-मोहन थानवी- बजट। राज का। बाजार का। घर का। नाम का। सरकार का। दुकान का। बस…। लेना एक न देना दो। कुछ प्रतिषत इधर बढ़ाया। कुछ उधर घटाया। महंगाई की सूरत देखी। जनता की सूरत अनदेखी। राज काज के लिए कार्मिकों को कुछ अधिक बजट। घर काम के लिए गृहिणियों को कुछ कम बजट। कुछ हंगामा। कुछ मेजें थपथपाना। हो गया काम। किसी भी राज मंे बजट के पन्नों में ऐसी स्याही इस्तेमाल नहीं हुई न होगी जिसकी रोषनाई से जनता के चेहरे रोषन हुए हों या होंगे। वजह भी साफ है। आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया। यह भी नोट किया जाए कि कीमतें उन्हीं चीजों की बढ़ती हैं जिनकी मांग घर घर में होती है। बिजली, पानी। रोटी कपड़ा। मकान। षिक्षा। यात्रा। षादी। इसी के इर्द गिर्द घूमती चीजों के दाम बढ़ते हैं। राज के काज करने वाले अपने भाई और साथी लोगों के भत्तों में इसी आधार पर बढ़ोतरी के प्रावधान बनाते हैं। उस कलाकार की पीड़ा को कोई महसूस नहीं करता जो मिट्टी को अपनी अंगुलियों और कलाइयों के हुनर से आमजन की पसंद का आकार देता है। उस कलाकार, श्रमिक की खुशी को साकार करने का कोई प्रावधान किसी बजट में नहीं दिखता। श्रमिक धैर्य की प्रतिमा होता है। ऐसा कलाकार है जो राज करने वालों के हुकम के अनुसार आमजन तक जरूरत की चीजें मुहैया कराने में सामान ढोने की कला से भी गुरैज नहीं करता। मजदूर भी कलाकार है। नहर खोदता है। बिजली के पोल खड़े कर शहर रोशन करता है। गांवों में कृषि कुओं की मोटर चलाता है। दैनिक कर्म करता है। दिहाड़ी मजदूर। सूर्योदय से सूर्यास्त तक भूखे पेट बोझ उठाने की कला जानने वाले से बड़ा कलाकार भला कौन ! किसान भी हर वक्त धरती से जन जन के लिए अन्न के दाने उपजाने में जुटा रहता है। पशुधन के लिए चारा पैदा करने की फिक्र उसे ही करनी होती है। उसकी भी अनदेखी षीतल कक्षों में बैठने वाले करें तो कोई अजूबा नहीं। यह उनकी कलाकारी मानी जाती है। ऐसे कलाकार जो महंगाई बढ़ाने के तरीके जानते हैं। पता नहीं कब से राज करने की कला में ऐसी नीति षामिल हो गई कि दबे को दबा ही रहने दो। गरीब परिवार को अमीरी का सपना देखने से पहले नींद से जगा दो। राज की कला ही है, दस गुना वेतन भत्तों का फर्क एक ही विभाग के कार्मिकों में दिखाई देता है। कर्मचारी काम करता है आठ हजार पाता है अधिकारी आदेष चलाता है अस्सी हजार लेता है। बहरहाल साल चुनावी साल से पहले का है इसलिए हाल कुछ ऐसा है। जीवन की गाड़ी हांकने के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं में शामिल बिजली, पानी, पेट्रोल, दूध, गेहूं, नून तेल लकड़ी (गैस-कैरोसिन) के दामों पर अंकुश की बजाय जब राज की कला जानने वाले विदेशी कारों और ऐशोआराम की लक्जरी चीजों पर तवज्जो देने लगें तो समझ लीजे, आर्थिक सुधार बाजारवाद की बात है। क्या यही बजट है, राज का, बाजार का। लेकिन बावजूद इसके उम्मीद कायम है…कलाकार का बजट आएगा… आएगा… जरूर आएगा। राज का कलाकार भी जागेगा।