‘‘भइया, मेरा दिमाग तो बिल्कुल ठीक है, तुम्हारी स्मृति अवश्य कमजोर हो गई है। क्या तुम्हें याद नहीं कि अपना नववर्ष तो आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारम्भ हो रहा है।’’ मैंने मुस्कुराते हुए उसकी हँसी का जवाब दिया।
‘‘तुम्हारा मतलब वो पंडितों ज्योतिषियों वाला’’ वह फिर ठहाका मार कर हँसा। फिर हँसी को मुश्किल से रोकते हुए बोला- ‘‘तुम भी यार कौनसे जमाने में जी रहे हो। ये क्या है चैत्र शुक्ल प्रदि….., क्या कहा तुमने ? कौन मानता है ये सब ? अब छोड़ो ये सब पोंगापंथी…… दुनिया के साथ चलना सीखो।’’
‘‘अच्छा, तो तुम नहीं मानते इस भारतीय कलैण्डर को। भारत के बाहर का जो कुछ अच्छा है, उसे सीखना, अपनाना अच्छी बात है किन्तु दुनिया के साथ चलने के चक्कर में ठीक-गलत का विचार किए बिना अंधानुकरण…… क्या ये उचित है ?’’ मैंने राजेश को समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा।
‘‘अरे यार, यदि अंग्रेजी कलैण्डर ठीक नहीं होता तो प्रचलन में आता क्या ? सही है, तभी तो सब मानते हैं। मैं उनसे अलग थोडे़ ही हँू।’’
‘‘समस्या यही तो है ज्यादातर लोग मानते हैं तो सही ही होगा। ये सतही सोच, ये ही तो अंधानुकरण है। अच्छा तुम्हीं बताओ अपने यहाँ अंग्रेजों के आने के पूर्व ‘हैप्पी न्यू ईयर’ का अर्थ क्या रहा होगा ? क्या हम 1947 के बाद पूरी तरह से औपनिवेशिक मानसिकता से आजाद हो पाए हैं ?’’ राजेश पर प्रश्न दागते हुए मैं थोड़ा उत्तेजित हो गया।
‘‘तुम भी यार हर बात को भारत के इतिहास, अंग्रेजों की मानसिक गुलामी जैसी अवधारणाओं से जोड़ देते हो। पता है तुम्हारे जैसे लोगों की प्रॉब्लम यही है, तुम प्रगतिशील हो ही नहीं सकते, हमेशा अतीत के स्वप्निल संसार में खोए रहते हो। छोड़ो पुरानी बेकार बातों को, आधुनिक बनो मेरे भाई।’’ कुछ व्यंग्य ओर कुछ समझाने का अंदाज था राजेश का।
‘‘तुम्हारी बातों का मुझे बुरा नहीं लगता राजेश, क्योंकि दोष केवल तुम्हारा नहीं, संपूर्ण तंत्र का है। हम प्रगतिशील कहलाने के चक्कर में इतना तेज भाग रहे हैं कि स्वयं को जानने, बात करने का समय ही नहीं है। हमारे हृदय और मस्तिष्क में दूरी बढ़ती जा रही है। हम दोहरे व्यक्तित्व के शिकार हो चले हैं। भीतर से कुछ और बाहर से कुछ और। अच्छा तुम्हीं बताओ अपने घर में विवाह, गृह प्रवेश आदि जैसे शुभ कार्य अंग्रेजी कलैण्डर देखकर करते हो या भारतीय पंचांग ? होली, दीवाली, रक्षाबंधन और अन्य भारतीय त्यौहार अंग्रेजी कलैण्डर से मनाते हो या भारतीय पंचाग के अनुसार पूर्णिमा अमावस्या देखकर ? तुम क्यों पोंगापंथी होते हो यार ? केवल न्यू ईयर ही क्यों, अंग्रेजी कलैण्डर मानना है तो पूरा मानो ना!’’ मैंने राजेश की आँखों में झाँकते हुए कहा।
राजेश थोड़ा विचलित हुआ मेरी बातों से। उसके चेहरे पर असहजता के लक्षण साफ दिख रहे थे। उसने इस दोहरी मानसिकता के बारे में शायद पूर्व में कभी विचार भी नहीं किया था। फिर भी न हारने के अंदाज में स्वयं को सँभालते हुए बोला – ‘‘पर भाई जमाना विज्ञान का है, भारतीय कलैण्डर में सारा गड़बड़झाला है, कभी तिथि घट जाती है, कभी महीना ही बढ़ जाता है, अचूक तकनीकी के युग में ऐसा नहीं चल सकता मेरे मित्र। अंग्रेजी कलैण्डर को इसीलिए महत्व मिला है, क्योंकि वह विज्ञान सम्मत है, तुम्हीं बताओ ये सच नहीं है क्या ?’’
