
चारों तरफ उपाधियां हैं, मनुष्य नहीं। हम जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव आदि हैं, विशुद्ध मनुष्य नहीं। हम मंत्री, नेता, अधिकारी, कर्मचारी हैं, मनुष्य नहीं। हम आतंकी, गुंडे, अपराधी, कैदी हैं, मनुष्य नहीं। हम व्यापारी, उद्वोगपति, दुकानदार हैं, मनुष्य नहीं। हम रिश्तों की विविध उपरधियां हैं, मनुष्य नहीं। इसीलिए अशांति है। इसीलिए कटुता है, तनाव है, लड़ाई झगड़े हैं। रक्तपात है। हम धन के लिए लड़ते हैं, धर्म के बहाने लड़ते हैं, कुर्सी के लिए लड़ते हैं। किसी न किसी बहाने हम लड़ते रहते हैं। हम भोग, स्वाद, सत्ता, प्रसिद्धि, अहंकार के पीछे भागते रहते हैं। शांत रहना भूल गए हैं। संयत रहना भूल गए हैं। अविरुद्ध रहना हमें याद ही नहीं। अपनी शुद्धता में ठहरना भूल गए हैं। सहअस्तित्व को भूल गए हैं – यह केवल किताबों में है, वक्तव्यों में हैं, किसी मंच पर है ; हकीकत में नहीं। इबादत, अकीदत, भक्ति आदि में भी ग्लैमर आगे आगे चलता है।