पत्रकारिता का पेशा भी अब बाजारीकरण भी भेंट चढ़ चुका है। हर कोई भौकाल बनाकर खुद को तुर्रम खां साबित करने में लगा है। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे हैं, न्यूज चैनलों ने अपने रीज़नल चैनल लॉन्च कर दिए हैं जबकि कई रीजनल चैनल लाने की तैयारी की जा रही हैं। मीडिया के बेरोजगारों के लिए भले ही ये एक अच्छी खबर हो लेकिन इन चैनलों के आने से आम जनता को कितना फायदा होगा ये अभी कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि अभी तो ये ही भरोसा नहीं है कि विधानसभा चुनाव निपटने के बाद इनमें से कितने चैनल चलते रहेंगे।
कहावत है कि बरसाती मेंढ़क सिर्फ सीजन में ही दिखाई देते हैं बाकी वक्त वो गायब ही रहते हैं। असल मायने में ये सब पैसे कमाने का खेल है। चैनल चलाने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान मोटा पैसा कमाने की सोच रहे हैं, यही वजह है कि रीजनल चैनल लाकर इस मकसद को कामयाब करने की रणनीति बनाई जा रही है। ये हर कोई जानता है कि निर्वाचन आयोग की सख्ती के बावजूद भी चुनाव के दौरान राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में मनमाने तरीके से पैसा खर्च करते है। राजनीतिक लोग वोट बैंक पर कब्जा करने के लिए मीडिया के सहारे अपना प्रचार कराते हैं इसके बदले मीडिया को विज्ञापन के रूप में मोटा पैसा दिया जाता है। यही वजह है कि विज्ञापन के ज़रिए मोटी कमाई करने के फॉर्मूले पर काम कर कई रीजनल चैनल आ रहे हैं।
दिल्ली, राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ के लिए कई बड़े चैनल अपने रीजनल चैनल लेकर आ रहे हैं। रीजनल चैनलों को लाने का मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है। ऐसे में ये कैसे मान लिया जाए कि चुनाव के दौरान मीडिया दबाव में काम नहीं करेगा। इन हालात में सबसे बड़ी मुश्किल इस बात को लेकर भी है कि जो लोग इन रीजनल चैनल के साथ फिलहाल जुड़ रहे हैं भविष्य में उनकी नौकरी सलामत रहेगी भी या नहीं। क्योंकि इतिहास गवाह है कि चुनाव के दौरान प्राफिट कमाने के लिए शुरू किए गए कई चैनल बंद हो चुके हैं। महुआ ग्रुप ने यूपी और उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2012 के दौरान न्यूज लाइन नाम से रीजनल चैनल लॉन्च किया था। इस चैनल का भी आखिरकार डब्बा गोल हो गया। कई बड़े चैनल के लोग महुआ न्यूज लाइन से जुड़े थे, जिन्हें बाद में बेरोजगार होना पड़ा। इसके लिए अलावा देहरादून से ऑन एयर होने वाला नेटवर्क 10 न्यूज चैनल भी चुनावी चैनल था उसकी हालत भी पतली हो गई है। आलम ये है कि चैनल के मालिकों ने कर्मचारियों से कहा कि खुद कमाओ खुद खाओ।
एसटीवी ग्रुप के यूपी न्यूज ने भी मीडिया के लोगों को बड़े बड़े सपने दिखाए थे। इस चैनल का भी बंटाधार हो गया। यूपी में सपा की सत्ता आने के कुछ ही महीने बाद और इसके चैनल के मालिक गोपाल कांड़ा के जेल जाने पर, यूपी न्यूज पर ताला लग गया। जनसंदेश चैनल भी इसी चक्कर में काफी दिनों तक बंद रहा। आगरा से चलने वाला सी न्यूज भी बैसाखियों के सहारे ही चल रहा है। इस चैनल को भी यूपी और उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2012 से पहले लॉन्च किया गया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि फिलहाल जितने भी रीजनल न्यूज़ चैनल आ रहे हैं इनका कोई भरोसा नहीं है कि इनमें से कितने टिक पाएंगे। क्योंकि इनका आधार सीधे सीधे सरकारी विज्ञापनों पर टिका है।