उसकी बातें सुनकर मैं अपनी हँसी नहीं रोक पाया। मेरी इस प्रतिक्रिया पर राजेश का चेहरा एक बड़े प्रश्नवाचक चिन्ह जैसा हो गया था। ‘‘क्या कुछ गलत कहा है मैंने’’ जैसे भाव मुझसे उत्तर की अपेक्षा कर रहे थे। मैंने सामान्य होने का प्रयास करते हुए राजेश के कंधे पर हाथ रखकर बोलना प्रारम्भ किया- ‘‘गलती तुम्हारी नहीं है राजेश। स्वतंत्रता के बाद सामान्य ज्ञान के नाते जो बात हर भारतीय को पता होनी चाहिए, वह कभी हमारी एज्यूकेशन पॉलिसी का अंग ही नहीं बन पाई। हमें यही बताया, पढ़ाया गया कि जो कुछ अच्छा है, विज्ञान सम्मत है, वह पश्चिम से ही आया है। लेकिन चलो आज हमारी चर्चा ने सत्य जानने की ओर एक कदम हमें बढ़ाया है। इस विषय पर प्रामाणिक जानकारी के लिए क्यूँ न प्रो. चांदोलिया के पास चला जाए जिनकी गिनती एस्ट्रोनॉमी केे सम्मानित विद्वानों में होती है एवं कालगणना पर उनका गहन शोध भी है।’’
राजेश को स्वयं की धारणाओं पर अब भी विश्वास था किन्तु प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने में हमारे संवाद से उसमें भी रूचि उत्पन्न हो गई थी। मैंने प्रो. चांदोलिया से फोन करके मिलने का अपाइंटमेंट लिया और तय समय के अनुसार हम दोनों उनकी प्रयोगशाला में पहुँच गए। भारतीय कलैण्डर को लेकर हमारी बातचीत को मैंने उन्हें विस्तार से बताना चाहा किन्तु वे दो वाक्यों में ही राजेश के मन की शंका को पहचान गए। प्रो. चांदोलिया ने गम्भीर स्वर में कहा- ‘‘अंग्रेजी कलैण्डर की मान्यता के पीछे राजनैतिक, कूटनीतिक एवं ऐतिहासिक कारण है, न कि वैज्ञानिक। समय या काल की गणना मात्र दो हजार सोलह वर्ष पुरानी नहीं है, सृष्टि के प्रारम्भ में मानव ने जब अपनी आँखें खोली तो आकाश में टँगे कलैण्डर को पहचाना। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों की गति में आवर्तिता को पहचाना और समय को मापना सीखा। दुनिया में सबसे प्राचीन कलैण्डर भारतीय है, भारतीय कालगणना का आरम्भ सृष्टि के प्रथम दिवस से माना जाता है, इसलिए इसे सृष्टि संवत कहते है। प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों ने, जिन्हें ऋषि कहा जाता था, वर्षों के दीर्घ अनुसंधान के पश्चात् खगोलीय गति की गणनाओं के माध्यम से एक सार्वकालिक सार्वभौमिक एवं जटिल ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया को सरल एवं ग्राह्य बनाने वाली कालगणना प्रस्तुत की, जिसने हमारे जैसे वैज्ञानिकों को सदैव ही चमत्कृत किया है।’’
राजेश विस्मय से आँखें फाड़कर प्रो. चांदोलिया को बोलते हुए सुन रहा था- ‘‘विश्व में प्रचलित ईस्वी सन् की कालगणना में केवल एक बात वैज्ञानिक है कि उसका वर्ष पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा में लगने वाले समय पर आधारित है, बाकी इसमें माह व दिन का दैनंदिन खगोल गति से कोई संबंध नहीं है, जबकि भारतीय गणना प्रतिक्षण, प्रतिदिन खगोलीय गति से संबंधित है।’’
राजेश विश्वास नहीं कर पा रहा था, बरसों से उसके मनमस्तिष्क में जमा धारणाएँ यँू खंडित होने को तैयार नहीं थीं। धारणाएँ तर्क रूप में राजेश के मुँह से बोलीं – ‘‘मुझे नहीं लगता दुनियाभर में ईस्वी सन् का चलन यूं ही हो गया होगा और फिर भारतीय संवत् का गड़बड़झाला, तिथि व मास बढ़ना-घटना इसे कोई कैसे वैज्ञानिक मान सकता है ?’’
प्रो. चांदोलिया हल्के से मुस्कुराए फिर राजेश को बताने लगे – ‘‘वर्तमान में जो ईस्वी सन् का चलन है उसका मुख्य आधार रोमन कलैण्डर है जो ईसा मसीह से 753 साल पहले प्रारम्भ हुआ था। उसमें 10 माह 304 दिन थे, उसी के आधार पर सितम्बर (ैमचजं) सातवाँ, अक्टूबर (व्बजं) आठवाँ, नवम्बर (छवअं) नवाँ तथा दिसम्बर (क्मबं) दसवाँ महीना था। 53 साल बाद वहां के शासक नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी व फरवरी जोड़कर 12 महीने 355 दिनों का रोमन वर्ष बना दिया। क्या तुम्हें नहीं लगता सितम्बर जो ैमचजं से बना है, नौवंे के स्थान पर सातवाँ, अक्टूबर जो व्बजं से बना है, दसवें के स्थान पर आठवाँ इसी प्रकार होने चाहिए ?’’
