विज्ञान, राष्ट्रवाद और एकता

विकास कुमार गुप्ता
विकास कुमार गुप्ता

लोकसभा और दिल्ली विधान सभा चुनाव के निष्कर्ष कोई अगर सोशल मीडिया से निकाल रहा हैं और अगर वह यह सोच रहा है कि सोशल मीडिया में तथाकथित किसी पार्टी या नेता की विजय ही यथार्थ विजय है तो यह कागज के नांव से ज्यादा कुछ नहीं। निहितार्थ निकालने वाले कुछ लोग और सोशल मीडिया में व्याप्त कुछ जन जोकि अपने मुंह मियाँ थिंक टैंकर बने हुये हैं वो शायद यह भूल गये हैं कि भारत को ऐसे ही विविधताओं का देश नहीं कहा जाता वरन् यह विविधिताओं में भी विविधाताओं का देश हैं। अगले लोकसभा चुनाव में अब कुछ ही समय बचा है और कुछ प्रतिशत लोग अगर यह सोंच रहे हैं कि फेसबुक, ट्विट्र देश की राजनीति का जनमत सर्वेक्षण साबित हो सकता है तो यह ख्याली पुलाव ही है। जैसे अंग्रेजी बनाम हिन्दी के प्रयोगकर्ताओं का प्रतिशत आज भी इस देश को चिढ़ा रहा है वैसे ही राष्ट्रवाद बनाम फूटवाद में फूटवाद राष्ट्रवाद को चिढ़ाये जा रहा है। इस देश में कुछ लोग नान जात की उपाधि लगाते नहीं थकते, तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ‘तिलक, तराजू और तलवार …’, कुछ कलम के अवतार, कुछ के पूर्वज फलाने हैं तो कुछ के कुछ, तो कुछ लोग मनु और महाराणा प्रताप के युग को अभी भी जीने की कोशिश में हैं। तो कुछ लोग तो समूचे भारत पर मुगलियां शासन की विरासत मान रहे हैं, कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के गुणगाते नहीं थकते, तो कुछ एनजीओं, ट्रस्ट, नोतागीरी के मायाजाल में व्यस्त हैं, कुछ सुभाष चन्द्र बोस, तो कुछ आज भी मर्दवाद को ढोने में लगे हैं, कुछ बुद्ध, कुछ महावीर, कुछ गांधी, कुछ आधुनिकता, कुछ सनातन, कुछ ग्रामीण, कुछ पहाड़ी, और इसके इतर लाखों के कुछ कुछ अलग-अलग है, कहीं सिया सुन्नी तो कहीं हिन्दी मुस्लिम। और इन सबों के बीच किसी न किसी विन्दुओं पर मतभेद के बादल है जिसे धर्मनिरपेक्ष के चादर सेे ढंक दिया गया है। मानवता इनके बीच गुम सा हो गया हैं। देश कराह रहा है। देश का सर्वहारा समुदाय कराह रहा हैं। सत्ता के नशे में चूर लोग मजे लूट रहे हैं। एम.ए., बी.ए. किये लोग बेरोजगारी के मार से मारे-मारे फिर रहे हैं और इस परिस्थिति का फायदा उठाने वाले खूब तन्मयता के साथ कायदा के साथ फायदा भी उठा रहे हैं। लगभग व्यवस्था करप्ट हो चुकी हैं। एक चर्च था जो इतना जर्जर हो चुका था कि कब गिर जाये उसका ठीक न था। आंधी चलती, बिजली कड़कती तो लोग घर से बाहर आकर चर्च को देखते कि गिरा की नहीं। चर्च के जो पादरी थे वे घर-घर जाकर चर्च में आने की प्रार्थना तो करते लेकिन स्वयं वे कभी भी चर्च में नहीं जाते थे। मीटिंग भी करते तो चर्च के बाहर। एक दिन मीटिंग में नया चर्च बनाने को लेकर प्रस्ताव पारित हुआ। चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें पहला था कि जो नया चर्च बनेगा वह पुराने चर्च के स्थान पर ही बनेगा, दूसरा ये कि