लागी लागी सब कहिन, लागी लागी नाहीं।
लागी तो तब जानिए, लागी हो मन माहीं॥

यह सीधी चोट है, कलेजे पर चोट है। आडम्बर पर पर चोट है, भक्ति के ढकोसले पर चोट है। नाम-सुमिरन के दिखावे पर चोट है। कबीर तो ढोंगियों को फटकारते हैं। कबीर आडम्बर को लताड़ते हैं। वे खरे हैं, उनकी इबादत खरी है, उनकी हर बात खरी है। कहीं लपट जैसी, कहीं तलवार जैसी। यहां भी ऐसा ही तेवर है।
लागी लागी सब कहिन – सारे लोग कहते फिरते हैं लागी लागी यानि भगवान के साथ लगन लग गई है। गुरु के साथ लगन लग गई है। किंतु वास्तव में वे सब झूठ बोलते हैं। लगन (लागी) अभी तक लगी नहीं है। अभी तो दुनियादारी से लगन है। अभी तो कंचन-कामिनी से लगन है। अभी तो मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा से लगन लगी हुई है। अभी भगवान या गुरु के साथ भी लालच की लगन है; भक्ति की नहीं। अभी तो ईश्वर से भी आस, औलाद चाहते हैं। शादी-ब्याह मांगते हैं; रोटी, कपड़ा, मकान मांगते हैं। इसीलिए ‘लागी लागी’ नाहीं।
लागी तो तब जानिए – लगन लगी हुई हो तब समझो जब मन प्रभु की भक्ति में लग जाए। गृहस्थी के काम चलते रहें किंतु मन भगवान की तरफ ही लगा रहे। हर पल याद रहे कि परमात्मा देख रहा है। कबीर कहते हैं कि ‘लागी’ हो मन माहीं – मन इबादत में लग गया है। मन दुनियादारी से उलट कर सुमिरन में डूब गया हो, मन अपनी श्वास-प्रश्वास में हरि नाम सुनने लगा हो। हमारी सच्चाई तो यह है कि राम भी मुंह में, स्वाद भी मुंह में। माला हाथ में और बेईमानी भी हाथ में। प्रभु का ध्यान भी दिमाग में, वासना भी दिमाग में। ऐसा नहीं चलेगा, लगन तो एक ही से लगती है; दो में तो मक्कारी है। भक्ति और भोग; दोनों में एक साथ लगन कैसे लगेगी। स्वाद को शरीर तक रहने दो; मन तक मत पहुंचने दो। भोग इंद्रियों का कर्म है; मन का नहीं। मन का स्वाद तो परमानुभूति है। मन उसके लिए ही विकल रहता है। हम अज्ञान के कारण उसे स्वाद से जोड़ देते हैं।
महाराज ऋषभदेव अपनी रंगशाला में नर्तकी का नृत्य देख रहे थे। अचानक ही नर्तकी जमीन पर गिर गई और मर गई। महाराज के मन पर नश्वरता की चोट लगी। वे उठे, राजपाट छोड़ दिया और भक्ति के लिए वन में चले गए। लगन ऐसी लगी कि ये महाराज जैनियों के प्रथम तीर्थंकर बने। लगन राजा भर्तहरी को लगी और सिंहासन त्याग कर जोगी हो गए; इच्छाधारी बाबा हो गए। लगन मीरा को लगी; महल छोड़कर सड़क पर नाचने लगी। उसे साक्षात् कृष्ण ने अंगीकार किया। लगन राजा जनक को लगी; राजमहल में ही चटाई पर सोने लगे। मिट्टी के बर्तन में सादा भोजन करने लगे और गृहस्थी में ही योगीराज हो गए। लगन कबीर को लगी; घर में ही भक्ति करी और बोले- जाप हमारा राम करे, हम बैठे आराम करें। इसका मतलब यह है कि उनकी सांस में ही नाम चलने लगा। जपे बिना ही जाप होने लगा।
भक्ति की ताप जब मन में बढ़ती है तो बाहर के सारे विकार भस्म हो जाते हैं।