ज़िन्दगी एक खुली किताब है
कितना पढें इस किताब को,
थक चुका हूं अब पढ़ते-पढ़ते
फिर से खोल देती है अगली पृष्ठ ।
मजबूरन ही पढ़ना पड़ता है
ज़िन्दगी तुझे संवारने की खातिर,
ऐ ज़िन्दगी तू संवरती तो नही है
पर हां उम्र पल-पल ढ़़ल जाती है ।
ज़िन्दगी की किताब पढ़ पाना
मुमकिन ही नही नामुमकिन है,
इस किताब को पूर्ण किए बगैर ही
कमब्खत ज़िन्दगी तू खत्म हो जाती हैं।
गोपाल नेवार, ‘गणेश’सलुवा, खड़गपुर, पश्चिम मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल। 9832170390.