जो नया चर्च बनेगा उसमें पुराने चर्च की लकडि़या और ईंटे प्रयोग में लायी जायेंगी और, तीसरा ये की जैसा पुराना चर्च था ठीक वैसा ही नया चर्च भी बनेगा और चैथा ये की जब तक नया चर्च बन नहीं जाता पुराना चर्च नहीं तोड़ना। विचारणीय है कि जब तक पुराना तोड़ा नहीं जाता इन प्रस्तावों के रहते उसपर नया कहां से बन जायेगा? ठीक यही स्थिति भारत बनाम इंडिया और राष्ट्रवाद बनाम धर्मनिरपेक्ष का भी है। ईमानदारी की मजबूत चादर की कृपा कहिये कि अंधेरे में उजाले की झलक रेत में पानी की बूंद की तरह नसीब हो रही है। यहीं तो गुण है इस भारत का। विविधता में भी एकता।  कुछ लोग इन सबका विरोध करने में जुटे हुये हैं और खंगाल खंगाल कर फूटनोट खोज रहे हैं ताकि शास्त्रों, बाईबिलों, कुरानों और अन्य ग्रन्थों का हवाला देकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला जाये। अंग्रेज तो इन्हीं विविधताओं के मजे लूटे गये थे। पहले धर्म के हिसाब से भूगोल, गणित और अन्य विषय हुआ करते थे। समय ने पाला बदला तब कुछ भला हुआ की कम से कम अब सभी धर्मों के गणित और अन्य विषय लगभग एक से हैं।
नेता अपने करोणों की संपत्तियों की कीमत हजारों में दिखा रहे हैं, कुछ ब्यूरोक्रेटों, नेताओं और भ्रष्टाचारियों की अथाह संपत्ति भ्रष्टाचार के दलदल में छुप गयी हैं, सरकारी तंत्र सरकारी खजाने का प्रयोग कर ही रहा है…, मुख्यमंत्रियों के चाय पानी के खर्चें अब लाखों करोणों में पहुंच चुकें हैं। नौकरी में घूसखोरी के देवता बस गये हैं। थानों के थानेदार आम आदमी का एफआईआर लिखने की जगह उसका वैचारिक पोस्टमार्टम कर रहे हैं। हिन्दू मुस्लिम दंगे हो रहे हैं। कुछ धार्मिक ट्रस्टों में तो जातिवाद के विषबेल बन चुके हैं। ठेका, कोटा, योजना से लेकर हर सरकारी कार्य में भ्रष्टाचार घर कर गया है। झोपड़पट्टों की संख्या आये दिन बढ़ती जा रही हैं, चैराहों पर हमारे युवा सौ-पांच सौ का नोट पुलिसवालों को पकड़ा रहे हैं। मिशन बनाम कमीशन का खुला खेल चल रहा हैं और हमने आंखों पर पट्टी चढ़ा ली हैं और कहते हैं हम ईमानदार हैं। अभी कुछ समय पहले एक साहित्यकार के यहां एक सम्पादक महोदय ने पधारा। फिर साहित्यकार महोदय द्वारा किये गये दक्षिण अफ्रिका भ्रमण की चर्चा चलने लगी। फिर वहां के ‘केप आॅफ गुड होप’ के भ्रमण का प्रसंग आते ही सम्पादक महोदय तपाक से बोल पड़े कि हमलोग जब पढ़ते थे तो इसे ‘उत्तम आशा अंतरिप’ जाता था। मैंने तपाक से उनसे कहां कि संज्ञा का भी विश्व में कहीं ट्रांसलेशन होता है क्या? केप आॅफ गुड होप तो संज्ञा है, जैसे ट्रेन, क्रिकेट संज्ञा है। तो केप आॅफ गुड होप, क्रिकेट और ट्रेन जैसे संज्ञाओं का हम अनुवाद कर आखिर हिन्दी का मजाक बनाने में क्यों लगे हैं। दरअसल यह मजाक अंग्रेजी के पुरोधाओं ने किया था। और इनके सम्बन्ध में बदरूद्दीन तैय्यबी ने ठीक ही कहा था ”महारानी की करोड़ो जनता में से कोई अन्य लोग इतने राजभक्त नहीं, जितने भारतीय शिक्षित लोग“।
