श्रीकृष्ण ने गीता में योग को नये ढंग से परिभाषित किया!

शिव शर्मा

कर्म करते हुए स्वयं से भी अनासक्त हो जाओ, खुद के प्रति निर्मोही हो जाओ। ऐसी अवस्था है कर्मयोग। कर्मगत उद्देश्य और कर्ता के अद्वैत हो जाने का नाम है योग। कर्ता और कर्म की जुगलबंदी है योग। हमारा परिश्रम, योग्यता, संकल्प एवं एकाग्रता ही किये गये कार्य के परिणाम में रूपांतरित होते हैं।

गीता में दूसरे अध्याय के पचासवें श्लोक में भगवान कहते हैं कि – योगः कर्मसु कौशलम। इसका मतलब यह है कि (1) किसी कार्य को कुशलतापूर्वक पूरा करना योग है (2) योग हमें ऐसी विधि बताता है जिसके जरिये हम हमारे कर्म को उसके उच्चतम एवं श्रेष्ठतम परिणाम तक पहुंचा सकें (3) किसी कार्य को करने की श्रेष्ठतम विधि ही योग है।
व्याख्या : कार्य लौकिक हो या आध्यात्मिक, उसे अधिकतम योग्यता से और श्रेष्ठतम तरीके से करना चाहिए। योगी जन के लिए समाधि ही सार्थक कर्म है। इसके लिए आठ स्तर (यम, नियम , निदिध्यासन, प्रत्याहार, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि) पर मनोयोग पूर्वक अभ्यास करने की विधि योगशास्त्र में बताई गयी है। किसी भी स्तर पर लापरवाही योगी को विफल कर देती है। इसी तरह लौकिक स्तर पर निश्चित सफलता के लिए कार्य-कौशल पर जोर दिया गया है। यहां भी अभ्यास के अनेक स्तर हैं : –
1)  कार्य किस तरह का है, यह समझ लें।
2) तत्कालीन परिस्थितियां कैसी हैं, इसका आकलन कर लें।
3) उक्त काम के लिए खुद की मानसिक योग्यता का मूल्यांकन कर लें।
4) काम में सफलता के लिए अपेक्षित संसाधनों को भी देख लें।
5) अपेक्षित बाधाओं की उपेक्षा नहीं करें।
6) संकल्प शक्ति एवं एकाग्रता को बिखरने नहीं दें।
7) विफलता की निराधार आशंकाओं से विचलित न होएं।
8) और स्वयं को थकने मत दो।
गीता में दो सौ पचास से ज्यादा श्लोक कर्मवाद से संबन्धित हैं। भक्ति, ज्ञान, सन्यास को भी कर्म माना है। दुविधा, संशय, भय, मोह, अविवेक, चिंता आदि को कार्य विधि में बाधक कहा गया है। तत्वज्ञानी महात्मा की कृपा को सफलता के लिए बहुत उपयोगी (चौथा अध्याय) कहा गया है।
दृष्टांत – युद्ध को निश्चित मानते हुए कृष्ण ने बारह वर्षीय वनवास काल के दौरान पांडवों से अनेक कार्य कराऐ – मित्र राज्यों को अपने पक्ष में एकजुट करना, कौरवों की प्रत्येक गतिविधि की सूचना प्राप्त करते रहना, अर्जुन को अमोघ दिव्यास्त्र उपलब्ध कराना। कौरवों के महारथियों के अंत वाले सूत्र तय कर लेना। उच्चतम स्तर की राजनीति और सामरिक कूटनीति तैयार कर लेना। यही योग है, कर्मवादी योग।
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