-ललित गर्ग- जिस तरह कण-कण में भगवान हैं, ठीक उसी तरह कण-कण में जीवन भी समाया है। संगीत की स्वर-लहरियों, पंछियों की चहचहाहट, सागर की लहरों, पत्तों की सरसराहट, मंदिर की घंटियों, मस्जिद की अजान, कोयल की कूक, मयूर के नयनाभिराम नृत्य, लहलहाते खेत, कृषक के मुस्कराते चेहरे, सावन की रिमझिम फुहार, इंद्रधनुषी रंगों, बादलों की गर्जना, बच्चे की मोहक मुस्कान, फूलों की खूशबू, बारिश की सौंधी-सौंधी महक, माँ की लोरियाँ, पानी की गगरियाँ। यही है जीवन के वास्तविक उत्सव और यही है मनुष्य-मन की उत्सवमयता। गेटे का कथन जीवन को उत्सव में बदलने वाला है कि यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्न नहीं हुई है तो तुम दूसरों के हृदय को कदापि प्रसन्न नहीं कर सकते।
प्रकृति के अनुपम सौंदर्य में भी जीवन का विलक्षण आनंद समाहित है। जीवन एक उत्सव है, नाचों गाओं और मुस्कराओ। जिंदादिली का नाम है जिंदगी। जीवन पुष्प है, प्रेम उसका मधु। जिंदगी में सदा मुस्कराते रहो, फासले कम करो, दिल मिलाते रहो। जीवन एक चुनौती है। विपत्तियों से जूझकर चुनौती स्वीकार करना ही जिंदादिली है, साहस है तथा इसी में रोमांच भी है। लाओत्से ने कहा है कि इसकी फिक्र मत करो कि रीति-रिवाज का क्या अर्थ है। रीति-रिवाज आनन्द देते हैं, बस काफी है। आनन्द का जीवन में बहुत महत्व है। होली मनाओ, दीवाली मनाओ, बसन्तोत्सव मनाओ। कभी दीये भी जलाओ, कभी रंग-गुलाल उड़ाओ तो कभी जीवन के गीत गाओ। कभी संयम के गीत गाओ तो कभी साधना के। जिन्दगी को सहज, सरल और नैसर्गिक रहने दो। मिलनसार होना अच्छा है, खाने-पीने को संस्कार देना अच्छा है, मैत्री अच्छी है, बड़ों के प्रति सम्मानभाव व्यक्त करना -यह सब करते हुए स्वयं की पहचान भी जरूरी है। जैसे हो वैसे ही अपने को स्वीकार करो। और इस सरलता और सहजता से ही धीरे-धीरे स्वयं की स्वयं के द्वारा पहचान हो सकेगी।
अपने प्रति सकारात्मकता होनी जरूरी है। एक दिव्यदृष्टि जरूरी होती है जीवन की सफलता एवं सार्थकता के लिये। सर विलियम ब्लैकस्टोन ने लिखा है- रेत के एक कण में एक संसार देखना, एक वन पुष्प में स्वर्ग देखना, अपनी हथेली में अनन्तता को देखना और एक घंटे में शाश्वतता को देखना। सचमुच यही जीवन का वास्तविक आनन्द है, उत्सव है। बेंजामिन फ्रेंकलिन का यह कथन जीवन को एक सार्थक दिशा देता है कि हो सकता है कि दीर्घ जीवन पर्याप्त अच्छा न हो परन्तु अच्छा जीवन पर्याप्त दीर्घ होता है।
जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, निरंतर चलते रहो, तब तक चलते रहो, जब तक कि मंजिल न पा लो। जीवन चलायमान है, चलता ही रहता है, अपनी निर्बाध गति से। जीवन न तो रुकता है और न ही कभी थकता है। जीवन पानी की तरह निरंतर बहता रहता है। जीवन कभी नहीं हारता है, उससे हम ही हार जाते हैं। चलते रहो और पीछे मुडकर कभी न देखो, लक्ष्य शिखर की ओर रखो और आसमान की बुलंदियाँ खुले जेहन में। इसीलिये नेपोलियन कहते हैं, जो व्यक्ति अकेले चलते हैं, वे तेजी से आगे की ओर बढते हैं। जिस प्रकार सूर्य अकेले ही अपनी तेजस्वी किरणों से समस्त संसार को प्रकाशमान कर देता है, उसी प्रकार एक ही वीर अपनी शूरता, पराक्रम और साहस से सारी पृथ्वी को अपने पैरों तले कर लेता है। बैठने वालों का भाग्य भी बैठ जाता है और खडे होने वाले का भाग्य भी खडा हो जाता है। सोने वाले का भाग्य भी सो जाता है, किंतु पुरुषार्थी, कर्मशील का भाग्य सदा गतिशील ही रहता है।
जीवन एक प्रयोग है, नित नए प्रयोग करते रहो, अनुभवों का विस्तार करो और नवजीवन, नवसृष्टि का सृजन करो। गिरकर उठना और उठकर पुनः अपने लक्ष्य की ओर चल पडना ही कामयाब जीवन का राज है। स्वामी विवेकानंद ने जीवन के सत्य को उद्घाटित करते हुए कहा है हम जैसा बोते हैं, वैसा काटते हैं। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं। हम अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं।
चलना ही जीवन है। बस, चलते ही रहो क्योंकि ठहराव जीवन में नीरसता, विराम व शून्य लाता है। आवाज लगाने पर भी यदि कोई सुनता नहीं है तो अपने लक्ष्य की ओर अकेले ही चले चलो। जहाँ गति नहीं है, वहाँ सुमति उत्पन्न नहीं हो सकती। जीवन की गति रुकने पर साँसों के थमने का सिलसिला शुरू हो जाता है। गीता में कहा है, व्यक्ति पृथ्वी पर अकेला ही आता है व अकेला ही जाता है। प्रगति के नाम पर आज जो कुछ हो रहा है- उससे मानव व्यथित है, समाज परेशान है, राष्ट्र चितिंत है। अपेक्षा है आज तक जो अतिक्रमण हुआ है, स्वयं से स्वयं की दूरी बढ़ाने के जो उपक्रम हुए है, उससे पलट कर पुनः स्वभाव की ओर लौटने की, स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की। जीवन शांति है, सुव्यवस्था है, समाधि है। अज्ञात की यात्रा है। विभाव से स्वभाव में लौट आने की यात्रा है। समाधि समाधानों का केन्द्र है। अतः अपनी सक्रिय ऊर्जा और जीवनी शक्ति को उपयोगी दिशा प्रदान करें। व्यक्ति जिस दिन रोना बंद कर देगा, उसी दिन से वह जीना शुरू कर देगा। यह अभिव्यक्ति थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक उत्साह का संगीत गुंजायमान कर देगी।
नैराश्य पर मनुष्य की विजय का सबसे बड़ा प्रमाण है आशावादिता और यही है जीत हासिल करने का उद्घोष। आशावादी होने के अनेेक कारण हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। पर निराशा के कारणों की सूची भी लंबी है, इसे भी नकारा नहीं जा सकता।
अच्छी बातंे भी रोज दिखने को मिलती हैं, नियमितता भी रोज मिलती है, शुद्धता भी कुछ अंशों में कायम है, सच्चाई और ईमानदारी के उदाहरण भी हमें याद दिलाने जितने मिल जायेेंगे उनको अभी कुछ लोग जी रहे हैं। फिर क्यों निराशा और अंधेरा ही जीवन की सच्चाई बना हुआ हैं? क्या आशा और रोशनी का सचमुच अकाल हो गया है? फिर क्यों नहीं अच्छाई एवं रोशनी की बात होती? क्यों नहीं हम नेगेटिविटी से बाहर आते? सत्य और ईमानदारी से परिचय कराना इतना जटिल क्यों होता जा रहा है? आज का जीवन आशा और निराशा का इतना गाढ़ा मिश्रण है कि उसका नीर-क्षीर करना मुश्किल हो गया है। पर अनुपात तो बदले। आशा विजयी स्तर पर आये, वह दबे नहीं। दार्शनिक डाॅ. राधाकृष्णन ने कहा है कि सबसे अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है, भले ही वह कितना ही कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में मेरी अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो, अजंता के चित्र हों, वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो, कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों, प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो… सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते, रंगों-रेखाओं, शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होता, तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी, थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है, उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव-नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाता, समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी-शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त है, सुंदर है, सार्थक और रचनामय है, वह सब जीवन दर्शन है। यह दर्शन ऐसे ही हैं जैसे एक सुंदर पुस्तक पर सुंदरतम पंक्तियों को चित्रित कर दिया गया। ये रोज-रोज के भाव की ही केन्द्रित अभिव्यक्तियां हैं। कोई एक दिन ही उत्सव नहीं होता। वह तो सिर्फ रोज-रोज के उत्सव की याद दिलाने वाली एक सुनहरी गांठ होता है। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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