सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तावित नकारात्मक वोट

adwani blogभारत 1947 में स्वतंत्र हुआ। राष्ट्र के लिए ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता पाना एक युगान्तरकारी घटना थी। परन्तु लाखों लोगों के लिए यह ऐतिहासिक घटनाक्रम विभाजन की विभीषिका लेकर आया जिसने इससे उत्पन्न होने वाले आनन्द को नीरस बना दिया।
व्यक्तिगत् रुप से, अपने जीवन के पहले बीस वर्ष मैंने सिंध की राजधानी कराची में बिताए। पाकिस्तान बनने के बाद कराची तब तक नए देश की राजधानी रहा जब तक रावलपिण्डी के पास इस्लामाबाद बनकर तैयार नहीं हुआ।
सन् 1942 में मैंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी और तभी मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक बना तथा यह मेरे जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण नया मोड़ मोड़ था। इसने पूरे जीवन भर मेरी सोच और व्यवहार को प्रभावित किया। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक था। विभाजन के बाद, सिंध के अधिकांश संघ प्रचारकों को राजस्थान में जिम्मेवारियां दी गई। अत: 1947 से 1957 तक, मैं राजस्थान में पहले अलवर, फिर भरतपुर, बाद में कोटा और अंत में जयपुर में रहा। स्वतंत्रता के पहले दशक में, भारतीय संविधान अंगीकृत किए जाने के एक वर्ष पश्चात् ही डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने भारतीय जनसंघ के गठन का निर्णय किया, जो आज भारतीय जनता पार्टी के रुप में सक्रिय है।
डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी द्वारा सन् 1951 में की गई इस पहल के चलते अनेक ऐसे लोग इसकी ओर आकर्षित हुए जिन्होंने पार्टी को इतना शक्तिशाली बनाया जैसाकि आज देखने को मिलती है। ऐसे समर्पित देशभक्तों में पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी, कुशाभाऊ ठाकरे, जगन्नाथ राव जोशी, सुंदरसिंह भण्डारी, कैलाशपति मिश्रा, पी. परमेश्वरन, विष्णुकांत शास्त्री, जगदीश प्रसाद माथुर और ऐसे अनेक जिनकी सत्ता की राजनीति में कोई रुचि नहीं थी अपितु एकमात्र चिंता भारत को महान बनाने की थी।
जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया उनमें से अधिकांश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे और जनसंघ में उनके द्वारा संभाली गई जिम्मेदारियां डा. मुकर्जी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी (श्री माधव सदाशिव गोलवलकर) के बीच जनसंघ के गठन के समय हुई महत्वपूर्ण बैठक का नतीजा था।
मुझे पण्डित दीनदयालजी की वह सलाह याद आती है जब उन्होंने मुझे 1957 में राजस्थान से दिल्ली आकर श्री वाजपेयीजी का सहयोग करने को कहा। वाजपेयीजी पहली बार संसद में चुनकर आए थे और मुझे पार्टी की संसदीय इकाई गठित करने को कहा गया। उन्होंने मुझे यह भी कहा कि मैं दुनिया के विभिन्न लोकतंत्रों में प्रचलित निर्वाचन पध्दतियों का भी अध्ययन करने के साथ-साथ निर्वाचन सुधारों के मुद्दे पर अपना ध्यान केंद्रित करुं जोकि भारत को एक सच्चा सफल और जीवंत लोकतंत्र बना सकें।
तब से यदि किसी विशेष मुद्दे पर मैंने अपना सर्वाधिक ध्यान केंद्रित किया है तो वह है निर्वाचन सुधार।
गत् सप्ताह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित याचिका पर मुख्य न्यायाधीश सथाशिवम की पीठ ने मतदाताओं को नकारात्मक वोट (नेगेटिव वोट)देने की इच्छा के पक्ष में अपना निर्णय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाया है कि अब से इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर न केवल चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए ‘बटन‘ हों अपितु एक अतिरिक्त ‘बटन‘ ‘नोटा‘ (Nota) नाम से भी होना चाहिए जिसका अर्थ है ‘इनमें से कोई नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय की इस सलाह का सामान्य तौर पर स्वागत हुआ है। यहां तक कि निर्वाचन आयोग ने कहा है कि उसे इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) पर एक और बटन लगाने में कोई कठिनाई नहीं है।
