पितरों को श्राद्ध की वस्तुएं कैसे मिलती हैं?

हालांकि सभी हिंदू श्राद्ध में विश्वास रखते हैं, और परंपरागत रूप से श्राद्ध कर्म करते भी हैं, मगर कुछ लोग यह सवाल खडा करते हैं कि जो प्राणी मरने के बाद दूसरी योनि में जन्म ले चुका, वह श्राद्ध पक्ष के दौरान हमारी ओर से उसके निमित्त ब्राह्मण को कराए गए भोजन को कैसे ग्रहण कर पाता होगा।
तार्किक रूप से यह प्रश्न बिलकुल ठीक प्रतीत होता है। इसी कडी में कई लोग कहते हैं कि गया में पिंडदान करके दिवंगत परिजन को जब आप विदा कर चुके हैं तो क्यों उन्हें श्राद्ध के नाम पर फिर से बुलाने की गुस्ताखी की जाए। इससे भी बडा सवाल है कि हम भी निश्चत रूप से पूर्व जन्मों में किन्हीं के पूर्वज थे, यदि वे हमारा श्राद्ध करते हैं तो उससे होने वाली संतुष्टि का अनुभव हमें क्यों नहीं होता?
दूसरी ओर शास्त्र बताता है कि पितृ ऋण चुकाने के लिए किए जाने वाले श्राद्ध कर्म की कीमिया क्या है? इस सिलसिले में हाल ही अजमेर के शिव सागर, आगरा गेट स्थित मराठा कालीन श्री पंचमुखी हनुमानजी व वैभव महालक्ष्मी मंदिर के पंडित प्रकाश चन्द्र शर्मा एक पोस्ट सोशल मीडिया पर जारी की है। जाहिर है उन्होंने श्राद्ध कर्म के प्रति उत्पन्न हो रही अश्रद्धा की प्रतिक्रिया में यह कोशिश की है।
बहरहाल, यह जानते हैं कि श्राद्ध कर्म के बारे में शास्त्र क्या बताता है?
श्राद्ध का अर्थ – ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्ध।’
‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।
कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।
एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा ’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’
भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रस तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।
पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व!
जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अतः वे अन्न व जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।
नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
यदि पशु योनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नाग योनि में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्ति कारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।
जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
इस बारे में एक दष्टांत है कि श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने राजा दशरथ व पितरों के दर्शन किए थे।
वाकया इस प्रकार है कि एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं
‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में सट कर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती इसलिए मैं ओट में हो गई।’

श्राद्ध की महत्ता के बारे में बताया गया है कि और वंश वृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है। पितर गण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
श्राद्ध न करने से होने वाली हानि के बारे में बताया गया है कि मृत व्यक्ति के दाह कर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दुख होता है।
आश्विन मास के पितृ पक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे यही आशा लेकर वे पितृ लोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं लेकिन जो लोग पितर हैं ही कहां? यह मान कर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दुखी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं।
ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठा कर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।

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