मोक्ष वही पाता है जो.. श्रीराम के काज आता है…

मेरा जन्म नहीं किसी काम का
यदि नहीं राम के काज का…….
रामलला हम आएंगे…. मंदिर वहीं बनाएंगे….

संतोष गुप्ता-
…… कुछ इस तरह के ओजस्वी नारे जब भी कानों में गूंजते थे बरबस तन बदन में जोश भर जाता था। मन मयूर पंख फैलाए उड़ने को आतुर था। मुठि्ठयां बंद हो जाती थीं, भुजाएं तन जाती थीं। सीना चौड़ा हो जाता था और कदमों में तेजी आ जाती थी। घर-परिवार की कोई सुधबुध नहीं रहती थी… एक धुन सी सवार थी। बस चलना है… आगे बढ़ना है… कोई रोके टोके… तो स्वयं को बचाना है। राह में नाके बंद कर दिए गए तो क्या, बसों के चक्के जाम हो गए तो क्या। रेलों में जगह ना मिले तो भी कोई हर्ज नहीं। रेलगाड़ियों में तलाशी ली जा रही हो तो कोई डर नहीं। बीच रास्ते ही उतर जाना है, कच्चे रास्तों से आगे बढ़ना है। वह भी कंटीले और आगे अवरुद्ध हों संभव है तो पगडंडियां भली। खाना-पानी की तनिक चिंता रखना नहीं। कोस कोस पर रामभक्त मिल जाएंगे, आगे मार्ग वहीं सुझाएंगे…..पहुंचना है, किसी तरह अयोध्या पहुंचना है।
तीन दशक यानी पूरे तीस साल। बात कर रहा हूं अक्टूबर 1990 की, तब मैं यही कोई 25 बरस का रहा होऊंगा। अभी अभी काॅलेज से निकला स्नातकोत्तर पास छात्र। नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय छोटे-बड़े आठ भाइयों वाले एक परिवार का सदस्य। आज दो बच्चों का पिता हूं….। नहीं समझ सका था तब एक भाई की सलाह और पिता की सीख को, उनके मन की बात पढ़ना तो बहुत दूर की बात थी, मेरी सोच भी तो इतनी परिपक्व कहां थी तब जो अपना या उनका भला-बुरा, जान पाता। अपनी खुली आंखों से देख पाता बदलते समय चक्र की गति को और सुन पाता उनके कलेजे की बढ़ती धड़कन को…।
….. राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के नाम पर झगड़े, फसाद और नरसंहार, रक्त रंजित गली, मोहल्ले बस्ती, बाजारों की खबरें तब अखबारों में सुर्खियां पाया करती थीं। ‘‘राम नाम सत्य है’’ …! कहने पर भी पाबंदी थी। असीम गुनाह हुआ करता था। …. मैं तो बस राजस्थान के अजमेर, जयपुर और कोटा से प्रकाशित एक प्रादेशिक पत्र दैनिक नवज्योति का अदना सा खबरनवीस था। अपने मालिक की मंशा ही मेरे लिए उनका आदेश होता था और उसकी अनुपालना ही मेरा धर्म और दायित्व…। सही और गलत में भेद करना तब मेरे विचारों में उपजता ही नहीं था।
……उस दिन मेरे पिता की नजरें कारसेवकों की उस भीड़ में बढ़ते मेरे कदमों, मेरे वजूद को कुछ घडी, कुछ दूर तक पीछा कर जरूर देख सकी होंगी… उनकी चिंता…यह अब मैं समझ पा रहा हूं। आज जब वैश्विक महामारी कोरोना का भय चहुंओर छाया है, मेरे बच्चों के घर से बाहर निकलते बहुत जरूरी कदम भर से भी मैं उनके जीवन रक्षण सुरक्षा भाव में सिहर जाता हूं…! मेरी ही तरह मेरे पिता भी उस दिन ‘रामजी’ के भरोसे अपने मन में ‘संतोष’ लिए उलटे पांव लौट गए होंगे। मां घर बैठी इंतजार करती रही होंगी मेरे अयोध्या से सुरक्षित लौट आने का…..,पर यह सत्य है अपनों का दिया हो या पराया…. दर्द हो या दुःख जीवन में भोगना अकेले ही होता है। … वक्त की पुकार पर श्रीराम जी में आस्था और विश्वास के संग रामकाज को मैं तो आगे निकल ही चुका था।
अयोध्या में आज जब श्रीरामलला के भव्य और दिव्य मंदिर के नींव की ईंट रखी जा रही है, प्रसंगवश मेरे अन्र्तमन के अंतरतल में दबे मेरे भाव और भीतर ही भीतर गहराई में छुपी मेरी भावनाएं उमड़-घुमड़ कर बाहर आने लगी हैं। सोचता हूं…. मैं भाग्यशाली हूं। मेरे हिस्से भी तब राम काज आया था। मेरे साक्षी राममंदिर नवनिर्माण संघर्ष की पृष्ठभूमि पर अब भव्य इमारत बनने जा रही है। मैंने अपने रामकाज को सकुशल निभाया।
