पार्टी में ही कुछ बना दो न…!

मोहन थानवी
मोहन थानवी

-मोहन थानवी– अच्छा, कुछ तो कीजिए सर। प्लीज…। भीड़ में शामिल हम युवक की बात कम और नेताजी के चेहरे को अधिक तवज्जो से ताक रहे थे। युवक बार बार अपना संकट हरने के लिए नेताजी के आगे पसरा जा रहा था और हम मन ही मन कुढ़ रहे थे। कुढ़ इसलिए रहे थे कि युवक के बाद नेताजी से हस्तरेखाएं मिलाने का नंबर हमारा ही था। वो कहते हैं न कि तकदीर नहीं तो हाथ की रेखाएं ही मिला दो… । युवक की आवाज फिर सुनाई दी… सर नौकरी नहीं दिला सकते तो पार्टी में ही कुछ बना दो न… ! इस बार नेताजी चिहंुक उठो। मुस्कराए। आंखों की चमक भी बढ़ गई। बैठे बिठाए एक कार्यकर्ता मिल रहा था। चुनाव सिर पर हैं। युवक के परिजन वोट भी सहर्ष देंगे। नेताजी खुश। उन्हें खुश देख युवक भी खुश हुआ। नेताजी ने उसे भीतर कमरे में जाने का इशारा किया तो हम भी खुश हुए। आखिर वह घड़ी आन पहुंची थी, जिसका इंतजार पांच साल से हम कर रहे थे। नेताजी से रूबरू होने का इंतजार। पांच साल तक तो हमें पता ही नहीं चला कि नेताजी आखिर हमारे इलाके के वोट बटोर कर गए कहां ! इन दिनों फिर से चुनावी रणभेरी की गूंज सुनाई दे रही है तो वादों का तरकश लेकर नेताजी भी हमारे शहर… बल्कि हमारे मोहल्ले… और हमारी गली में आन पहंुचे हैं। हममें ही धैर्य चुक गया… दो दिन और रूठे हुए रहते तो जरूर नेताजी अपनी पलटन के साथ हमारे एक कमरे के घर में आ ही जाते। खैर…। हम में भी कुछ मानवीयता है… नेताजी को ही बार बार हर बार पांच साल बाद तकलीफ क्यों दें! इसलिए हम खुद अपने पैरों चल कर नेताजी के दरबार में आन पहुंचे हैं। और आन पहंुचा है वह पल, जब हम अपने खुरदरे हाथ नेताजी के मुलायम हाथों में सौंप रहे हैं। ओह!!! ओह!!! कितने नरम और गरम हैं नेताजी के हाथ। मन में सवाल उठा, हमारे हाथ ऐसे क्यों नहीं ! तभी तंदा्र टूटी, नेताजी की मधुर, मिश्री से मिठी आवाज कानों में पड़ी, आइए कलमदास जी… आपने तो हमें भुला ही दिया। हम क्या कहते…। किसने किसको भुलाया… दुनिया जानती है। नेताजी ने फिर पूछा, कैसा चल रहा है आपका लेखन! हम सकुचाए। कलमदास का लेखन तो हमेशा दौड़ता है, चलाना जो घर परिवार को होता है। नेताजी को शायद दुनियादारी के ऐसे अनुभव नहीं हैं। तभी तो वे आटे दाल के भाव नहीं जानते। हमसे भी ये नहीं पूछ रहे कि गैस नहीं मिल रही तो रसोई में धुआं कैसे उठता है ! ये भी नहीं पूछ रहे कि आधा आधा कप ही सही, दूध दही खाते हो या नहीं। यह भी नहीं जानना चाहते कि बच्चों को पढ़ाने में ही एक तिहाई तनख्वाह खप जाती है, बाकी एक तिहाई बिजली पानी के बिल चुकाने में तो फिर बची खुची एक तिहाई पगार से कैसे महीना भर गाड़ी खींचते हो। यदि नेताजी ऐसा पूछते तो हम जरूर कहते, सर उसी एक तिहाई से ही तो पेट्रोल भरवा पाता हूं। खाने के तो सपने ही देखता हूं। पीता सिर्फ गम हूं। वो भी बाकी गम भुलाने को। लेकिन नहीं, हमसे न तो ऐसा कुछ पूछा गया और न ही हमसे ऐसा कुछ कहा गया। हमने देखा, कुछ पल पहले की तरह हमारे पीछे लाइन में लगे लालाजी भी हमें और नेताजी को उन्हीं भावों से ताक रहे थे, जैसे हम युवक और नेताजी को ताक चुके। हमें अपने पर गुस्सा आया। नेताजी से कुछ कामकाज का जुगाड़ करने के आग्रह के लिए ही तो हम भी आए थे, युवक की ही तरह। क्या कहें ! कुछ नहीं सूझा तो हमने भी युवक का ही अनुसरण किया। हम बड़ी उम्मीद से बोले, सर, गाड़ी चलाने में दिक्कतें बहुत आ रही हैं…। पार्टी में ही कुछ बना दो न…! हमारी बात सुन कर पता नहीं क्यों नेताजी की आंखें पहले से भी ज्यादा तेज चमकने लगीं। हमने कयास लगाया, जरूर नेताजी को पता चल गया है, ये चुनाव भी उनकी उम्मीदों को पंख लगाएंगे। नेताजी ने मुस्कराते हुए हमारी रोनी सूरत देखी और… भीतर प्रवेश करने का और  हमारे पीछे लाइन में खड़े लालाजी को आगे आने का संकेत करते देर नहीं लगाई। जय हो।

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