राजस्थान की भूमि सांस्कृतिक संसाधनों से भरी हुई है

August 10,2020.
भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत और विविध सांस्कृतिक परंपराओं की सुरक्षा पर वरटुअल् वेबिनार के माध्यम से यह जाना गया कि राजस्थान अपनी जीवंत भौतिक संस्कृति और लोक कला का विश्व मानचित्र पर भारत का प्रतिनिधित्व करता है। यह खानाबदोश जनजातियों की भाषाओं से लेकर पेशेवर और गैर-पेशेवर समुदायों की मौखिक और संगीत परंपराओं तक विस्तृत है। यह भूमि सांस्कृतिक संसाधनों से भरी हुई है, जिनमें से कुछ को ही पहचाना और खोजा गया है।
वर्ल्ड इंडिज़ीनस डे के अवसर पर,लोक संवाद संस्थान, जयपुर, रूपायन संस्थान, जोधपुर और राष्ट्रीय प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों के साथ यूनेस्को ने संयुक्त रूप से अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए इस वेबिनार और वरटुअल् उत्सव का आयोजन किया। विभिन्न कला प्रदर्शन, लोक गीत संगीत, प्रदर्शनी से सराबोर इस आयोजन का उदेश्य स्वदेशी समुदाय-आधारित पारंपरिक कौशल एवं संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाना और स्वदेशी लोगों की जरूरतों और चिंताओं को दूर करना है।
दो-दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने वाले विशेषज्ञों ने विभिन्न हितधारकों और योगदानकर्ताओं के माध्यम से एक मजबूत सांस्कृतिक नीति के लिए आग्रह किया, जो इस वक़्त की आवश्यकता है।
कार्यक्रम के प्रारंभ मे लोक संवाद संस्थान के सचिव कल्याण सिंह कोठारी ने प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए बताया कि अमूर्त सांस्क्रतिक परंपरा के संरक्षण करने के लिए सोशल मिडिया कैम्पेन “मरू मणि” के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जगरूकता एवं संरक्षण के लिए यह प्रयास किया गया है।
डॉ मदन मीणा, वरिष्ठ सांस्कृतिक नृविज्ञानशास्त्री और निदेशक, दी आदिवासी अकादमी तेजगढ़, ने कहा कि आधुनिक शिक्षा के विकास और प्रभाव के बाद कई सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाओं ने अपना महत्व और प्रासंगिकता खो दी है जो की इस भूमि की जान और पहचान थी। इससे पहले कि इस तरह की धरोहरें स्थायी रूप से विलुप्त हो जाएं, समुदाय-आधारित और सरकारी पहल के माध्यम से उनकी मान्यता और मूल्य को संजोने की आवश्यकता है।

डॉ वेणुगोपाल, वर्तमान में श्री शंकराचार्य यूनिवर्सिटी ऑफ संस्कृत के सेंटर फॉर इनटेंनजिबल हेरिटेज स्टडीज, कलाडी केरल, ने अपना भाषण प्रस्तुत किया, जो अमूर्त विरासत के भारतीय मॉडल पर केंद्रित था। उन्होंने आग्रह किया कि भारतीय परंपरा प्रकृति और संस्कृति उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि विरासत है। उन्होंने बतोर निदेशक इंडियन म्युजियम ऑफ कोलकाता और नेशनल म्युजियम ऑफ नैचुरल हिस्ट्री दिल्ली के अपने 30 से अधिक वर्षों के अनुभवों को साझा किया।
डॉ सच्चिदानंद जोशी, सेक्रेटरी IGNCA दिल्ली, जिनको भारतीय कला, संस्कृति के प्रसिद्ध ध्वजवाहक और साहित्यकार, शिक्षाविद् और सुधारक माना जाता है। अमूर्त विरासत के बारे में लोगो के बीच बहुत कम जानकारी है। विशेषकर शिक्षकवर्ग, विधार्तीयो एवं युवा पीढ़ी को जागरुक करना आवश्यक है। उन्होंने बताया कि आदिवासी और अमूर्त मे बहुत फरक है लेकिन इसको आज भी एक ही मानते है।
सीनियर मीडिया गुरु केजी सुरेश, डीन, स्कूल ऑफ मॉडर्न मीडिया, यूपीईएस और पूर्व महानिदेशक आईआईएमसी, ने कहा की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को पॉपुलर करने मे पीपल ड्रिवन कम्युनिटी रेडियो को प्रमुख रूप से उपयोग मे लिया जाना चाहिए जिनके पास लोक परंपरा के बारे मे अधिक जानकारी रहती है। साथ ही लोक संवाद संस्थान से आशा करी की वह अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर फिल्म फेस्टिवल आयोजित करे, जिसमे अपेजय यूनिवर्सिटी, यूपीइसएस और IGNCA से सहयोग का आग्र किया।
, कुलदीप कोठारी, सचिव रूपायन संस्थान, प्रो सजल मुखर्जी, निदेशक, अपीज इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन, द्वारका, नई दिल्ली ने भी इस विषय मे अपने विचार व्यक्त किये।
इस कार्यक्रम की शुरुआत राजस्थानी लोक गीत ‘धूमलढ़ी ’नामक पारंपरिक गीत के साथ हुई जो की चानन खान और श्री अनवर खान मंगनियार को समर्पित किया गया। केरल थिएटर और नृत्य को दर्शाते हुए, मुदियेत्तु नामक एक लघु फिल्म का आयोजन भी किया गया जो की देवी काली और राक्षस दारिका के बीच लड़ाई की पौराणिक कहानी पर आधारित है। पदम भूषण कोमल कोठारी की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का भी प्रदर्शन हुआ जिसमे लोक कला एवं संस्कृति के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाया गया।
उनके अनुसार हमें स्थायी जीवन जीने के लिए, हमारे और प्रकृति के पारंपरिक ज्ञान प्रणाली के प्रति एक सहयोगी दृष्टिकोण होना चाहिए।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे
कल्याण सिंह कोठारी
9414047744

error: Content is protected !!