…..आज जब पीछे नजर घुमाता हूं तो पाता हूं ….जीवन के उस काल खण्ड में बहुत निडर था मैं। बेहद निर्भीक….। आंखों के सामने आगजनी होना, पत्थर-गोलियां चलना, आंसू गैस या बम के गोले दागे जाना या हादसों-दुर्घटनाओं में लाशों का राह में बिछा होना….। सुरक्षा बलों के जूतों की पदचाप, उड़नदस्ता पुलिस वाहन का सायरन, एम्बुलेंस और फायरब्रिगेड गाड़ियों की सनसनी फैलाती आवाजाही उन सब में बस खबर ही सूझा करती थी। मानवीय संवेदनाएं तो जैसे भीतर कहीं दबी रह जाया करती थीं।
पहले गुडगांव, फिर कानपुर और आगे लखनऊ तक पहुंचते पहुंचते मैंने अपने छोटे से जीवन सफर के बड़े बड़े अनुभव संजोकर मन की डायरी में दर्ज कर लिए थे। राजनीतिक समझ भी छात्र जीवन की दहलीज लांघ मानो युवा होने लगी थी।
मैं जिस समूह में था उसमें मेरे साथी पत्रकार तत्कालीन दैनिक न्याय के संवाददाता एवं वर्तमान में अमर उजाला, दिल्ली के संपादक इंदुशेखर पंचोली भी थे। मेरी हिम्मत उनसे थी तो उनकी मुझसे.. फिर भी हमारी देखरेख, सुरक्षा, संरक्षण का दायित्व सम्माननीय पूर्व सांसद औंकारसिंह लखावत जी पर था। नवज्योति के प्रधानसंपादक आदरणीय दीनबंधु चौधरी जी ने मुझे उनके संरक्षण में ही कारसेवकों के साथ अयोध्या भेजने पर रजामंदी दी थी। उस समय यह पत्रकारिता के पेशेगत जरूरत भी थी और व्यावसायिक मजबूरी भी। राममंदिर पुनर्निमाण का समाचार बहुत व्यापक और बेहद पठनीय समाचार हुआ करता था। इस राष्ट्रव्यापी मुद्दे को लेकर उत्तर प्रदेश सहित देशभर में साम्प्रदायिक तनाव बना हुआ था। ऐसे में अजमेर से अयोध्या जा रहे कारसेवकों के बारे में नवीनतम समाचार तो अखबार को चाहिए ही थे। उन दिनों आज की तरह डिजीटल और सोशल मीडिया का चलन नहीं था। फोटो के लिए ब्लैक एंड व्हाइट एवं रंगीन रील वाले कैमरे हुआ करते थे। प्रदेश के बाहर टेलीफोन पर बात करने के लिए एसटीडी कोड काम करता था। अन्यथा एसटीडी काॅल बुक कराना होता था। संदेश, संवाद या समाचार भेजने हों तो टेलीग्राम हुआ करता था। प्रधानसंपादक दीनबंधु चौधरी जी ने अयोध्या कवरेज के लिए ना सिर्फ मुझे विशेष संवाददाता का पत्र बना कर दिया अपितु यह जानते हुए कि वहां से समाचार भेजने में परेशानी ना हो इसलिए टेलीग्राम कार्ड भी बनवाकर दिया। आवश्यक होने पर सीधे एसटीडी के जरिए ही पूरा समाचार फोन पर अजमेर स्थित नवज्योति कार्यालय को लिखवाने की भी अनुमति थी।
पुलिस से छिपते-छिपाते, पगडंडियों व कच्चे रास्ते से होते हुए हम किसी तरह बुलंद शहर तक पहुंच गए थे। यहां से कानपुर जाते हुए उससे कुछ पहले अकबरपुरा पर ही पुलिस द्वारा हमें पकड़ लिया गया और हमें गिरफ्तार कर अस्थायी रूप से बनाई जेल कृषि उत्पादन मंडी कार्यालय भवन भेज दिया गया। समूचे कानपुर शहर में कफ्र्यू लागू था। यहां समाचार भेजने के लिए जेल से बाहर निकलना बहुत मुश्किल था। फिर भी हम निकले और किसी तरह नजदीक ही एक धर्मकांटा में घुस गए। जहां एसटीडी के जरिए दैनिक नवज्योति कार्यालय पर तत्कालीन साथी एवं वर्तमान में स्थानीय संपादक ओममाथुर जी को फोन पर समूचा समाचार बताया। इस दौरान सामने गोलियां चल रही थी। आगजनी हो रही थी। समूचा कानपुर साम्प्रदायिकता की आग से झुलस रहा था। दहशत और तनाव का माहौल था। कभी नंगी तलवारे लिए टोलिया निकलती और पत्थरबाजी होती तो कभी घंटी, घडियाल, शंख, झांझर बजाते लोगों के झुण्ड जयश्री राम के उदद्योष के साथ आगे बढ़ते नजर आते। कानपुर की इस अस्थाई जेल में चार दिन कैद रहने के दौरान यहां तत्कालीन कुख्यात डकैत रहे माधोसिंह से मुलाकात भी हुई। डकैत से रामभक्त साधु बनने तक के उनके सफर को जाना। तब समझ में आया कि अपने करने और सोचने से कुछ नहीं होता अंत वहीं जो रामरची राखा।
