
हम संत-महात्माओं की समाधियां बनाते हैं। वहां अपना सिर झुकाते हैं। हर साल उन समाधियों पर मेले लगते हैं। उनकी महिमा गाई जाती है। अपनी किसी मनोकामना को लेकर हम भी अरदास करते हैं। बिना किसी स्वार्थ के केवल श्रद्धा भाव से किसी समाधि पर मत्था टेकने वाले भी होंगे, मगर अमूमन किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही लोग समाधि की पूजा करते हैं।
जो महान आत्माएं अच्छे कार्य करके स्वर्ग चली गईं, मैं उनकी बात नहीं करता, वे कदाचित हमारी मनोकामना पूरी करती ही होंगी, चूंकि वे देवताओं की श्रेणी में मानी जा सकती हैं। मैं उनकी बात कर रहा हूं, जिनके बारे में हमारी मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गईं। मोक्ष का अर्थ ही है कि संसार से पूर्ण मुक्ति और परम सत्ता में विलीन हो जाना। उसके बाद भौतिक जगत से उनका कोई वास्ता ही नहीं रहता। यानि कि अगर हम ऐसी महान आत्मा की समाधि बनाते हैं तो वह वहां तो मौजूद नहीं हो सकती। उसका कोई अंश भी वहां नहीं है, चूंकि वे तो यहां से छूट कर परम धाम को चली गईं। तो फिर वहां किसी मनोरथ से सिर झुकाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। हां, समाधि स्थल उनकी याद के लिए तो ठीक है, उनके गुणों का स्मरण कर उन्हें आत्मसात करने के लिए उचित है, लेकिन यदि हम अगर ये सोचें कि वह हमारी मनोकामना भी पूरी करेंगी तो यह हमारा भ्रम मात्र है। चूंकि वह वहां है ही नहीं, हमारी बात सुनने के लिए। न ही हमारा उससे कोई कनैक्शन है, चूंकि वह तो मुक्त ही हो चुकी। उसका जगत से संबंध ही विच्छेद हो गया। बुलाएंगे कैसे, सुनने वाला ही नहीं रहा। परम सत्ता में भी उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है, चूंकि वह तो उसमें विलीन ही हो गई। फिर भी यदि हम समाधि के आगे खड़े हो कर उनका आह्वान करते हैं तो यह न केवल बेवकूफी है, अपितु घोर स्वार्थपरता है। हम कितने मतलबी हैं। उनको मोक्ष मिल गया, इसके प्रति अहोभाव तो है नहीं, उलटे खींच कर इसी जगत में रखना चाहते हैं, ताकि वे हमारे काम आते रहें।
इस सिलसिले में मैने एक महंत से चर्चा की व मेरी शंका का समाधान करने का आग्रह किया तो वे कुछ सोच कर बोले कि मेरी सोच बौद्धिक स्तर पर तर्कपूर्ण ही है। उनका कहना था कि बेशक मोक्ष प्राप्त संत की समाधि इच्छा पूर्ति का स्थल नहीं हो सकता। वह हमारी श्रद्धा का केन्द्र जरूर हो सकता है। वहां मन की शांति भी मिल सकती है। वहां से अच्छे कार्य करने की प्रेरणा भी मिल सकती है। लेकिन अगर हम वहां जा कर इच्छाओं का इजहार करते हैं, तो वह बेमानी है। आम आदमी इस बात को समझ नहीं पाता। वह तो स्वार्थ लेकर ही वहां जाता है। और अगर उसकी मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर उसे निराशा ही हाथ लगेगी। सिद्धांततः उन महंत के मन्तव्य से मेरी सोच मिलती है, वे मेरे नजरिये पर मुहर लगा रहे हैं, बावजूद इसके यही अंतिम सत्य है, ऐसा कहना इसलिए उचित नहीं क्योंकि हो सकता है कि मेरी समझ से भी परे कोई रहस्य हो, जो मुझे दिखाई न दे रहा हो। अगर आपको इस बारे में कोई जानकारी हो तो जरूर मेरा ज्ञानवर्द्धन कीजिएगा।