कुछ विदेशी लूटेरे आते है यहां और हमारे बाहुबलियों और कथित बुद्धिजीवियों को धूल चटा जाते हैं। यहां की सम्पदा को लूट ले जाते है और सीना ठोंककर सैंकड़ों वर्षों तक यहां के लोगों को गुलाम बनाकर शासन करते हंै। फिर समाज के रसूख वाले लोग इन विदेशी आक्रांताओं की गुलामी कमीशन के रूप में स्वीकार करते हैं। फिर अंततः अंग्रेजों के शासन में चमचागीरी, लूट, फूट के नये-नये अध्याय लिखे जाते हैं जोकि आज भी जारी है। और ये चमचागीरी और भ्रष्टाचार पूर्व रूप में फल फूल रहे हैं। हमने हमेशा ही समझौता करना बेहतर समझा। पहले अंग्रेज यहां की कन्याओं की इज्जत लूटते थे तो उनके परिवार वाले उनको परिवार से निकाल देते थे। अगर उस समय का वह परिवार समाज और राष्ट्रीय स्तर की सोचता तो क्या उसे निकाल देता। एक देश की बेटी का मान लूट जाये तो क्या यह देश उसे निकाल देगा अगर नहीं तो परिवार और देश में आखिर फर्क कहां से आ गया। यहीं तो फर्क हैं यहां। हम परिवार और देश के लिए अलग-अलग धारण को अंतःकरण में समाहित किये हुये हैं। प्रश्न उठता है कि क्या उस बेटी के जबरन मान लूट में भला उसकी क्या गलती थी? कतई नहीं लेकिन हमारे समाज में ऐसा होता था। अब ये शायद आॅनर किलिंग के रूप में हमारे सामने हैं। आज बेटे के उपर कोई देनदारी आ जाये तो बाप पाला बदल लेता है। पूरा समाज पाला बदल लेता है। अभी कोई पत्रकार पर आफत पड़ जाये तो अन्य पत्रकार मजा लूटने में लग जायेंगे। वो एक कहावत है कि ‘उन्होंने हमारे क्षेत्र के लोगों को मारा हम तमाशबीन रहें, फिर उन्होंने हमारे पड़ोसियों को मारा हम तब भी तमाशा देखते रहें, फिर उन्होंने हमारे परिवार के लोगों को मारा तब हममें ताकत नहीं थी विरोध की और हम मौन रहें फिर उन्होंने हमें मारा तो समूचा क्षेत्र, पड़ोस और परिवार वाले तमाशा देखते रहें। यही स्थिति हैं यहां। सब अपने तक आने के लिए राह खोज रहे हैं और तथाकथित वो लोग हमें लूटने में लगे हैं। तमाशा देखना ही हमारे समाज की नियति है इसलिए तो कोई आगे नहीं आ रहा। इसके इतर हमारा समाज आज उस स्थिति में पहुंच चुका है जहां पर यह माना जाने लगा है कि जितना समय हम अपने कपड़े को दूसरे के कपड़े से ज्यादा सफेद बनाने में लगायेंगे, उससे कम समय में तो दूसरे के कपड़े पर कीचड़ उछाल कर हम अपने कपड़े को उसके कपड़े से ज्यादा साफ बना लेंगे और अपने कपड़े को साफ करने की भी कोई आवश्यकता नहीं और अपने कपड़े साफ करने में एक दिक्कत ये भी है की अपना कपड़ा उससे साफ हो ही जाये यह जरूरी नहीं। शायद यहीं थ्योरी अपनाकर आज की राजनीतिक पार्टियां अपने गंदे और कुटिल मानसिकता लेकर एक दूसरे पर कीचड़ उछाल प्रतियोगिता में जुट गयी है। दामन किसी का साफ नहीं और यह सब हमारे समाज के संरचना के विपरित ब्रिटिश व्यवस्था की वजह से हैं। इस बीच बहुत से बुद्धीजीवि ऐसे हैं जो मौन हैं। क्योंकि सर्वज्ञ तो शायद ही कोई हो इस संसार में। तो सर्वज्ञ बनाम