किस तरह का सुपरपावर होगा चीन?

चीन सुपरपावर बनने की राह पर है लेकिन उस तरह नहीं जैसी कई लोग उम्मीद करते हैं.

चीन में पश्चिम जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है लेकिन आजकल वहां एक महत्वपूर्ण विषय को लेकर चर्चा का बाज़ार गर्म है.

एक साल पहले मैं चीन के विदेश मंत्रालय में युवा चीनी राजनयिकों को संबोधित कर रहा था. वहां मुझे ये स्पष्ट हुआ कि चीन में इस बात को लेकर गहन चिंतन चल रहा है कि उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में चीन के लिए किस तरह की विदेश नीति सबसे उचित रहेगी.

एक सुपरपावर के रूप में चीन कैसा होगा? आप सोचते होंगे कि चीन आज सुपर पावर बन गया है लेकिन ऐसा नहीं है.

चीन की सैनिक ताकत की तुलना अगर अमरीका से की जाए तो वो काफ़ी पीछे नज़र आता है.

अमरीका के पास आज 11 विमानवाहक पोत हैं जबकि चीन ने पिछले महीने ही अपना पहला विमानवाहक पोत सेना में शामिल किया है.

चीन का वैश्विक राजनीतिक प्रभाव अभी भी काफी सीमित है.

एक ही ऐसा पहलू है जिसमें चीन एक सुपरपावर बन गया है वो है आर्थिक पहलू.

चीन की अर्थव्यवस्था अमरीकी अर्थव्यवस्था की आधी से ज़्यादा हो गई है और ऐसा माना जा रहा है कि उसकी विकास दर घट कर 7 फीसदी रहने के बावजूद 2018 में वो अमरीकी अर्थव्यवस्था से आगे निकल जाएगी.

लेकिन चीन की आर्थिक ताकत उसकी विशाल जनसंख्या की वजह से है. अगर तकनीक और जीवन स्तर की बात करें तो चीन अमरीका से अभी भी बहुत पीछे है.

इसलिए जब हम एक सुपरपावर के रूप में चीन की बात करते हैं तो इसका मतलब भविष्य के बारे में बात करना है.

चीन में कम्युनिस्ट सरकार है, वहां लोकतंत्र नहीं है और वहां के लोग भी भिन्न हैं. इस बात से कुछ लोगों की परेशानी बढ़ सकती है.

असल में हमें ये उम्मीद नहीं लगानी चाहिए कि चीन हमारी तरह बर्ताव करेगा. वो बहुत अलग होगा और इसकी वजह है उसके इतिहास का अलग होना.

अफ्रीका में चीन के बढ़ते व्यापार और निवेश पर लेख लिखे जा रहे हैं और प्राय: ये कहा जा रहा है कि ये नए तरह का उपनिवेशवाद है.

लेकिन ये सब सोचते हुए ऐसी ऐतिहासिक भूल नहीं करनी चाहिए. चीन ने आज तक कभी किसी समुद्र-पार भूमि का उपनिवेशीकरण नहीं किया है.

ये काम यूरोपीय देशों की विशेषता रही है.

अगर चीन चाहता तो 15वीं सदी में दक्षिण पूर्व एशिया का उपनिवेशीकरण कर सकता था. उसके पास संसाधन थे, बड़े जहाज़ थे जिनमें से कई तो तत्कालीन यूरोपीय देशों के जहाज़ों से भी बड़े थे. लेकिन चीन ने ऐसा नहीं किया.

इसका मतलब ये नहीं है कि चीन ने अपने पड़ोसियों को नज़रअंदाज़ किया. बल्कि कई सदियों तक अपने विशाल आकार और विकास के बल पर उनपर प्रभुत्व बनाए रखा.

लेकिन ये संबंध उपनिवेशीकरण जैसा नहीं था. न तो चीन ने उन पर शासन किया और न ही अपना प्रभुत्व स्थापित किया. बल्कि पड़ोसी राज्यों को चीनी बाज़ार और तरह-तरह की सुरक्षा के एवज़ में चीन की प्रभुसत्ता के प्रति सम्मान जताने के लिए समय-समय पर राजा के लिए कुछ उपहार भेजने होते थे.

ये व्यवस्था क़रीब 2000 साल तक जारी रही और सन् 1900 में ही इसका अंत हुआ.

पश्चिम और चीन की सोच में एक महत्वपूर्ण समानता रही है. दोनों मानते हैं कि वे सार्वभौमिक हैं. लेकिन इस सार्वभौमिकता को व्यवहार में उतारने का दोनों का नज़रिए एकदम अलग है.

यूरोप और अमरीका पूरी दुनिया में अपनी शक्ति का लोहा मनवाने में यक़ीन रखते रहे हैं.

19वीं और 20वीं सदी में जब उपनिवेशवाद अपने चरम पर था और दुनिया का एक बड़ा हिस्सा यूरोपीय शासन के अधीन था तब शक्ति का प्रदर्शन आम बात थी.

