आज देश में नई पार्टी का शासन चल रहा है। इसे सीधे शब्दों में टीकाधारी शासन भी कह सकते है जोकि एक ओबीसी के कंधे तले चलाया जा रहा है। ये वहीं टीकाधारी है जो महात्मा गांधी की हत्या को वध कहां करते है। ये वहीं टीकाधारी है जो कभी टीका टीप्पणी में महारत हासिल कर सिर्फ एक धोती तले जीने वाले महात्मा के लिए देशद्रोही का महिमामंडन किया करते थे। जितना त्याग गांधी ने किया था यह सोचनीय एवं विचारणीय प्रश्न है? गांधीजी का एक ही कसूर है वह सवर्ण नहीं थें। आज भी बिहार में फांसी पायें विक्टिमों का निरीक्षण किया जाये अथवा देश के तमाम हाईकोर्ट से लेकर विश्वविद्यालयों में तैनात कुलपतियों को देखा जाये तो यह सर्वण अवर्ण का गैप सहज ही अनुभव किया जा सकता है इसके इतर देश के तमाम बोर्डो के टाॅपरों का निरीक्षण किया जाये तब भी यह गैप योग्यता के पैमाने पर देखा जा सकता है।
देश आजाद हुआ और देश के तमाम अंग्रेज अधिकारी यहां से चले गये लेकिन अंग्रेजी आधारित शासन व्यवस्था को यहां छोड़ गये। जोकि भारतीय अंग्रेजी अल्प ज्ञानियों के हाथों आ गयी। बस क्या था ये अल्प ज्ञानी भाषा से बेबुझ जैसे का तैसा सिद्धान्त पर शासन करते आये। चोर चोर मौसेरे भाई वाली कहावत चरितार्थ होने लगी। चोर चोरी करते रहे और रखवाले उनसे घूस लेते रहे। देश में चोरी करने और रखवाली करने का प्रचलन चलता रहा। रखवाली करने वाले शासन स्तर पर जनता के लिए जिम्मेदार लोगों के लिए कोई भी समय सीमा और दायित्व नहीं तय किये गये क्योंकि ये सिस्टम के स्तम्भ थे और अंग्रेज अपने स्तम्भों पर कार्रवाई के करने को लेकर सर्वथ उदासीन थे खासकर के जन शिकायतों पर।
महात्मा गांधी ने एकबार अपने लिखित वक्तव्य में कहा था “याद रखना, आजादी करीब हैं। सरकारे बहुत जोर से यह जरूर कहंेगी कि हमने यह कर दिया, हमने वह कर दिया। मै अर्थशास्त्री नहीं हूँ, लेकिन व्यावहारिकता किसी भी अर्थशास्त्री से कम नहीं हैं। आजादी के बाद भी जब सरकार आएगी, तो उस सरकार के कहने पर मत जाना, इस देश के किसी हिस्से में एक किलोमीटर चल लेना, हिन्दुस्तान का सबसे लाचार, बेबस बनिहार (मजदूर) मिल जायेगा, अगर उसकी जिन्दगी में कोई फर्क नहीं आया तो उसी दिन, उसी क्षण के बाद उस समय चाहे किसी की सरकार हो उसका कोई मतलब नहीं।“ आजादी का जो सपना महात्मा गांधी ने दिखाया था, उस सपने के साथ में उन्हांेने दो सपने दिखाए थे ‘स्वाभिमान’ और ‘स्वरोजगार’ का। स्वरोजगार का सपना इसलिए दिखाया था, क्योकि स्वरोजगार के बिना स्वाभिमान जिन्दा नहीं रह सकता। आजादी मिली, लेकिन स्वाभिमान और स्वरोजगार का सपना पूंजीवादी सभ्यता और हमारी सरकार की भेंट कब चढ़ गया? पता ही न चला।