अल्पज्ञ के द्वंद्व के बीच अपनी खींचाई कराने से सब बच रहे हैं। क्योंकि आवाज उठाने वालों को शायद यह आभाष हो चुका हैं कि हमने कुछ बोला नहीं की उसमे ंअलंकार, व्याकरण, मात्रा से वैचारिक, वैज्ञानिक, आधुनिक स्तर के अलग-अलग विद्वान उसमें त्रुटि खोजकर अपने अलग-अलग तोप के गोलों से उसे छलनी कर देंगे और भाव कोई नहीं देखेगा। यूपी के एक अधिकारी ने सच बोलने की जुर्रत की बस फिर क्या था वो महोदय तो पागल घोषित कर दिये गये और वह मामला भी काल के गाल में समाहित हो गया। जैसे नमक का ढेला समुद्र में खोज जाता है वैसे उन महोदय का मुद्दा अब दफ्न हो चुका है।
अंग्रेज यहां की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर जाते हैं और हम मूकदर्शक बने रहते है। राबर्ट क्लाईव जीत का जश्न मनाते हुए बंगाल में सीना ताने हुये चल रहा हैं और लाखों लोग तमाशा देखते हैं। वैश्विक सत्तायें यहां नीतियां बना रही हैं। वैश्विक प्रतिद्वंद्व में फंसकर हमारे खुदरा और अन्य व्यापार तहस नहस हो चुके हैं और डोमिनों पिज्जा, माॅल, थ्री और फाइव स्टार की चमक निरन्तर बढ़ रही है वो भी हमारे रंग में नहीं वरन् यूरोपीय रंग में। जापान, चीन और अन्य कोई देश कोई तकनीक अपनाता है तो उस तकनीक के बीज को अपनी मिट्टी में सींचता है लेकिन हम सीधे तकनीक को ही उठा लाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे भरी गर्मी के 42 डिग्री तापमान में लोग कोट, टाई कसकर प्राकृतिक हवा को अपने भीतर समाहित होने से रोक देते हैं। और कहते क्या है हम तो प्रबुद्ध हैं। दरअसल हमारा समाज हमेशा परेशानियों से भागता रहा हैं। हमारे लिये अपना मान सम्मान ही सबकुछ रहा हैं समाज और राष्ट्र के स्तर पर सोचने वालों का हमने हमेशा ही उपहास उड़ाया हैं। ज्यादा दूर नहीं आप किसी भी जगह जहां थोड़ी भीड़ हो, चाहे वह चाय की दूकान हों अथवा बस, ट्रेन आप कुछ लोगों को मुलायम, पासवान, लालू, नीतिश, राहुल, भ्रष्टाचार, अत्याचार, सदाचार पर बहस करते और इन बहस करने वाले और इन बहस करने वाले का तमाशा देखने वाले लोग मिल जायेंगे। बहस करने वाले परेशान है। तमाशा देखने वाले भी परेशान हैं। और मजे अंग्रेजीधारी लूट रहे हैं और मजे इस देश के कुछ भ्रष्ट नेता, ब्यूराक्रेट्स भी ले रहे हैं।
देश में महिला और पुरुष की स्थिति को समझने के लिए इंडिया टूडे की फीचर एडिटर मनीषा पाण्डेय के सिर्फ दो हालिया वालपोस्ट जोकि 16 अक्टूबर 2013 के है से इस देश की स्थिति का आंकलन किया जा सकता है। पहला:-
”मैंने 33 बरस की जिंदगी में अच्छे-अच्छे आदर्शवादियों की पोल खुलते देखी है। कम या ज्यादा, सब वही निकले आखिरकार, जिनको कभी यूं हसरत से सिर उठाकर तका करते थे। इसलिए अगर आदर्श के कीड़े ने मुझे या किसी भी एक्स वाई जेड को काट खाया है तो ये उसका प्रॉब्लम है, दुनिया का नहीं। मुझे या किसी भी एक्स वाई जेड को आदर्श राग गाने की खुजली चढ़ रही है, तो अपने कमरे में बैठकर गाएं। आवाज बाहर गई तो पड़ोसी टामाटर फेंककर मारेगा। चूंकि मुझे गाना आ रहा है तो ये प्रॉब्लम पड़ोसी का नहीं है। तय करना आसान नहीं कि क्या गाएं, क्या न गाएं। मसला सिर्फ टैलेंट का है। आप में सफल होने का टैलेंट है या बकरी चराने का टैलेंट।“
