सौभाग्य का प्रतीक है स्वस्तिक

svastikस्वस्तिक को हिन्दू धर्म ने ही नहीं, अपितु विष्व के सभी धर्मों ने परमपवित्र माना है। स्वस्तिक षब्द ‘सू’ $ उपसर्ग अस् धातु से बना है। सु अर्थात अच्छा, श्रेष्ठ, मंगल एवं अस् अर्थात सत्ता। यानी कल्याण की सत्ता, मांगल्य का अस्तित्व। स्वस्तिक मानव मात्र के विकास हेतु सौभाग्य का प्रतीक है। यह चिह्न अत्यन्त प्राचीन है। यही वजह है कि धार्मिक कार्यों, ज्योतिष व वास्तु में स्वस्तिक का विषेष महत्व है।स्वस्तिक दो रेखाओं द्वारा बनता है। दोनों रेखाओं को बीच में समकोण स्थिति में विभाजित किया जाता है। दोनों रेखाओें के सिरों पर बायीं से दायीं ओर समकोण बनाती हुई रेखाएं इसतरह खींची जाती हैं कि वे आगे की रेखा को न छू सकें। स्वस्तिक को किसी भी स्थिति में रखा जाए,उसकी रचना एक सी ही रहेगी। स्वस्तिक के चारों सिरों पर खिंची गयी रेखाएं किसी बिंदु को इसलिए स्पर्ष नहीं करती, क्योंकि इन्हें ब्रह्माण्ड के प्रतीकस्वरूप अन्तहीन दर्षाया गया है। अमरकोष में लिखा है ‘स्वस्तिकः सर्वतो ऋद्ध’। अर्थात सभी प्रकार से सभी दिषाओं में मानव मात्र का कल्याण हो। स्वस्तिक में वसधैव कुटुम्बकं की भावना है। वैसे, स्वस्तिक के बारे में भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं। इनमें से कुछ का जिक्र हम यहां कर रहे हैं।
स्वस्तिक की खड़ी रेखा स्वयंभू ज्योतिर्लिंग का संकेत देती है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, यह षवलिंग विष्व की उत्पत्ति का मूल कारण है तथा आड़ी रेखा विष्व के विस्तार को बताती है। स्वस्तिक गणपति का भी प्रतीक है। बौद्धधर्म के महायन सम्प्रदाय ने भी विनायक के प्रतीक रूप में स्वस्तिक चिह्न की उपासना को स्वीकारा है। स्वस्तिक भगवान विष्णु व श्री का प्रतीक चिह्न माना गया है। स्वस्तिक की चार भुजाएं भगवान विष्णु के चार हाथ हैं। इस धारणा के अनुसार भगवान विष्णु ही स्वस्तिक आकृति में चार भुजाओं से चारों दिषाओं का पालनकरते हैं। स्वस्तिक के मध्य में जो बिन्दु है, वह भगवान विष्णु का नाभिकमल यानी ब्रह्मा का स्थान है। स्वस्तिक धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी उपासना के लिए भी बनाया जाता है। हिंदू व्यापारियों के बही-खातों पर स्वस्तिक चिह्न बना होता है। जब इसकी कल्पना गणेष रूप में हो तो स्वस्तिक के दोनों ओर दो सीधी रेखाएं बनायी जाती हैं, जो षुभ-लाभ एवं ऋद्धि-सिद्धि की प्रतीक हैं। हिन्दु पौराणिक मान्यता के अनुसार इस प्रकार से अभिमन्त्रित स्वस्तिक रूप् गणपति पूजनसे घर में लक्ष्मी की कमी नहीं होती। जैन धर्म एवं पाली भाषा में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से सम्बोधित किया गया है। ‘साक्षियो कर्मः’ अर्थात जो प्रत्येक षुभ एवं मांगलिक कार्य में साक्षी रूप में विद्यमान रहता है। पातंजल योगषास्त्र अनुसार कोई भी कार्य निर्विध्न समाप्त हो जाए, इसके लिए कार्य के प्रारम्भ म मंगलाचरण लिखने का प्रचजन रहा है। परन्तु ऐसे मंगलकारी श्लोकों की रचना सामान्य व्यक्तियों से संभव नहीं। इसी असंभव को संभव बनाने के लिए ऋषियों ने स्वस्तिक का निर्माण किया। मंगल कार्यों के प्रारम्भ में स्वस्तिक बनाने मात्र से वह कार्य बिना किसी बाधा के संपन्न हो जाता है।
स्वस्तिक चिह्न का वैज्ञानिक आधार भी है। गणित में $ चिह्न माना गया है। विज्ञान के अनुसार पोजिटिव तथा नेगेटिव दो अलग-अलग षक्ति प्रवाहों के मिलन बिन्दु को प्लस ( $) कहा गया है, जो कि नवीन षक्ति के प्रजनन का कारण है। प्लस को स्वस्तिक चिह्न का अपभ्रंष माना जाता है, जो सम्पन्नता का प्रतीक है। स्वस्तिक धु्रव परिक्रमा में संलग्न सप्तऋषि मंडल का आधारभूत चिह्न है। किसी भी मांगलिक कार्य को करने से पूर्व हम स्वस्तिवाचन करते हैं अर्थात मरीचि, अरुन्धती सहित वषिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह तथा कृत आदि सप्त ऋषियों का आषीर्वाद प्राप्त करते हैं।

