड़ पर लगी है। भाजपा की एक चाल के बाद विरोधी कितनी चाल चल सकता है, भाजपा के घोड़े ऊंट सैनिक को मारने के लिए विपक्षी दल क्या चाले चल सकते हैं, इस बात का भाजपा को पहले से ज्ञान है, उसे यह भी पता है कि वह कितने प्यादों को खो सकता है। उसे बचाने का खेल भाजपा खेलने लगी है।
शतरंज में सफेद मोहरों की चाल पहले होती है और हर एक चाल की वरीयता मायने रखती है। ठीक इसी सोच पर भाजपा सभी चुनावी चालों में आगे रहना चाहती हैं। पर शुरूआत किस चाल से करें, जिसकी काट नहीं हो, यह भाजपा अच्छी तरह जानती हैं। तभी उसने प्रभावी एवं दूरगामी राजनीतिक से जुड़ी पहले चलने वाली चाले चलते हुए नीतीश कुमार और जयंत चौधरी जैसे नेताओं को इंडिया गठबंधन से छीन लिया गया है। कांग्रेस के अशोक चव्हान को भाजपा में शामिल करके राज्यसभा में भेजा दिया है। मायावती और चंद्रबाबू नायडू को विपक्ष में जाने से रोक दिया गया है। शिवसेना और राकांपा की दो फाड कर दी गयी है। श्रीराम मन्दिर उद्घाटन से हिन्दू वोटों को प्रभावित किया गया है, वही पांच राजनीतिक रत्नों को ‘भारत रत्न’ सर्वोच्च पुरस्कार की घोषणा से आम चुनावों को प्रभावित करने का राजनीतिक कौशल दिखाते हुए शह-मात का खेल खेल रही है।
शतरंज के खेल की तरह राजनीति के खेल में भी घोड़ा ढाई घर आगे और ढाई घर पीछे चलकर मारता है, परिपक्व एवं मझे हुए राजनीतिक खिलाड़ियों एवं राजनीतिक दलों की यही चालें शुरू हो चुकी है, जिस कारण सभी विपक्षी दलों के सामने अपने अस्तित्व को बचाने का धर्म संकट है और प्रमुख दलों में भविष्य की राजनीतिक सत्ता को लेकर राजनीति की निष्ठायें पूरी तरह से धूमिल होती हुई भी दिखाई पड़ रही है। वर्तमान राजनीति सिद्धांतों पर नहीं रह गई है अब विभिन्न राजनीतिक दल येन केन प्रकरण पद और सत्ता हासिल करके सुख भोगना चाहते हैं और समाज में अपने रुतबे को कायम रखने की होड़ शुरू है। लेकिन सत्ता एवं स्वयं-स्वार्थ की इस होड़ के कारण नुकसान तो लोकतंत्र का ही हो रहा है। इसलिये आज सबकी आंखें और कान राजनीतिक दलों द्वारा प्रतिदिन लिये जाने वाले निर्णयों पर लगे हुए हैं। दोष किसी एक दल का नहीं, बल्कि उन सबका है जो चुनावी संग्राम को एक शतरंज की बिसात बना रखा है। चुनाव की घोषणा से पहले ही जो घटनाएं हो रही हैं वे शुभ का संकेत नहीं दे रही हैं। मतदाता भी धर्म संकट में है। उसके सामने अपना प्रतिनिधि चुनने का विकल्प नहीं होता। प्रत्याशियों में कोई योग्य नहीं हो तो मतदाता चयन में मजबूरी महसूस करते हैं। मत का प्रयोग न करें या न करने का कहें तो वह संविधान में प्रदत्त अधिकारों से वंचित होना/करना है, जो न्यायोचित नहीं है।
काले और सफेद मोहरे शतरंज की फर्श पर ही आमने-सामने नहीं होते, पूरा चुनावी परिदृश्य ऐसे ही काले और सफेद रंगों में बंटती जा रही है। कहीं यह अगड़ों-पिछड़ों के नाम से तो कहीं वर्ग और जाति के नाम से आमने-सामने हैं। इस बार की लड़ाई कई दलों के लिए आरपार की है। ”अभी नहीं तो कभी नहीं।“ दिल्ली के सिंहासन को छूने व लालकिले पर ध्वज की डोरी पकड़ने के लिए सबके हाथों में खुजली आ रही है। उन्हें केवल अगले चुनाव की चिन्ता है, अगली पीढ़ी की नहीं। मतदाताओं के पवित्र मत को पाने के लिए पवित्र प्रयास की सीमा लांघ रहे हैं। यह त्रासदी बुरे लोगों की चीत्कार नहीं है, भले लोगों की चुप्पी है जिसका नतीजा राष्ट्र भुगतता रहा है/भुगतता रहेगा, जब तब भले लोग मुखर नहीं होगे।
