मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर क्यों बैठते हैं?

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है? यह सवाल मेरे जेहन में अरसे से है। इसका जवाब जानने की बहुत कोशिश की, मगर अब तक उसका ठीक ठीक कारण नहीं जान पाया हूं। भले ही आज वास्तविक कारण का हमें पता न हो, मगर यह परंपरा जरूर कोई न कोई राज लिए हुए है।
मुझे मोटे तौर यह समझ में आता है कि मंदिर के आध्यात्मिक माहौल को आत्मसात करने के बाद बाहर आने पर एक झटके में भौतिक जगत से जो सामना होता है, वह कहीं एक झटके में ही आध्यात्मिक भाव को नष्ट न कर दे। मंदिर के भीतर हमने जो ऊर्जा हासिल की है, वह बाहर आते ही भौतिक वातावरण में तिरोहित न हो जाए, इसलिए कुछ क्षण बैठ कर उसे भीतर गहरे बैठाने की कोशिश की जाती है।
हाल ही मेरे वरिष्ठ मित्र हाल दिल्ली निवासी श्री शिव शंकर गोयल, जो कि जाने-माने व्यंग्य लेखक हैं, ने इससे संबंधित पोस्ट वाट्स ऐप पर भेजी। उसे हूबहू आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं, उसे पढऩे के बाद हम विचार करेंगे कि क्या वाकई हमें अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं-
परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या अटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर अपने घर / व्यापार / राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस श्लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है-
अनायासेन मरण
बिना देन्येन जीवन
देहान्त तव सान्निध्य
देहि मे परमेश्वर
इस श्लोक का अर्थ है
अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठा कर मृत्यु को प्राप्त न हो। चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।
बिना देन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन न हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस न हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।
देहांते तव सान्निध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
देहि में परमेशवरम् अर्थात् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।
भगवान से प्रार्थना करते हुए उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।
गाडी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठ कर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है, वह भीख है।
प्रार्थना शब्द के प्र का अर्थ होता है विशेष अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और अर्थना अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।
मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, शृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।
दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुनः दर्शन करें।
इस पोस्ट में मंदिर के बाहर सीढ़ी पर बैठने के बाद क्या करना है, ये तो बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। साथ ही ऐसा करने का प्रयोजन भी आखिर में बताया गया है। वो यह कि भीतर जो दर्शन किया है, उसे सीढ़ी पर बैठ कर एक बार आत्मसात कर लें, ताकि वह चिरस्थाई हो जाए। जैसे पढ़ाई करते वक्त पढ़े हुए पाठ को याद रखने के लिए रिवीजन किया जाता है।
बेशक एक कारण ये हो सकता है, हालांकि लोग तो इस कारण को जाने बिना ही केवल औपचारिक रूप से ऐसा करते हैं। एक वजह सम्मान की भी हो सकती है। मंदिर से बाहर निकलते वक्त हमारी पीठ मूर्ति की ओर होती है, जो कि उचित नहीं। अतः मूर्ति के देवता के प्रति आदर व आभार प्रकट करने के लिए सीढ़ी पर कुछ क्षण बैठा जाता होगा। मेरी खोज जारी है, यदि कोई और कारण भी जानकारी में आया तो आपसे शेयर जरूर करूंगा।

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