आज की स्थिति में, मतदाता बगैर किसी औचित्य के, संविधान द्वारा प्रदत्त अपने मत देने के महत्वपूर्ण अधिकारी का उपयोग नहीं करते, अत: अनजाने में वह सभी चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के विरूध्द अपना वोट न चाहते हुए भी देते हैं। इसलिए मैं मानता हूं कि नकारात्मक वोट तभी सचमुच में अर्थपूर्ण बनेगा जब उसके साथ मतदान अनिवार्य कर दिया जाए। भारत में गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य है जहां इस दिशा में पहल की गई है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राज्य विधानसभा ने दो बार अनिवार्य मतदान का कानून बनाया है लेकिन इसको न तो राज्यपाल और न ही नई दिल्ली की स्वीकृति मिली है।
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री एस.वाई. कुरैशी ने इस सप्ताह दो सुंदर लेख-एक, दि इक्नॉमोक्सि टाइम्स (2 अक्तूबर, 2013) और दूसरा, दि इण्डियन एक्सप्रेस (3 अक्तूबर, 2013) लिखे हैं जिसमें उन्होंने इस फैसले के परिणामों को विश्लेषित करने का प्रयास किया है और सारांश रूप में कहा है कि यदि नापसंद करने का अधिकार वास्तव में लागू किया गया तो कुछ समस्याएं खड़ी होंगी जिनका समाधान निकाला जाना चाहिए। कुल मिलाकर, उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने स्वागतयोग्य बहस को जन्म दिया है।
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त के लेख संकेत करते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रावधान वास्तव में नकारात्मक वोट नहीं हैं। वास्तव में यह मुख्य रूप से किसी को भी वोट न देने (Abstention vote) वाला है।
आज दुनिया में 31 ऐसे देश हैं जहां के कानून किसी न किसी रूप में अनिवार्य मतदान पध्दति का प्रावधान करते हैं। परन्तु प्रेक्षकों के मुताबिक इन कानूनों का विवरण इस तरह का है कि इनमें से केवल एक दर्जन ही बगैर किसी न्यायोचित कारण के अनिवार्य मतदान न करने की स्थिति में नागरिकों पर दण्ड देने का प्रावधान रखते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में सात देशों उल्लेख किया गया है और अमेरिका का एक राज्य है जहां मतदाताओं को मत पत्र दिया जाता है या इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में
‘नोटा‘ (नकारात्मक वोट) का प्रावधान होता है। जिन सात देशों का उल्लेख सर्वोच्च न्यायालय ने किया है उनमें फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस, चिली, बंगलादेश और यूक्रेन हैं। जिस अमेरिकी राज्य का उल्लेख किया गया है वह है नेवादा। जिस तथ्य को मैं ज्यादा महत्वपूण्र् मैं मानता हूं वह है कि मेरे द्वारा वर्णित जिन पांच देशों में मतदाताओं हेतु ‘नोटा‘ (नकारात्मक वोट) का प्रावधान है, ऐसे फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस और चिली में अनिवार्य मतदान का भी प्रावधान है।
शेष 26 देश जिनमें किसी न किसी प्रकार के अनिवार्य मतदान का प्रावधान है, वे हैं: आस्ट्रिया, अर्जेन्टीना, आस्ट्रेलिया, बोलिविया, कोस्टा, रीका, साइप्रस, डोमिनियन रिपब्लिक, इक्वाडोर, मिश्र, फिजी, गबॉन, ग्वाटेमाला, होंडारस, इटली, लिंचिस्टाइन, लक्सम्बर्ग, मैक्सिको, नेरु, प्राग, पेरू, फिलीपीन, सिंगापुर, स्विटजरलैण्ड (Province of Schaffhausen) थाईलैण्ड, तुर्की और उरूगे।
व्यक्तिगत रूप से मैं महसूस करता हूं कि यदि निर्वाचन आयोग एक ओर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रति और दूसरी ओर इन 31 देशों के कानूनों तथा नियमों सम्बन्धी विस्तृत रिपोर्ट देने के साथ-साथ सभी राजनीतिक दलों की बैठक बुलाता है तो इस समूचे मुद्दे पर एक उद्देश्यपूर्ण बहस हो सकती है।
-लालकृष्ण आडवाणी

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