
बात आध्यात्मिक गुरू की हो रही है। जो मनुष् को आत्मानुभूति करा दे वह गुरू। जो जीव को उसके ब्रह्म रूप के दर्शन करा दे वह गुरू। जो आसक्ति से अनासक्ति शाले कर्म पथ पर चलना सिखा दे वह गुरू होताहै। साधु वेश धारी हर कोई मनुष्य इस योग्य नहीं होता है। गीता के चौथे अध्याय के 31, 32वें श्लोक में यह समझाया गया है कि गुरु कौन है। श्रीकृष्ण के कथन का सार इस प्रकार है – आत्मज्ञान में स्थिर वह महात्मा जो दूसरों को भी परम का बोध करा सके। ऐसा गुरु जो शिष्य की कुंडलिनी शक्ति जागृत करके उसे वैश्विक चेतना से जोड़ दे। ऐसा संत जो शरणागत के सारे संचित भोग-संस्कारों से उसे मुक्त कर दे। ऐसा फकीर जिसकी नज़र से मुरीद के कर्तापन का अभिमान और भोक्ता होने की आसक्ति तिरोहित हो जाए।
18वें अध्याय के 66वें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि तू मेरी शरण में आजा; मैं तुझे सारे पापों से मुक्त कर दूंगा। महात्मा या गुरु भी वह जो शिष्य के साथ ऐसा ही करें। श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से मनुष्य को ऐसे गुरु के पास जाने के लिए कहा। वर्तमान काल के दौरान अनेक गुरु या महात्मा हुए हैं – सर्व श्री श्यामाचरण लाहीड़ी, मां आनंदमयी, देवरहा बाबा, नीम करोली बाबा, मुंशी रामचंद्र जी, निज़ामुल हक कलंदर आदि।