नरेश सिंगल
नरेश सिंगल

स्वस्तिक का वास्तुषास्त्र में अति विषेष महत्व है। यह वास्तु का मूल चिह्न है। स्वस्तिक दिषाओं का ज्ञान करवाने वाला षुभ चिह्न है। घर को बुरी नजर से बचाने व उसमें सुख-समृद्धि के वास के लिए मुख्य द्वार के दोनों तरफ स्वस्तिक चिह्न बनाया जाता है। स्वस्तिक चक्र की गतिषीलता बाईं से दायीं ओर है। इसी सिद्धान्त पर घड़ी की दिषा निर्धारित की गयी है। पृथ्वी को गति प्रदान करने वाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत उत्तरायण से दक्षिणायण की ओर है। इसी प्रकार वास्तुषास्त्र में उत्तर दिषा का बड़ा महत्व है। इस ओर भवन अपेक्षाकृत अधिक खुला रखा जाता है, जिससे उसमें चुम्बकीय ऊर्जा व दिव्य षक्तियों का संचार रहे।
स्कन्दपुराण में आया है कि कात्यायन ऋषि ने हाटकेष्वर क्षेत्र में ‘वास्तुपद’ नामक तीर्थ का निर्माण किया और विष्वकर्मा के साथ वहां वास्तुपूजन किया। उस तीर्थ में अड़तालीस देवताओं की पूजा की गयी। कहा गया है कि घर में जो षिला, कुत्सित पद और वास्तु दोष हैं, वे उस तीर्थ के दर्षन से मिट जाते हैं। मतलब यह कि दोषयुक्त और उपद्रवपूर्ण घर को पाकर भी यदि मनुष्य उस तीर्थ का संयोग प्राप्त कर ले तो उसी दिन से उसके घर में अभ्युदय होने लगता है। किंतु ‘वास्तुपद’ तीर्थ की स्थिति के विषय में वर्तमान में जानकारी उपलब्ध नहीं है। वास्तुदोष क्षय करने के लिए स्वस्तिक को ‘वास्तुपद’ तीर्थ के समक्ष ही लाभकारी माना गया है। मुख्य द्वार के ऊपर सिन्दूर से स्वस्तिक का चिह्न बनाना चाहिए। यह चिह्न नौ अंगुल लम्बा व नौ अंगुल चौड़ा हो। घर में जहां-जहां वास्तुदोष हो, वहां यह चिह्न बनाया जा सकता है।

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