रोटी बची न दाल, जिंदगी पर सवाल

rotiदेहरादून । केदारनाथ धाम महज आस्था का केंद्र नहीं। यह केदार घाटी, बल्कि यूं समझ लीजिए कि पूरे रुद्रप्रयाग जिले की आर्थिकी का स्त्रोत भी है। खासकर केदार घाटी के उन 172 गांवों के लिए तो बाबा केदार ही सब-कुछ हैं, जो जलप्रलय में तबाह हो गए अथवा थोड़ा-बहुत बचे हैं। लेकिन, कहते ना थाली में परोसे हुए भोजन को भी मुंह तक ले जाने के लिए हाथ चाहिए। और.यहां तो वो हाथ ही कट गए, जिनके भरोसे परिवार की गाड़ी चलती थी। न जाने कितनी मांओं के बेटे छिन गए और कितनों के पति। कुछ नहीं तो थोड़ी देर कल्पना ही कर लीजिए, ‘आखिर कौन बनेगा उनका सहारा।’

शीतकालीन प्रवास के बाद जब केदारनाथ धाम के कपाट खुलते हैं तो हजारों चेहरों से शीतकाल की उदासी के बादल छंटने लगते हैं। 15-16 साल की उम्र के बच्चों से लेकर 50-55 साल के उम्रदराज तक किस्मत संवारने केदारघाटी के पड़ावों की तरफ निकल पड़ते हैं। कोई यात्रियों को केदारनाथ धाम तक पहुंचाने के लिए खच्चरों का जिम्मा संभालता तो कोई पूजा-पाठ की सामग्री बेचने में लग जाता है। जिनके कंधे मजबूत हैं, वह डांडी (पालकी) संभालते हैं। कहने का मतलब हर कोई अपने-अपने तरीके से खुद के साथ सूबे आर्थिकी को भी संबल देता है। मेहनत कड़ी जरूर है, लेकिन उसकी बदौलत अगले छह महीने के लिए घरों में रौनक छा जाती है। साथ ही मिलता है खेतीबाड़ी को संबल। लेकिन, इस तबाही में कुछ नहीं बचा। 1962 वाले हालात हो गए हैं पूरी केदारघाटी में। भारत-चीन युद्ध के बाद बनी सड़कों का नामोनिशान तक मिट गया। गांवों को जोड़ने वाले संपर्क मार्ग तो मानो अस्तित्व में थे ही नहीं। केदारनाथ रूट के ऐसे कई कस्बे नेस्तनाबूद हो गए, जिनमें उम्मीदें खिलखिलाती थीं। न रामबाड़ा व गौरीकुंड का खुशहाल बाजार बचा, न सोनप्रयाग, सीतापुर, रामपुर, सेरसी, फाटा जैसे कस्बों के सैकड़ों होटल और दुकानें ही। चारों तरफ मरघट जैसा सन्नाटा पसरा हुआ है। घरों में चिराग नहीं जल रहे, जब घर का चिराग ही बुझ गया तो.। धारगांव-फाटा निवासी डॉ.मदनमोहन सेमवाल बताते हैं कि साधन-संसाधन तो वक्त के साथ कोई न कोई जुटा ही लेगा, पर उन घरों के सपनों को कौन आकार देगा, जिनकी उम्मीदों ही ‘डोर’ ही टूट गई। वह बताते हैं कि तबाही में स्थानीय लोगों की ‘लाइफ लाइन’ ही खत्म नहीं हुई, केदारघाटी में तो बिहार व नेपाल की बड़ी आबादी भी पलती थी। अफसोस कि हमारे पास जीवन को दोबारा पटरी पर लाने के लिए तात्कालिक नीति तक नहीं है। दीर्घकालिक नीति की तो खैर छोड़ ही दीजिए। हम कुड़ी गांव निवासी नागेंद्र सिंह के परिवार को जवाब देने की स्थिति में तक नहीं, जो गांव के ही दो अन्य लोगों के साथ डेढ़ महीने पहले रामबाड़ा गया था, लेकिन लौटकर नहीं आया। घर में तीन बच्चे हैं और सहारा कोई नहीं। यह अकेले कुड़ी गांव की दास्तान नहीं, त्रिजुगीनारायण, तोसी, बड़ासू, रामपुर, सीतापुर, पवनगढ़, दीपगांव, रुद्रपुर समेत पूरे 172 गांव हैं, जहां सिर्फ सिसकियों के सिवा कुछ भी नहीं। क्या इन गांवों की हमारा सोया हुआ तंत्र सुध लेगा। काश.।

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