क्यों डूब रहे हैं आपके शहर?

पहले मॉनसून की आस और फिर मॉनसून पर आह! हर वर्ष ऐसा क्यों होता है कि पहले बारिश का इंतज़ार मार देता है और फिर सड़कों पर इकट्ठा हुए पानी की बाढ़.

देश की राजधानी दिल्ली हो, आर्थिक गतिविधियों का केंद्र मुंबई या फिर जयपुर, जम्मू और इलाहबाद जैसे बड़े शहर, बारिश का कहर ऐसा कि सभी मानो डूबने लगते हों.

नामी स्कूल-कॉलेज, अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस दफ्तर, बड़े-बड़े मॉल्स और 24 घंटे की बिजली के बैक-अप वाले घरों के बीच का फासला तय करना इतना दुखद क्यों हो जाता है?

बड़े शहरों की मूलभूत सुविधाओं में नालियों की देख-रेख और पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था शामिल है, तो फिर भी बड़े शहर पानी की मार के आगे लाचार क्यों हो जाते हैं?

ट्रैफिक जाम में आप फंसते हैं, बंद नालियों से फैलती गंदगी से बीमार आप पड़ते हैं तो इन सवालों के जवाब जानने का हक़ भी आपका है.

सरकार की ज़िम्मेदारी

देशभर की करीब 40 फीसदी आबादी ‘ग़ैरक़ानूनी’ इमारतों या बस्तियों में रहती है. इन इलाकों में पानी आ तो जाता है लेकिन यहां से पानी निकालने की व्यवस्था नहीं होती.

अक्सर राज्यों में चुनाव से पहले ऐसी बस्तियों को वैध करार दिया जाता है और फिर वहां नालियों जैसी मूलभूत सुविधाओं पर काम शुरू होता है.

इसी हफ्ते मंगलवार को ही राजधानी दिल्ली में करीब 900 कालोनी को वैध बनाए जाने का ऐलान हुआ.

दिल्ली की म्युन्सिपल कॉर्पोरेशन के प्रवक्ता योगेन्द्र सिंह मान ने बीबीसी से बातचीत में कहा, “नालियां बनाने का काम व्यवस्थित तरीके से पूरे निर्माण कार्य का हिस्सा होना ज़रूरी होता है, लेकिन जब ऐसे आदेश आते हैं तो हमें नए रास्ते ढूंढने पड़ते हैं जो अक्सर समय भी ज़्यादा लेता है और पुख्ता भी नहीं होता.”

साथ ही वो बताते हैं कि खास राजधानी दिल्ली में, अलग-अलग चौड़ाई के नाले अलग-अलग प्राधिकरणों के तहत आते हैं, लेकिन ज़मीन पर ये सब जुड़े हुए हैं.

घरों की छोटी नालियों से बहकर पानी बड़ी सड़कों की नालियों से होते हुए, स्टॉर्म वॉटर ड्रेन जैसे बड़े नालों के ज़रिए यमुना में जाकर गिरता है.

मान के मुताबिक, “अगर कॉर्पोरेशन छोटी नालियों की सफाई का काम समय पर कर भी ले तो बड़ी सड़कों पर पानी के रुकाव की दिक्कत बाकी प्राधिकरणों के काम पर निर्भर करती है.”

दुनिया के मुकाबले

देश के बड़े शहरों में जितनी तेज़ी से विकास हो रहा है, उसके ढांचों में परिवर्तन नहीं हुआ है.

जहां न्यूयॉर्क, लंदन और पेरिस जैसे शहरों में नालियां ढकी रहती हैं और सीवर की सारी व्यवस्था ज़मीन के नीचे बनाई गई है, वहीं भारत में नालियां खुली होती हैं.

घरों से जुड़ी या बड़ी सड़कों के किनारे बनी इन नालियों के ढके जाने का कोई प्रावधान नहीं है.

भारते के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन डिज़ाइन के अध्यक्ष, प्रोफेसर उजान घोष के मुताबिक, “इससे गंदगी तो फैलती ही है साथ ही अगर नाली में कोई रुकावट आ जाए तो पानी का बाहर फैलना भी स्वाभाविक है.”

साथ ही विदेश में सड़कों पर सफाई के कड़े नियम हैं जिन्हें सख्ती से लागू भी किया जाता है, लेकिन भारत में कूड़ा-कचरा फैलाने के प्रति बहुत ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया है, जिसके चलते नालियों में रुकावट की कुछ ज़िम्मेदारी आम नागरिकों की झोली में भी आ गिरती है.

समाधान के रास्ते

प्रोफेसर घोष बताते हैं कि ज़मीन के नीचे पानी का स्तर घटने की वजह से अब ज़रूरत सिर्फ पानी का निकास ढूंढने की नहीं बल्कि पानी को रोकने की भी है.

उनके मुताबिक शहरों में तेज़ी से हुए निर्माण कार्य की वजह से एक तो बारिश के पानी को नालियों से निकलने का रास्ता नहीं मिलता और दूसरा ऐसी ज़मीन भी कम हो गई है जिसके ज़रिए धरती पानी को सोख ले.

पानी के संरक्षण पर कई किताबें लिख चुके अनुपम मिश्रा भी कहते हैं, “राजधानी दिल्ली को ही लीजिए, वर्ष 1911 में यहां 800 तालाब थे लेकिन अब कोई नहीं है, तो आसमान से शहरों में गिरता पानी कहां ठहरेगा.”

वैसे दिल्ली में एक झील बची है, उत्तर-पूर्वी इलाके की भलस्वा झील. लेकिन उसका हाल इतना बदहाल है कि क्या बताएं. वो आधी ही बची है. उसके आधे हिस्से में अब मिट्टी भर गई है और एक बस्ती बस गई है.

लेकिन प्रोफेसर घोष आशावान हैं. वो कहते हैं, “सरकार अब सजग हो रही है और एक नया नियम लागू किया जा रहा है जिसके तहत कम से कम नए निर्माण में नालियों की व्यवस्था ऐसे की जानी होगी कि ये खुली ना हों और इनका पानी ज़मीन के अंदर ही अंदर बड़े नालों में मिल जाए.”

साथ ही नए संस्थानों के परिसर में सरोवर भी बनाए जा रहे हैं ताकि पानी को इकट्ठा कर उसे इस्तेमाल में लाया जा सके.

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