*बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,*
*और नदियों के किनारे घर बने हैं।*
चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं।
इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं।
आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं।
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं।
अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए,
हमसफ़र ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं।
दुष्यंत कुमार की यह ग़ज़ल अजमेर पर फिट बैठती है 1982 में मैंने पहली बार इस कालजयी रचना को पढ़ा था और निश्चय किया था कि आना सागर के आसपास घर कभी नहीं बनाऊंगा।
उन दिनों राजस्थान यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष (जो नगर सुधार न्यास के भी सदस्य रहे) रहे स्व श्री भगवान दास रामचंदानी मेरे परम मित्र थे। उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मैं किसी ऑक्शन में आकर यूआईटी का प्लॉट खरीद लूं । उन दिनों यह भूखंड 40 से 50 रु वर्ग गज की दर से नीलामी में मिल जाया करते थे। कई लोगों ने मुझे सुझाव दिया कि सागर विहार कॉलोनी शहर की श्रेष्ठ कॉलोनी है, वहां भूखंड खरीद लें, लेकिन मुझे दुष्यंत कुमार की उपरोक्त गज़ल ध्यान थी इसलिए मैंने वैशाली नगर के बजाय शास्त्री नगर का चुनाव किया। बाद में शास्त्री नगर में पानी की समस्या के मद्दे नजर मुझे पंचशील में आना पड़ा। आज जब शहर की बहुत सारी कालोनियां और बस्तियां पानी में डूब गई तो मुझे दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल आज फिर याद आई।
साथ ही मेरे मन में एक सवाल आया कि आज के करीब 45 साल पहले एक बैंक के साधारण कर्मचारी को समझ में आ गया कि नदी या झील के किनारे घर नहीं बनाना है, तब हमारी नगर सुधार न्यास, नगर परिषद , जिला प्रशासन और टाउन प्लानर को यह क्यों समझ में नहीं आया कि आनासागर के चारों ओर का क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए और यहां पर कालोनियां,बाजार, मैरिज हॉल, सेवेन वंडर्स के बजाय पेड़ लगाए जाने चाहिए।
इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि अजमेर की जनता चुप रह कर यह जुल्म सहती रही और सह रही है !
*वेद माथुर*
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