शतरंज के खेल की तरह शह और मात राजनीति में भी होती है, शतरंज के खेल में घोड़ा बहुत महत्वपूर्ण होता है। भाजपा ने ऐसे ही घोड़ों को अपने पक्ष में किया हैं, ये घोड़े चारों दिशाओं में से किसी एक में आवश्यकतानुसार ढ़ाई घर चल सकता है। यह आक्रमण में निर्णायक भूमिका निभाता है और सुरक्षा भी प्रदान करता है। इसकी चाल को समझना आवश्यक है। वैसे मंत्री या वजीर सबसे शक्तिशाली मोहरा होता है, क्योंकि यह आगे-पीछे, आरे-तिरछे, अगल-बगल अपनी मर्जी एवं सुविधा से, कई घरों तक आ-जा सकता है। वैसे खेल तो प्यादों से शुरू होता है। आगे वे ही बढ़ते हैं। आक्रमण एवं सुरक्षा, दोनों की रणनीति, उनकी चाल को ध्यान में रख कर बनाई जाती है। सबसे बड़ी बात है कि आगे बढ़ते हुए वे आवश्यकतानुसार मंत्री, घोड़ा, ऊँट, हाथी कुछ भी बन सकते हैं। उनके महत्व को कम करके नहीं देखा जा सकता। भाजपा के पास विपक्षी दलों की तुलना में ऐसे मंत्री, घोड़ा, ऊँट, हाथी सब है। जबकि विपक्षी दल अपनी कुचालों से इन सबको खोते जा रहे हैं। यह सही है कि सहयोगियों के गठबंधन छोड़ने की शुरुआत भी एनसीपी में पड़ी फूट के बाद से ही हो गई थी, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पलटना इस अर्थ में निर्णायक कहा जा सकता है कि वही गठबंधन के सूत्रधार की भूमिका निभा रहे थे। उन्हें अपनी ओर खींचकर भाजपा और एनडीए ने विपक्षी दलों के विशाल गठबंधन से बनते नैरेटिव को जबर्दस्त झटका दिया। इस झटके से उबरने की कोशिशें ढंग से शुरू होतीं, उससे पहले ही पश्चिम यूपी के जाट बहुल इलाके में दखल रखने वाले आरएलडी नेता जयंत चौधरी ने भी पाला बदल लिया।
निश्चित रूप से इन सब शतरंजी चालों के पीछे एनडीए की तरफ से हो रहे सुनियोजित प्रयासों की भूमिका है। लेकिन इंडिया गठबंधन खेमा जिस तरह से बिखर रहा है, उसका पूरा श्रेय एनडीए की कोशिशों को नहीं दिया जा सकता। इसकी काफी जिम्मेदारी विपक्षी दलों के नेताओं को भी अपने सिर पर लेनी होगी। विपक्षी दलों का मंच इंडिया गठबंधन पिछले साल मुश्किलों के बीच जिस तरह से बना और फिर जितनी तेजी से इसने उम्मीदें जगानी शुरू कीं, उतनी ही तेजी से उन उम्मीदों को ध्वस्त भी करता जा रहा है। भाजपा की शतरंज पर बिछी बिसात का अहम हिस्सा नंबर से आगे जाकर पूरे देश में ऐसा माहौल बनाना है जिससे लोगों में उसके लिये अधिकतम स्वीकार्यता का भाव आये। मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिये राष्ट्रीय एकता, नया भारत, सशक्त भारत का सन्देश अहम है। राजनीतिक चारित्रिक उज्ज्वलता, ईमानदारी और नैतिकता शतरंज की चालें नहीं मानवीय मूल्य हैं। अतः नीति ही राजा, नीति ही मोहरें और नीति ही चालें हो।
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार एवं स्तंभकार
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