राजनीति की ताकत और मेवाड़ का महत्व

-निरंजन परिहार- दिल्ली हमेशा से हमारी सत्ता का केंद्र रही है। देश तो दिल्ली से चलता ही है, बादशाह अकबर और उसकी औलादों ने भी हम पर वहीं से राज किया। इसलिए चलिए, इस बार अपन मेवाड़ की राजनीति बात की शुरूआत भी दिल्ली से ही करते हैं। सबसे पहले एक ऐतिहासिक संदर्भ सुन लीजिए। इतिहास के तथ्य तलाशें और बात मेवाड़ के शूरवीर शासक महाराणा प्रताप के जमाने की करें, तो दिल्ली का सुल्तान बादशाह अकबर सारी कोशिशें करके भी अंत तक मेवाड़ को जीत नहीं पाया। महाराणा ने हार नहीं मानी और अकबर हमारे प्रताप को परास्त नहीं कर पाया। तो अकबर ने पूरा ध्यान सिर्फ दिल्ली पर लगा लिया और कहा कि मेवाड़ वैसे भी कम महत्व का राज्य है और उसका हमारे लिए तो यूं भी कोई खास महत्व नहीं है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। बादशाह अकबर के लिए मेवाड़ अगर महत्वपूर्ण नहीं होता, तो वह उसे जीतने के प्रयास ही नहीं करते। जीत नहीं पाए, तो अंगूर खट्टे हैं की तर्ज पर उसे महत्वहीन बताकर चलते बने।

निरंजन परिहार
निरंजन परिहार

तब से लेकर अब तक हमारे शासकों में मेवाड़ का स्थान सबसे महत्वपूर्ण रहा है। भले ही वे इतिहास के शासक हों या लोकतंत्र के, मेवाड़ के बारे में हमेशा उनका अतिरिक्त स्नेह हमेशा से देखा जाता रहा है। वे जानते हैं कि मेवाड़ को जीते बिना जयपुर में राज करना कतई संभव नहीं है। इसीलिए सारे के सारे मेवाड़ को फतह करने की सबसे पहले सोचते हैं। मेवाड़ हमारे राजस्थान की राजनीतिक मंजिल का माई बाप रहा है। इसीलिए मेवाड़ का तो रहा ही है, यहां के नेताओं का भी राजस्थान की राजनीति में हमेशा से दबदबा रहा है। सीपी जोशी, रधुवीर मीणा और किरण माहेश्वरी तो खैर राजनीति में अभी जन्मे हैं, लेकिन मोहनलाल सुखाड़िया से लेकर हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर ले लेकर हीरालाल देवपुरा और गुलाबचंद कटारिया का राजस्थान की राजनीति में मजबूत असर रहा है।