जेल में रहते शासन प्रशासन, पुलिस और राजनेताओं की सांठगांठ, रामजी के नाम पर अंदरूनी मतएकता, सामूहिक अनुशासन, प्रांतीय सौहार्द व एकजुटता देखने को मिली। यहां अलग अलग प्रांतों के कारसेवक बंदी बनाए गए थे। राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली सभी प्रांतों से कारसेवक यहां एक ही परिसर में थे। सभी के लिए खाने पानी की व्यवस्था प्रशासन एवं स्थानीय रामभक्तों के सहयोग से की जा रही थी। मेरे साथी इंदुशेखर पंचोली को प्याज खाना स्वीकार नहीं था। कारसेवक जब भी भोजन के पैकट लाते तो उसमें आलू प्याज की सब्जी ही होती। साथी इंदुशेखर का लगातार फलपर रहना पड़ा। इस मुश्किल दौर में हमारे सहयोगी संगी मरहूम पार्षद सूरजभान जी एवं मित्र महेशजी टोपी के पिताश्री ने बहुत साथ निभाया। महेशजी टोपी के पिताजी हमे सूखे मेवे खाने को देते थे तो भाई सूरजभान हमारे लिए किसी तरह फल और बिना प्याज के भोजन पहुंचाने की जुगाड़ में जुटे रहते थे।
एक दिन जब हम मौका पाकर समाचार भेजने के लिए जेल से बाहर आए तो राह में गरमदल के राममंदिर समर्थकों ने हमें पकड़ लिया। भाई सूरजभान सलवार कुर्ता पहने हुए थे और उनके चेहरे पर दाढ़ी भी थी। मेरे चहरे पर भी तब दाढ़ी अच्छी खासी उग आया करती थी। रामभक्त यह मानने को तैयार ही नहीं कि वह हिन्दू कार सेवक हैं और हम उनके पत्रकार साथी। बीच रास्ते उन्होंने घेर कर भाई सूरजभान से राममंदिर के समर्थन में नारे लगवाए तब कहीं जाकर हमें आगे जाने दिया।
जैसे तैसे हम कानपुर से निकलकर अयोध्या के लिए कूच कर गए किन्तु दुर्भाग्य से लखनऊ में ही रोक लिए गए। यहां हमारे पास रुकने का कोई ठिकाना नहीं था। पुलिस की निगरानी इतनी कड़ी थी कि अजमेरवासी सभी कारसेवकों ने अलग अलग जत्थों में ही विविध सुविधापूर्ण साधनों से अयोध्या पहुंचने को सहमति बनाई थी। यहां सम्माननीय औंकार सिंह लखावत जी के पुराने हमपेशा नामी वकील साहब बहुत काम आए। लखनऊ में कफ्र्यू के लागू रहते वे हमें किसी तरह निकाल कर एक गेस्ट हाउस में ले गए। बाद में मुझे बताया गया कि वह गेस्ट हाउस सहारा समूह का था। लखनऊ में रहते हमने समाचार पत्र के लिए समाचार कभी टेलीफोन पर तो कभी तार से संप्रेषित किए। आने वाले दिनों में जैसे जैसे समूचे उत्तर प्रदेश में तनाव बढ़ने लगा यहां से अयोध्या के लिए रवानगी हर दिन मुश्किल होती जाने लगी। कार्तिक पूर्णिमा के दिन कारसेवकों ने अयोध्या राममंदिर की तरफ कूच किया तो समूचा माहौल हिंसक हो गया। इसके बाद कार सेवकों ने हर नए दिन की शुरूआत के साथ राममंदिर की तरफ कूच किया और पुलिस से झड़प की किन्तु राममंदिर तक पहुंच नहीं बन सकी। अलबत्ता अयोध्या से उठती खबरों में समूचे देश को साम्प्रदायिक दहशत और तनाव में डाले रखा। शाश्वत सत्य है नवनिर्माण की नींव विध्वंस पर ही डलती है। सुंदर इमारत के निर्माण में सैकंड़ों मजबूत ईंटों को जमीदोज होना होता है। धर्म, संस्कृति, गौरव और राष्ट्र सम्मान की रक्षा में जाने कितने तख्तोताज मिट गए। मोक्ष वही पाता है जो राम के काज आता है।
लौट कर जब नवज्योति के पाठकों के लिए मैंने वहां के हालात लिखे तो उसे पाठकों ने दिलचस्पी से पढ़ा और सराहा। आज जब अयोध्या में राममंदिर नवनिर्माण का भूमिपूजन हुआ मेरी कलम फिर से चल पड़ी… नए अध्याय के लिए। प्रणाम, जयश्रीराम।

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