और दूसरा वालपोस्ट इस प्रकार है:-
1- क्या मर्द नेटवर्किंग नहीं करते ? 2- क्या मर्द रैकेट नहीं चलाते ? 3- क्या मर्द चापलूसी नहीं करते ? 4- क्या मर्द संपादकों के चमचे नहीं होते ? 5- क्या मर्दों को सारी सफलताएं विशुद्ध विशुद्ध विशुद्ध काबिलियत के बूते मिलती हैं। 6- क्या मर्द पुरस्कारों, विदेश यात्राओं, मलाईदार पदों के लिए लॉबिंग नहीं करते। 7- ताकतवर मर्द तो अपने लिए भी करते हैं और अपनी बीवी के लिए भी करते हैं। 8- और यही सब काम एक औरत करे तो ? उसका चाल-चलन कैरेक्टर खराब हो जाता है। 9- औरत में भी अगर ताकतवर रैकेटियर की बीवी करे तो उसका कैरेक्टर कम खराब होता है और सिंगल, एलोन बेचारी, दुखियारी करे तो उसके कैरेक्टर की रीकवरी का तो कोई चांस ही नहीं है। भाईसाब, जिस सिस्टम में सफलता की शर्त ही लॉबिइंग है, उस दुनिया में क्या मर्द और क्या औरत, दोनों के लिए रास्ता तो एक ही है। लॉबिंग करो या सफल मत होओ। गेम से बाहर हो जाओ। खेल शतरंज का है तो फुटबॉल के नियम से तो नहीं खेला जाएगा। चाहे आदमी खेले या औरत। Best policy is to not to play- Hell with the game. चूल्हे में गया ये खेल।”
हमारा देश ब्रिटिश इंडिया से आजाद इंडिया हो चुका हैं लेकिन हमारा समाज कुछ मनुवादी विचारधारा में जी रहा है तो अगले कुछ समय आधुनिक यूरोेपीयन विचारधारा में, कुछ मर्दवादी, कुछ पुरातनवादी, कुछ कुछ तो कुछ। हमारे समाज में कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर हैं। कहने के लिए कुछ नियम है और करने के लिए कुछ। जैसे ईमानदारी की चादर बेईमानी पर चढ़ा दी गयी है वैसे ही कहने का चादर, करने पर चढ़ाया गया हैं। यादव, बनिया, ब्राह्मण, कुर्मी, जाट से लेकर अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति के अलावें अल्पसंख्यक से लेकर बहुसंख्यक के बीच हमारा समाज खंड खंड में बंटा हुआ हैं। हर कुछ किलोमीटर बाद भाषा, भूषा से लेकर जाति पाति में विविधता है। और इसी विविधता के तावे पर यहां राजनीतिक रोटी संेकी जा रही है। कौन नहीं जानता हमारा देश कागजों पर चल रहा है। यहां की योजनायें, आयोग, कानून, नियम सब कागजों पर हैं। मैंने वेद, पुराणा, उपनिषद और अनेक धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ा लेकिन कहीं भी मुझे एक भी नाम ऐसा नहीं मिला जो यह साबित कर दें सनातन धर्म में उपनाम की व्यवस्था हों। फलाने यादव, फलाने तिवारी, फलाने गुप्ता आदि कहीं नही दिखा। अगर कुछ दिखा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ब्यास, कृष्ण, अर्जुन, सहदेव… इत्यादि और ये जितने भी नाम है इनके पीछे कहीं भी हमें उपनाम नहीं दिखा। मेरे नाम के पीछे भी उपनाम है और इसे मैंने नहीं लगाया वरन् यह इस समाज ने लगाया है। सनातन धर्म में ऐसी अनेकों कहानियां है जो यह साबित करती है कि जन्म नहीं वरन् कर्म से लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र इत्यादि होते है। लेकिन अब तो हिन्दू धर्म में ऐसे भी लोग हैं जो हिन्दू धर्म में रहते हुए यह बताने में असक्त है कि इनमें से उनका कौन सा वर्ण हैं।