ईस्ट इंडिया कंपनी को चार्टर निर्गत होता है भारत के लियें। 20-20 साल के लिये इसे चार्टर (अधिकार पत्र) दिया जाता रहा। पहला चार्टर सन् 1600 में दिया गया। ब्रिटिश संसद में परिचर्चा के दौरान बिलियम फोर्स कहता है कि हमें भारत में फ्री ट्रेड करना है। और वह फ्री ट्रेड का अर्थ समझाते हुए कहता है कि हमें भारत में ऐसी नीति बनानी है कि यहां सिर्फ ब्रिटेन की वस्तुएं बिके। समूचे बाजार पर ब्रिटिश वस्तुएं काबिज हो। भारत का वैश्विक निर्यात उस समय लगभग 35 प्रतिशत हुआ करता था जब हम गुलाम थे और आज 0.01 प्रतिशत रह गया है। और आगे वह कहता है कि उसके लिये हमें भारत के कपड़ा, मसाला और स्टील उद्योगों पर जबरदस्त टैक्स लगाना होगा चूंकी यही उद्योग यहां की रीढ़ है। और अपने माल को टैक्स फ्री करना होगा। फिर पॉलीसी बनायी जाती है। जब ब्रिटिश संसद में फ्री ट्रेड की पॉलीसी को लेकर डिबेट चल रहा था तो विलियम फोर्स का प्रतिवाद करते हुए एक सांसद ने कहा की अगर हम 97 प्रतिशत इंकम टैक्स, सेल्स टैक्स, कस्टम एक्साइज, चुंगी नाका जैसे टैक्स लगायेंगे तो भारतीय व्यापारी मर जायेंगे तब विलियम फोर्स कहता है कि यही तो हम चाहते है कि या तो वे मर जायें या फिर बेईमान हो जाये। हमारे दोनो हाथों में लड्डू है। अगर वे बेईमान हो जायेंगे तब भी हमारे शरण में आ जायेंगे और यदी मरेंगें तो ना रहेंगे व्यापारी ना चलेगा यहां का व्यापार। इस तरह अंग्रेजों ने यहां विभिन्न प्रकार के टैक्स का कानून बनाकर यहां के उद्योग व्यवस्था को नष्ट किया। उन्होंने अपना फ्री ट्रेड चलाने के लिये यहां से फ्री कच्चा माल जोकि अंग्रेजों का ही था सारे जंगल अंग्रेजों के थे और वर्तमान की सभी सरकारी भूमि उस समय अंग्रेजों की थी अब उनके जाने के बाद सरकार की है को ले जाने के लिये ट्रेन चलाया। और ट्रेन के मालगाड़ी में लादकर पहले वे मुम्बई ले जाते और फिर मुम्बई से ब्रिटेन। हमारे यहां से कपास और स्टील के अयस्क सरीखे अन्य वस्तुएं अंग्रेज ले जाते रहे। और फिर वहां से माल तैयार कर यहां लाकर बेचते रहे। 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद यहां सीधे ब्रिटिश संसद का शासन हो गया। इतिहास गवाह है भारत के लाखों कपड़ा कारिगरों के हाथों को सिर्फ इसलिए काटा गया ताकि यहां का प्रसिद्ध कालीनधध्कपड़ा उद्योग नष्ट हो जाये। फिर स्टील उद्योग को नष्ट करने के लिये यहां इंडियन फॉरेस्ट एक्ट लगाकर स्टील के अयस्क को जंगलों से लेने के लिए मना कर दिया गया। और कानून बनाया गया कि स्टील के अयस्क को लेने वालों को 50 कोड़े लगवाये जाये और फिर भी वह नहीं मरे तो उसे गोली मार दी जाये।
