ब्रह्म, ईश्वर और जीव

शिव शर्मा
आदि शंकराचार्य ने विवेक चूड़ामणि ग्रंथ मे लिखा है कि ब्रह्म और जीव एक ही सत्ता है। जगत मिथ्या यानी असत्य है – यह मिटता रहता है, बनता रहता है, रूप बदलता रहता है। इस कारण मिथ्या है – कभी चांद नहीं था, अब है। कभी पृथ्वी ही नहीं थी, अब है। कभी डायनोसोर थे, अब नहीं हैं। कभी विशाल सरस्वती नदी थी, अब नहीं है।
ऐसे ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है –
ईश्वर अंस जीव अविनासी। चेतन, अमल, सहज, सुख रासि।।
उपनिषदों में ईश्वर और ब्रह्म को एक ही कहा गया है। अनादि, अनंत बताया गया है। अंश का मतलब टुकड़ा नहीं है। जिस तरह प्रकाश की सूक्ष्मतम ईकाई फोटोन ( कण एवं तरंग दोनो) प्रकाश से पृथक नहीं है, उसी भांति जीव भी ब्रह्म से अलग नहीं है। फोटोन को प्रकाश का टुकड़ा नहीं कह सकते हैं। वह प्रकाश की तरंग है। ऐसे ही जीव को ब्रह्म का अंश यानी टुकड़ा कहना गलत है। तो अनंत ब्रह्म का अंश जीव भी अनंत ही होगा, सांत (जिसका अंत होता है) नहीं। बस, जीव का शरीर बदलता रहता है। वह एक शरीर का अंत होते ही दूसरे शरीर में चला जाता है। ऐसे ही जीव जगत एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर ‘विस्थापित’ होता रहता है। कभी मंगल पर जीवन था, अब नहीं है। आगे इसी तरह बुध, शुक्र ब्रहपर जीवन हो सकेगा। फिर आकाशगंगा में मौजूद करोड़ों ग्रहों में न जाने कितने ग्रहों पर जीव जगत आबाद होगा। ऐसे ही अरबों आकाशगंगाओं के खरबों ग्रहों पर यह क्रम चलता रहेगा। इसीलिए गोस्वामी जी ने जीव को भी अविनाशी कहा है।
यह जीव भी चेतन है, बोध शक्ति से युक्त है – इसे संसार का बोध होता है इस कारण यह चेतन है। अमल यानी शुद्ध – ब्रह्म का अंश होने के कारण यह जीव इच्छाओं, वासनाओं आदि से मुक्त है। ये इच्छायें, वासनाएं तो जड़ प्रकृति के संघात मन, बुद्धि, अहंकार की हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी अपरा शक्ति प्रकृति के आठ तत्वो ( आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, मन, बुद्धि, अहंकार) ं से मनुष्य शरीर बनता है। इसलिए भोक्ता भी यही है, जीव (जीवात्मा) नहीं । गोस्वामी जी ने जीव को सहज कहा है। सहज यानी ब्रह्म के साथ ही अस्तित्व वान है। सुख रासि यानी इस में कोई क्लेश नहीं है। पतंजलि सूत्र में मनुष्य जीवन के पांच क्लेश बताये गए है- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ( स्वयं की मृत्यु का भय)। तो क्लेश मनुष्य जीवन के हैं, शरीर रहित जीव के नहीं। सुख का अर्थ आनंद, शांति, अद्वंद्व भी है।
तेत्तरीय उपनिषद में कहा गया है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। आदि शंकराचार्य ने कहा है कि प्रज्ञा यानी ब्रह्म का ज्ञान ही ब्रह्म है। यह ज्ञान चेतना कराती है। चेतना आतमा की विभूति है। अतः बह्म, आत्मा, चेतना एवं प्रज्ञा आपस में पृथक नहीं हैं।
शिव शर्मा

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