
भक्ति का संबंध भाव से है, शरीर से नहीं। शरीर तो हमें भक्ति के लिए जीवित रखे हुए है; बस। इबादत, सुमिरन, भक्ति आदि ईश्वर के भाव से आरंभ होती है और उसी भाव में डूबने तक पहुंचती है। परमात्मा के भाव में डूबना यानि तन्मय हो जाना। फिर उसी भाव में उठना-बैठना, खाना-पीना, काम-धंधा करना, नौकरी-व्यवसाय करना। ऐसे ही परम भाव में रहते हुए ऋषिगण श्लोक लिखते रहते थे, गुरुकुल चलाते थे, गर्भाधान करते थे एवं गृहस्थी को पालते थे।
हम शरीर से भगवान का नाम जपते हैं। हम देह से सुमिरन करते हैं। ऐसा करते हुए वस्तुत: हम शब्दों का उच्चारण ही करते हैं, सुमिरन नहीं। सुमिरन यानि शब्द या नाम के सहारे ईश्वर का स्मरण। स्मरण यानि भगवान के स्वरूप का ध्यान। परमात्मा के स्वरूप में ध्यान लगाते हुए किए जाने वाले जाप को सुमिरन कहते हैं। किंतु हम ऐसा जाप नहीं करते हैं। हमें तो ध्यान रहता है कि हम नाम जाप कर रहे हैं। हमें तो होश है कि एक घंटा बीत गया है। हमें पता रहता है कि इस दौरान कौन-कौन आया-गया, कैसी आवाज हुई। हम प्रभु के ध्यान में तो उतरे ही नहीं। हमारे शब्दों की लय तो बनी ही नहीं। हम तो शब्दों की गिनती का ध्यान रखे हुए हैं। यह भक्ति नहीं है, भक्ति की औपचारिकता का निर्वाह है। यह इबादत नहीं है, इबादत संबंधी अज्ञान है।
तुम अपने काम-काज, पत्नी-पुत्र आदि के ख्याल में रहते हुए इबादत नहीं कर सकते हो। इबादत के लिए, भक्ति के लिए तुम्हें गुरु के ध्यान में, परमात्मा के ध्यान में उतरना ही होगा। शरीर से उठकर भाव में बैठना ही होगा। भाव में खुद को भूलना ही पड़ेगा। तुम्हें परीक्षा देनी है तो घर छोड़कर परीक्षा भवन में जाकर बैठना ही होगा। ऐसे ही भक्ति के लिए शरीर के ध्यान को छोड़कर, ईश्वर के भाव में डूबना जरूरी है।