1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली द्वारा निर्देशित लार्ड माउंट बेटन से हमारे देश के नेताओं ने डोमिनियन स्टेट के मेम्बर होने की तर्ज पर ब्रिटिश संसद में पास कानून इंडियन इंडिपेन्डेन्स एक्ट (http://www.legislation.gov.uk/ukpga/1947/30/pdfs/ukpga_19470030_en.pdf) के पारित होने पर आजादी ली। 1948 में अंग्रेजों की चालों को समझने वालें गांधीजी के मरने बाद ब्रिट्रेन में इंडिया कान्स्यूक्वेस्यिल प्रोविजन एक्ट (http://www.legislation.gov.uk/ukpga/1949/92/pdfs/ukpga_19490092_en.pdf) 1949 पारित किया गया। और फिर उसके बाद 26 जनवरी 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ।
भारत में वर्तमान में 5000 से अधिक विदेशी कंपनिया मौजूद है। अगर इतिहास के पन्नो में पीछे झांके तब वित्त मंत्रालय से लेकर रिजर्व बैंक के आंकड़े चिल्ला चिल्लाकर कह रहे है कि विदेशी निवेश और विदेशी कंपनियों से जितना भी पैसा भारत में आता है उससे कई गुना ज्यादा पैसे वे भारत से लेके जाती है। 1933 से भारत में कार्य कर रही हिन्दुस्तान युनीलीवर जोकि ब्रिटेन और हालैण्ड की संयुक्त कंपनी है ने मात्र 35 लाख रुपये से भारत में व्यापार शुरु किया था और उसी वर्ष यह 35 लाख से अधिक रुपया भारत से लेकर चली गयी। उसी तरह प्राॅक्टर एण्ड गैम्बल, फाइजर, गैलेक्सो, गुडईयर, बाटा सरीखी हजारों कंपनीयांे ने जितना निवेश किया उससे लगभग कई गुना उसी वर्ष भारत से वापस लेके चली गयी। जीरो टेक्नोलाॅजी की वस्तुओं के लिए विदेशी दरवाजे बंद होते तो हमारे मजदूरों की आज जो स्थिति है वह नहीं होती। उसकी मैनुफैक्चरिंग इंडियन करते तो हमारे रोजगार कई गुना बढ़ जाते। लेकिन आर्थिक गुलामी से भारत के स्वाभिमान का ग्राफ वैश्विक पटल पर गिरता जा रहा है। कर्जे पर कर्जे लेकर भारत की क्या स्थिति हो गयी है बताने की जरूरत नहीं।
2015 में अगर देखा जाये तो पुलिस वालों की हफ्तावसूली की सीमा नहीं। सरकारी मशीनरी लूट की फैक्टरी बन चुकी है। देश त्राही त्राही कर रहा है। महंगाई चरम पर है। रुपये की कीमत गिरती जा रही है। विदेशी ताकते अपने पैर फैलाते जा रहे है। आजादी के बाद की लूट की महागाथा का पक्का सबूत स्वीस बैंक में जमा पैसे के रूप में मौजूद है। क्या यही आजादी है। हमारे नेता स्वीस बैंक में अथवा विदेशी बैंकों में यहां के लूट को संजो रहे हैं। न्यायालयों, शासन के लेट लतीफी से आजीज आकर आज भी भारतीय गरीब, मजदूर अंग्रेजों के समय से ज्यादा लाचार, बेबस दिख रहे है। अपने ही देश के फुटपाथ पर अपने दुकान का हफ्ता देकर आज भी गरीब मजबूर है। पुलिसवालें आज भी उसी तरह लाठियां भाज रहे है जैसे अंग्रेजों के समय भाजा जाता था। फिर अन्तर क्या है। देश में गरीबों के बदबूदार झोपड़पट्टों की बढ़ती संख्या गवाही दे रही है कि हम कहा जा रहे है। झोपड़पट्टों को बांग्लादेशी और भीखमंगा करार देने वाले यूरोपीयन थिंकरों से मैं पूछता हूं विकसित देशों में झोपड़पट्टों की क्या स्थिति है उसे भी देख लें।
लेखक विकास कुमार गुप्ता, पीन्यूजडाटइन के सम्पादक है इनसे 9451135000, 9451135555 पर सम्पर्क किया जा सकता है।
