-सतीश शर्मा- उदयपुर। कहते है कि कन्या पूजन से बड़ी कोई पूजा नहीं, शादी में कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं, मां के चरणों के सिवा कहीं जन्नत नहीं और पत्नी के बिना धार्मिक अनुष्ठान नहीं…/ जब भारत में कन्या से लेकर नारी तक का महत्व इस कद्र ऊंचा है कि उसकी पूजा से दिन की शुरुआत होती है और उसकी बंदगी से दिन ढलता हो तो फिर क्यों कन्या भ्रूण हत्या से लेकर नारी की दहेज के लिए हत्या कर दी जाती है तब पूजन की ये सारी बातें मात्र कागजी ही लगने लगती हैं।
परमात्मा का दूसरा रूप कही जाने वाली नारी का जीवन … घर की चारदीवारी बताई जाती है तथा मर्दों की सारी मर्दानगी अपनी पत्नी पर काबू रखने तथा उससे मारपीट करने से मापी जाती है। आज भी सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी महिलाओं की स्थिति एक समान मानी जाती है अर्थात पति की आज्ञा मानने वाली एवं बच्चे पैदा कर घर संभालने तक सीमित रह जाती है।
चंद महिलाओं का राष्ट्राध्यक्ष या बड़े कारोबारियों की लिस्ट में सबसे ऊपर पाया जाना ही, तो नारी सशक्तिकरण की तस्वीर नहीं माना जा सकता। ऐसा होता तो दिल्ली गैंगरेप में दामिनी जैसे फूलों के अरमान न कुचलते, महिलाओं को भी जीने और सम्मान से रहने का सम्मान अवसर मिला होता तो कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ी समस्या नहीं बनती।
बात जब नारी सम्मान और न्याय की हो तो उस रैली में भाग लेने वाला पुरुष भी घर में अपनी पत्नी को दाल में नमक कम होने पर एक चपत जड़ देता है या अपनी बेटी के पहरावे को लेकर उसे डांट लगाता है, तो इसे पुरुषों की उदारवादी सोच नहीं माना जा सकता। एक तरफ हम अद्र्धनारीश्वर की पूजा करते हैं, यह जाने बिना कि ईश्वर भी नारी के बिना अधूरे हैं और दूसरी ओर हम नारी को उसकी मर्जी का जीवन जीने तक से रोकते हैं और घर से लेकर बाहर तक उसे अपमान का घूंट पीने को मजबूर करते हैं।
आधी दुनिया मानी जाने वाली नारी को अभी भी जमीनी स्तर पर अपने मौलिक अधिकार तक नहीं मिल पाए। उसे मिली आजादी उतनी ही छलावा है, जितनी कि समाज दिखाना चाहता है। आज भी दो जून की रोटी के लिए कहीं कोई नारी अपना शरीर तक बेचने को तैयार हो जाती है तो कभी किसी महिला के मुंह पर तेजाब गिरा कर उसे बदसूरत बना दिया जाता है।
शिक्षण संस्थानों में लड़कियों की बढ़ती संख्या और उनके शत्-प्रतिशत परिणाम आने के समाचारों से लगता है मानो अब लड़कियों की तरक्की को कोई नहीं रोक सकता, फिर भी कहीं सड़क पर मनचलों की छेड़छाड़ और समझौते के नाम पर उन्हें तरक्की की राह दिखाने की मानसिकता उनके हौसले की उड़ान को तोडऩे का काम करती प्रतीत होती है, क्योंकि शिक्षा के बाद भी पेरैंट्स इसी प्रकार की बातों से उसे घर से बाहर भेजने में डरने लगते हैं।
यही नहीं समाचार-पत्रों में लड़कियों के साथ हुए हादसे भी उन्हें घर पर ही रहने को मजबूर करते हैं। आज कहीं न कहीं नारी के खुलेपन और उसकी कम होती पोशाकों को भी दोषी माना जाता है, परंतु जब एक पांच वर्ष की अबोध बच्ची और 50 साल की वृद्धा के साथ भी बलात्कार की घटनाएं हों तो उसके लिए दोष तो कुछ लोगों की विक्षिप्त मानसिकता को ही दिया जा सकता है, जो नारी को सैक्स या उपभोग की वस्तु समझता है।
जब तक समाज की सोच नहीं बदलती या वास्तव में वह कंधे से कंधा मिला कर चलते हुए स्वयं को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस नहीं करतीं, तब तक सही मायने में नारी की पूजा होनी आरंभ हुई है, यह माना नहीं जा सकता। माना कि अभी यह राह लंबी है और मंजिल का रास्ता लंबा है, परंतु इसकी शुरूआत महिलाओं को स्वयं ही करनी पड़ेगी, उन बड़े होते बच्चों में समान अधिकार की लौ जगा कर और उनकी मानसिकता को इस तरह बदल कर कि आने वाला समाज ठीक वैसा ही उभर कर आए जैसा कि हम अपने समय में चाहते हैं।