चीन, जापान और यूरोप आदि ऐसे ही नहीं तरक्के कर रहे हैं। इनके तरक्की के पीछे छुपा हुआ है विज्ञान पर आधारित भाव और राष्ट्रभाव। हमारे अवन्नति के पीछे छुपा हुआ है विज्ञान, राष्ट्रभाव और एकता की जगह विश्वास, व्यक्तिवाद और अनेकता। हम आज भी विश्वास को लेकर मरे जा रहे हैं। अरस्तु ने कहां था औरतो के दांत पुरुषों से कम होते हैं और 1000 साल तक किसी ने भी विरोध करने की जहमत नहीं समझी बल्कि खूद अरस्तु की दो बीविया थी अगर वो चाहता तो स्वयं गिन सकता था। बाईबिल कहता था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करती है और जब गैलिलियों ने इसका विरोध किया तो उसको डराया धमकाया गया और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों ने समझा की अगर बाईबिल का एक कथन असत्य हो गया तो लोग इसकी सत्यता को दरकिनार कर देंगे और आगे क्या भरोसा की लोग और तथ्यों पर उंगली नहीं उठायेंगे। लेकिन पिछले 400 सालों में यूरोप में विज्ञान ने करवट लेनी शुरु की और विश्वास बनाम विज्ञान की जंग में विज्ञान ने बाजी मार ली। फिर यूरोप के बुद्धीजीवि कहलाने वाले तबकों ने विश्वास की जगह विज्ञान को प्राथमिकता देनी शुरु की और प्रतिफल आज हमारे सामने है। यथार्थ और ख्याल के द्वंद्व में हमने हमेशा ही ख्याल को तरजीह दी। हम आज भी रट्टा मारने में लगे हैं। हमारा शिक्षा तंत्र कतई मौलिक नहीं हैं। लोग यहां बिना प्रयोगशाला देखें ही साईंस की डिग्री आसानी से पा जाते हैं। कई कालेज तो ऐसे हैं जिनकी छत ही नहीं हैं लेकिन उस कालेज के नाम पर हजारों छात्र प्रति वर्ष डिग्री पाते हैं। हाय रे देश।
इसी प्रकार फेसबुक, ट्वीट्र का हवाला देकर हम देश के राजनैतिक स्थिति का आंकलन नहीं कर सकते। अभी चुनाव आयेगा और देश जाति, पंथ, धर्म, मर्द, औरत, सरकारी, गैरसरकारी, भाई, भतीजा, समाजवाद, सेकुलरवाद में बट जायेगा और मजे लूटने वाले उसी प्रकार मजा लुटेंगे जैसे पूर्व में लूट जाता रहा है। अतः अब समय आ गया है कि देश को विज्ञान, राष्ट्रवाद और एकता में समाहित किया जाये और इसे नवजीवन दिया जाये। जबतक हम प्राचीन रूढ़ को हांकना बंद नहीं करते तबतक इस देश का कुछ नहीं होने वाला। देश में अगड़े पिछड़ों को चिढ़ाते रहेंगे और पिछड़े अगड़ों को चिढ़ाते रहेंगे।
इंकलाब जिन्दाबाद!

लेखक विकास कुमार गुप्ता pnews.in के सम्पादक है इनसे 9451135000, 9451135555 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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