देश के हिसाब से देखें, तो मेवाड़ में जिले भले ही सात हैं, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, राजसमंद, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़। लेकिन लोकसभा की सीटें कुल मिलाकर पांच हैं। चित्तौड़गढ़ से डॉ. सुश्री गिरिजा व्यास सांसद हैं, भीलवाड़ा से सीपी जोशी, राजसमंद से गोपालसिंह शेखावत, उदयपुर से रघुवीर मीणा और बांसवाड़ा से ताराचंद भगोरा सांसद हैं। सारे के सारे कांग्रेस के। फिलहाल बीजेपी का कोई नामोनिशान नहीं। मेवाड़ वैसे भी कांग्रेस का गढ़ कहा जाता रहा है। मेवाड़ कांग्रेस पर भरोसा करता रहा है और कांग्रेस ने भी उस भरोसे के बदले मेवाड़ का खूब विकास किया। लेकिन कभी स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत के भरसक प्रयास, कभी वसुंधरा राजे की अनोखी अदाओं, कभी ओमप्रकाश माथुर की मारक मुद्राओं और कभी कटारिया की कोशिशों के अलावा अकसर कांग्रेस की कमनसीबी से मेवाड़ में बीजेपी का बीजोरोपण होता रहा। वैसे मेवाड़ में बीजेपी का इतिहास आपसी लड़ाई के अलावा कुछ खास नहीं रहा है। फिर भी मेवाड़ से कटारिया के मुकाबले बीजेपी में समूचे राजस्थान के स्तर का कोई कद्दावर नेता फिलहाल तो नहीं है।
सीपी जोशी से लेकर गिरिजा व्यास और गुलाबचंद कटारिया जैसे मेवाड़ के धुरंधर नेताओं के बारे में लोग अच्छी तरह जानते हैं कि मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप की परंपरा को भले ही ये नेता बहुत आगे नहीं बढ़ा पाए हों, पर मेवाड़ की शान को उन्होंने डिगाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि ये नेता यह भी जानते हैं कि अपनी शान में गुस्ताखी मेवाड़ को कतई पसंद नहीं है। किरण माहेश्वरी ने चौदहवी लोकसभा में मेवाड़ की राजधानी उदयपुर से बीजेपी की सांसद बनने के बाद खुद को मेवाड़ से बड़ा मान लिया था। बीजेपी की राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद तो किरण देश की नेता की फ्रेम में अपनी तस्वीर को फिट करने लगी। तो मेवाड़ ने भी उनको अपनी ताकत और उनकी औकात दिखा दी। पंद्रहवी लोकसभा में उनको अजमेर जाना पड़ा, वहां चारों खाने चित होने के बाद, चौबेजी चले थे छब्बेजी बनने और दूबेजी बन कर लौटे कहावत की तर्ज पर किरण को विधायक बनकर दिल को तलस्सी देनी पड़ी। मेवाड़ को अपनी शान में गुस्ताखी सचमुच पसंद नहीं है।
वैसे, इस बार फिर विधानसभा चुनाव आ गए हैं। बीजेपी की प्रदेश अध्यक्ष वसुंधरा राजे और कांग्रेस के सीएम अशोक गहलोत दोनों मेवाड़ के महत्व को अच्छी तरह समझते हैं। इसी लिए दोनों का ध्यान पूरी तरह से मेवाड़ पर है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही विधानसभा के चुनावी चक्रव्यूह को पार करने के लिए मेवाड़ फतह करने की फिराक में हैं। वसुंधरा राजे ने अपनी सुराज संकल्प यात्रा का शंखनाद ही मेवाड़ में नाथद्वारा से किया। उनकी यात्राओं में इस बार पूरे मेवाड़ में भीड़ भी खूब जुटी। सियासत समझने वाले यह भी समझते हैं कि श्रीमती राजे ने अपनी यात्रा के शुभारंभ के लिए मेवाड़ ही क्यों चुना। अपना मानना है कि वसुंधरा राजे को इतनी तो राजनीतिक समझ है कि यदि मेवाड़ में पिछली बार बीजेपी की लुटिया नहीं डूबती तो कोई भले ही कितनी भी कोशिश कर लेता, उनको सीएम बनने से नहीं रोक सकता था। सन 2008 के चुनाव में मेवाड़ की 28 सीटों में से सिर्फ छह सीटें ही बीजेपी को मिली थीं। चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर और बांसवाड़ा में तो बीजेपी का कमल कीचड़ में ही समा गया। तीनो जिलों में एक भी सीट पर बीजेपी नहीं जीती।
श्रीमती राजे जानती है कि बीजेपी की कमजोर कड़ी रहे मेवाड़ पर बहुत उनको मेहनत करनी है। वे यह भी जानती है कि उनकी किरण माहेश्वरी राजनीतिक रूप से ताकतवर कतई नहीं है और वे यह भी जानती हैं कि किरण मेवाड़ में सुश्री गिरिजा व्यास के अंश का भी मुकाबला नहीं कर सकती। फिर अपने कद्दावर नेता कटारिया की जनजागृति यात्रा को रुकवाकर उनका अपमान करने के उनके खेल को भी मेवाड़ अब तक भूला नहीं है। कटारिया के सामाजिक सम्मान का आलम यह है कि सन 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जोरदार आंधी के बीच भी वे कुल 25 हजार वोटों से जीते थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। कटारिया की यात्रा को रुकवाने के इस खेल में मदारी अगर वसुंधरा राजे थीं, तो किरण माहेश्वरी जमूरे के रोल में। मेवाड़ को यह भी बहुत अच्छी तरह याद है। श्रीमती राजे अपनी कोशिशों से उस याद पर मरहम लगाकर भुलाने का प्रयास करती है, तो कांग्रेस अपनी कोशिशों से हर बार फिर से लोगों की याददाश्त ताजा कर देती है। बीजेपी को इसका नुकसान तो मेवाड़ में भुगतना ही पड़ेगा।
बीजेपी को अगर मेवाड़ फतह करना है तो, इलाके के आदिवासियों में अपनी पैठ बनानी होगी। यहां के साहूकारों में अपनी साख बनानी होगी। और सबसे पहले उसे महाराणा प्रताप की माटी के सपूतों का सम्मान करना होगा। लेकिन इस सबके लिए अब वक्त बहुत कम है। क्योंकि विधानसभा चुनाव सर पर हैं और सभी जानते हैं कि महारानी वसुंधरा राजे के सामने अकेला मेवाड़ ही कोई सबसे बड़ी आफत नहीं है। राजस्थान बहुत बड़ा है और हर इलाके की आफतों की अपनी अलग कहानियां है। सो, इतिहास ने फिर अगर 2008 का इतिहास दोहराया, तो श्रीमती राजे को भी बादशाह अकबर की तरह मेवाड़ एक बार फिर खट्टे अंगूर लग सकता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

error: Content is protected !!