राजेश चकराया, उसने कभी इस प्रकार सोचा ही नहीं था। प्रो. चांदोलिया बताते जा रहे थे – ‘‘365 दिनों का रोमन वर्ष तो ईसा के जन्म के 46 साल पहले जूलियस सीजर ने किया था। इसके अलावा 1582 में 4 अक्टूबर को 14 अक्टूबर घोषित कर दिया गया। कोई माह 30, 31 या 28 दिन का है, इसका भी कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। अंग्रेजों के विश्व के एक बड़े हिस्से पर लम्बे समय तक राज एवं प्रभाव रहने से उनकी भाषा, भूषा, कलैण्डर को वैश्विक मान्यता मिलने का कारण उनका यह औपनिवेशिक इतिहास ही है। अंाग्ल कलैण्डर को हिसाब-किताब की व्यवस्था एवं वैश्विक समय नियमन की एक व्यवस्था जरूर माना जा सकता है, इस रूप में वह प्रचलित भी है, किन्तु इसे कालचक्र का गणित कहना गलत होगा। काल का वास्तविक मापन भारतीय कालगणना से ही हुआ है, जहां मापन की सूक्ष्मतम इकाई ‘त्रुटि’ जो सैकण्ड का 33750 वाँ भाग है, से लेकर वृहद्तम इकाई ‘महाकल्प’ जो 31,10,40,00,00,00,00,000 वर्ष है, तक की व्यवस्था है। जहाँ तक तिथियों एवं माह के घटने-बढ़ने का संबंध है तो यह पूर्णतः वैज्ञानिक है, क्योंकि भारतीय कालगणना सूर्य एवं चंद्र दोनों की गति पर आधारित है, अतः केवल चंद्र गति या केवल सूर्य गति पर आधारित पंचांगों सेे अधिक शुद्ध एवं सटीक है।’’
राजेश प्रो. चांदोलिया के कथनों से प्रभावित दिख रहा था, किन्तु उसके मन में अभी भी असमंजस था। प्रो. चांदोलिया ने उसे भांपते हुआ उदाहरण रूप में अपनी बात रखी – ‘‘देखो बेटा, ये तो स्थापित खगोलशास्त्रीय तथ्य है कि सूर्य 30.44 दिन में एक राशि को पार करता है। यह सौर महीना और ऐसे बारह महीनों का समय जो 365.25 दिन होते हैं, एक सौर वर्ष कहलाता है। चन्द्रमा का महीना 29.53 दिन का होता है, इस कारण चंद्र वर्ष 354.36 दिन का ही होता है। यह अंतर 32.5 माह के बाद एक चन्द्र माह के बराबर हो जाता है, जिसे समायोजित करने के लिए हर तीसरे वर्ष में एक अधिक मास होता है। वैसे यदि तुम संपूर्ण भारतीय कालगणना को समझना चाहो तो मुश्किल नहीं है, तिथि, वार, नक्षत्र, माह, वर्ष, युग, क्षय मास, क्षय तिथि, अधिक तिथि, राशि, पक्ष, ग्रहण, ऋतु, अयण आदि संकल्पनाएँ नितांत ही वैज्ञानिक एवं अपने पूर्वजों के ज्ञान के प्रति अभिमान पैदा करने वाली है। इस विषय पर कभी हम अलग से चर्चा कर सकते है।’’
प्रो. चांदोलिया की विद्वता एवं गहराई से मैं तो प्रभावित था ही, राजेश की पुरानी धारणाएं श्री भरभरा कर गिरने लगी थीं। राजेश का मन उठने का नहीं हो रहा था, वह आज अपनी जड़ों के बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था।
कालचक्र की गति में इस मुलाकात की अवधि समाप्ति की ओर थी, प्रो. चांदोलिया से मिलने का समय पूर्ण हो चुका था। मैंने राजेश को संकेत किया किन्तु उठते उठते उसने एक प्रश्न फिर भी पूछ ही लिया- ‘‘स्वतंत्रता के बाद हमने भारतीय कलैण्डर क्यूँ नहीं अपनाया, हमें कौन रोक रहा था ? प्रो. चांदोलिया फिर परिचित मुस्कान के साथ बोले- ‘‘यही तो तुम्हें सोचना है, तुम्हें कौन रोकता है। इस प्रश्न का उत्तर तुम्हारी जैसी युवाशक्ति के पास से ही आना है। इतिहास को जानो, भारत को पहचानो और जो गलतियाँ हुई हैं, उन्हें सुधारने में अपने भूमिका तय करो।’’ हमने प्रो. चांदोलिया से प्रणाम कर विदा ली। मैं उनके घर से निकलते समय राजेश के कदमों में गजब की दृढ़ता महसूस कर रहा था। सुबह का भूला शाम से पहले ही अपनी जड़ो की ओर संकल्पित कदम बढ़ा रहा था।
– डा. नारायण लाल गुप्ता,
व्याख्याता भौतिक शास्त्र
सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय
