राजनीति में भाषा की मर्यादा का गिरता स्तर

-आखिर हमारा देश किस दिशा में जा रहा है, हम आने वाली पीढ़ी को कौनसे संस्कार, भाषा-बोली और सभ्यता परोस रहे हैं
-ना मोदी झोली-झंडा उठाकर कहीं जाने वाले हैं, ना ही राहुल गांधी नानी के जाएंगे
-जनादेश रूपी ताले की चाबी जनता के हाथ में होती है, नेताओं और कार्यकर्ताओं के हाथ में नहीं

✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉लोकसभा चुनाव के छह चरण पूरे हो गए हैं और आखिरी व सातवां चरण बाकी है। इसके बाद 4 जून को मतगणना होगी, तो देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह साफ हो जाएगा। हालांकि पिछले डेढ़-दो दशक से राजनीति और इसके निमित बयानबाजी में तेजी से गिरावट आई है। ऐसा लगता है, इस देश में राजनीति ही सब-कुछ हो गई है। देश में रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी, पानी, बिजली, सड़क जैसे अहम् और आम-अवाम से जुड़े मसले राजनीतिक वीरों, बयानवीरों की भाषायी मर्यादा की गिरावट में कहीं खो गए हैं। चुनाव चाहे लोकसभा के हों, विधानसभा के हों, पंचायतीराज संस्थाओं के हों या नगर निकायों के हों, भाषा का स्तर हर बार पिछली बार से सौ-दो सौ गुना ज्यादा गिर जाता है। इस बार भी लोकसभा चुनाव में ही ऐसा हुआ है। वार्ड और ब्लॉक स्तर के नेता-कार्यकर्ता भाषा की मर्यादा खो दें, तो कोई बात नहीं, लेकिन जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के नेता भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें, तो अचरज होता है।

प्रेम आनंदकर
कई बार यह सवाल मन में कौंधने लगता है कि आखिर हमारा देश किस दिशा में जा रहा है और हम आने वाली पीढ़ी को कौनसे संस्कार, भाषा-बोली और सभ्यता परोस रहे हैं। चलिए, निचले स्तर के नेता-कार्यकर्ता आपस में एक-दूसरे को राजनीतिक रूप से भला-बुरा कहें, तो बात कुछ समझ में भी आती है, किंतु अफसोस तब होता है, जब राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के घटिया भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। चुनाव परिणाम किस पार्टी या गठबंधन के पक्ष में आएंगे, किसके नहीं, यह 4 जून को पता चलेगा, किंतु अभी से एक-दूसरे के निपट जाने की बातें ऐसे बोली जा रही हैं, मानो उन पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता खुद ना केवल ज्योतिषी हों, बल्कि एक-एक वोटिंग मशीन के अंदर घुसकर खुद बैठे हों। कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 4 जून को झोली-झंडे उठाकर गुजरात या संन्यास आश्रम भेजने पर तुले हुए हैं, तो कोई कांग्रेस के कद्दावर नेता राहुल गांधी को उनकी नानी के यहां इटली भेज रहे हैं। ऐसे में एक बात समझ में नहीं आती है कि जब जनता-जनार्दन ही जनादेश दे रही है और उसके परिणाम आने बाकी हैं, तो कम से कम परिणाम आने का इंतजार तो कर लीजिए। यह अलग बात है कि परिणाम आने से पहले सभी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता अपने-अपने पक्ष में परिणाम आने और प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने का दावा करते हैं। यह दावे करने भी चाहिए, क्योंकि उम्मीद सभी को होती है। उम्मीद करना एक सकारात्मक पहलू है, जो बना रहना चाहिए। परिणाम आने के बाद जनादेश को शिरोधार्य करने की बात कहना भी हमारी ही परंपरा है। तो फिर कीचड़ उछालना तो हमारी परंपरा बिल्कुल नहीं है। ना मोदी झोली-झंडा उठाकर कहीं जाने वाले हैं और ना ही राहुल गांधी नानी के जाएंगे। सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता यहीं रहेंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत विधायिका में दो ही तंत्र होते हैं-सत्तापक्ष और विपक्ष। जनता जनादेश तो सभी राजनीतिक दलों को देती है, किसी को कम, तो किसी को ज्यादा। जिसको ज्यादा जनादेश मिलता है, वह सत्ता में होता है और जिसको कम मिलता है, वह विपक्ष की भूमिका निभाता है। हां, जनादेश मिलने के बाद सत्ता की लालसा में खरीददारी का दौर भी चलता है। इसमें जिसका जोर ज्यादा चलता है, वह सत्ता हासिल कर लेता है। इसलिए जनादेश मिलने का तसल्ली से इंतजार कीजिए। जनादेश की भावनाओं का सम्मान कीजिए। आखिर जनादेश रूपी ताले की चाबी जनता के हाथ में होती है, नेताओं और कार्यकर्ताओं के हाथ में नहीं।

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