हमने दूर से दुनिया पर शासन किया लेकिन हमेशा अपने विचार, भाषा, शिक्षा और धर्म को उपनिवेशों पर थोपने की कोशिश की.

जबकि चीनियों ने खुद को अपने तक सीमित रखने में यक़ीन किया.

वो केंद्रीय साम्राज्य की धारणा पर विश्वास करते थे. चीन का यही प्राचीन नाम था और जिसका अभिप्राय था दुनिया का केंद्र होना.

और इसी विश्वास की वजह से वो चीन के बाहर की दुनिया को बर्बर और पिछड़ा मानते थे और उससे कोई संपर्क रखना नहीं चाहते थे.

और जो लोग ऐसा सोचते या करते थे उन्हें चीन की सत्ता का कोई समर्थन हासिल नहीं होता था.

चीनी लोग क्यों अपने क्षेत्र में ही सीमित रह गए इसकी एक और वजह ये थी कि चीन का भौगोलिक क्षेत्र विशाल और विविध है और उस पर शासन करना आसान नहीं है.

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक इसके शासकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही रही कि इतने विशाल देश को स्थिर कैसे रखा जाए और केंद्र की सत्ता का प्रभाव कैसे कायम रखा जाए. और ये बात आज भी उतनी ही सच है.

और यही वजह है कि चीन के नेता देश के बाहर देखने की बजाए देश के भीतर अपनी निगाह रखने को ज़्यादा तरजीह देते रहे हैं.

इसलिए चीन के इतिहास को सामने रखते हुए अब ये सवाल पूछा जा सकता है कि चीन एक वैश्विक शक्ति के रूप में कैसे बर्ताव करेगा?

हम ये बात ऐतिहासिक रूप से जानते हैं कि यूरोप किस तरह आक्रामक और विस्तारवादी रहा है. उसका इतिहास बर्बर युद्धों से भरा पड़ा है और यूरोप के औपनिवेशवादी और विश्वयुद्ध के दौर में भी यही नीति जारी रही.

यूरोप की विस्तारवादी नीति से पैदा हुए अमरीका ने भी यही सोच विरासत में हासिल की है.

लेकिन चीन ऐसा नहीं होगा. ये उसके डीएनए में नहीं है. उसके नेता शेष दुनिया के देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में रुचि लेने की बजाए अपने देश के शासन को सुदृढ़ करने का ही प्रयास करेंगे.

अगले महीने जब ज़ी जिनपिंग देश के राष्ट्रपति बनेंगे तो उनकी प्राथमिकता घरेलू मुद्दों पर ध्यान केंद्रीत करने की ज़्यादा होगी बनिस्पत विदेशी मसलों पर ध्यान देने के.

एक समय आएगा जब चीन बड़ी विश्व शक्ति बन जाएगा लेकिन अपनी ताक़त का इस्तेमाल वो अलग तरीके से करेगा.

चीन यूरोप और अमरीका की तरह अपनी रक्षा ताक़त पर ध्यान केंद्रीत करने की बजाए अपनी आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत को बढ़ाने पर ज़ोर देगा क्योंकि अत्यधिक मज़बूत सैन्य प्रणाली चीन की विशेषता कभी भी नहीं रही है.

चीन की जनसंख्या के आकार को देखते हुए चीन की आर्थिक ताकत समय के साथ काफ़ी ज़्यादा हो जाएगी जो कि अमरीका से भी बड़ी होगी.

आज जबकि चीन की विकास दर धीमी है तब भी वो दुनिया के कई देशों का मुख्य कारोबारी साझेदार है और ये आर्थिक ताक़त दिन ब दिन बढ़ती ही जाएगी.

चीनियों के लिए उनकी सांस्कृतिक ताकत भी उतनी ही मायने रखेगी क्योंकि उनकी सभ्यता प्राचीन और प्रभावशाली रही है.

वो अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों पर बहुत गर्व करते हैं और मानते हैं कि चीन की सभ्यता दुनिया की महानतम सभ्यता रही है.

खुद को श्रेष्ठ मानने की भावना चीनियों में ऐतिहासिक काल से ही रही है. प्राचीन काल में वो अपनी सभ्यता को दुनिया में सर्वोपरि मानते थे और चीन के सुपरपावर बनने के बाद उसकी ये सोच दोबारा हावी हो सकती है.

लेकिन ऐसी उम्मीद न करें कि चीनी अपने उत्कर्ष को लेकर उतावले नहीं होंगे.

1972 में हेनरी किसिंजर ने पूर्व चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई से पूछा था कि फ्रांसीसी क्रांति के बारे में वो क्या सोचते हैं तो चाउ एन लाई ने जवाब दिया था, “इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता.”

समय को लेकर चीनी लोगों की सोच पश्चिमी लोगों से एकदम अलग है जबकि अमरीकी ज़्यादा लंबा नहीं सोचते.

लेकिन चीनी लोग बहुत आगे की सोचकर चलते हैं.

उनके लिए एक शताब्दी कुछ नहीं होती.

error: Content is protected !!