क्या ऐसे ही डऱ कर मौत को गले लगाते रहेगें पत्रकार

3 मई- विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस विशेष

रेणु शर्मा
रेणु शर्मा
हाल ही में हरियाणा के फरीदाबाद में एक महिला पत्रकार पूजा तिवारी ने आत्महत्या कर अपनी जान दे दी । आखिर ऐसी क्या मजबूरी रही होगी जिनके कारण पूजा को ऐसा कदम उठाना पड़ा। सूत्रों के अनुसार पूजा दबंग और निर्भीक पत्रकार थी जिसने कन्या भ्रूण हत्या रैकेट का पर्दाफास किया, जिसके कारण वह परेशान रहने लगी थी क्योंकि इस रैकेट के खुलासे के बाद से ही पूजा पर राजनितिक दबाव बनाया जा रहा था। पूजा के वकील के अनुसार पूजा पिछले कुछ दिनों से परेशान थी वह पुलिस सिस्टम को बेईमान और बिकाउ बता रही थी और सरकार के नेताओं और मंत्रियों को भला बुरा कह रही थी। पूजा को आत्महत्या के लिये मजबूर करने वाले पुलिस सिस्टम, कन्या भ्रूण हत्या करने वाले रैकेट और राजनितिक संरक्षण को जल्द ख़त्म नहीं किया गया तो न जाने कितनी पूजा जैसी पत्रकार को आत्महत्या करने के लिए विवश होंना पड़ेगा। भाजपा सरकार में उसके नेताओं का, कन्या भ्रूण हत्या करने वाले गैंग के साथ गठजोड़ होना भाजपा के मुंह पर तमाचा है, पूजा की मौत के जिम्मेदार डॉक्टर, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं को क्या सजा मिलेगी जो इस झूठे मामले में शामिल रहे हंै।
लेकिन अभी अहम मुद्दा ये हैं कि ऐसी क्या मजबूरी थी जिनके कारण पूजा को आत्महत्या करनी पडी ? मरने से पहले उसने सुसाइड नोट क्यों नहीं लिखा ? पुलिस सिस्टम को बईमान और बिकाउ क्यों बताया ? कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, हत्या, घपले-घोटाले, अवैध खनन आदि घटनाओं को उजागर कर आरोपी को जनता के सामने लाकर बेनकाब करने वाले पत्रकारों के साथ में ऐसा ही होता हैं क्योकिकन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, हत्या, घपले-घोटाले, अवैध खनन जैसे मामले में पुलिस अधिकारियों से लेकर राजनेताओं की मिली भगत होती हैं और ये अपनी पहुंच एंव पॉवर के चलते ऐसे घपलों को उजागर कर उनके काम में व्यवधान करने वालो पत्रकारों को पैसा देकर खरीदने की कोशिश करते हैं, जब पत्रकार नही बिकता तो उसे यातनाये देने लगतें हैं कि मजबूर होकर वो उनकी बात मान लेगा कुछ ईमानदार और साहसी पत्रकार उनकी बातों को नहीं मानते तो उनको मरवा दिया जाता हैं या परेशानियों से दुखी होकर उन्हे खुद अपनी मौत को गले लगाना पड़ता हैं। इसी कारण पत्रकारों की सिलसिलेवार हत्याएं तथा मारपीट जैसी घटनाएँ घट रही हैं, आखिर इन घटनाओं की छानबीन क्यों नहीं होती। आखिर क्यों इन घटनाओं में संलिप्त अरोपियों के आरोपों की जांच में लगे आफिसरों की ही रिपोर्ट को सही मान लिया जाता है, जिसके बारे में जगजाहिर है कि वह अपने दोषी अधिकारियों तथा सत्ता पक्ष के नेताओं के खिलाफ रिपोर्ट देना तो दूर अपना मुंह तक नहीं खोलतेे, फिर इन्हीं अधिकारियों से क्यों दोषियों की जांच कराई जाती हैं।
यह सही है कि किसी की अभिव्यक्ति पर आपकी असहमति हो सकती है परन्तु आप उसे मानने या न मानने के लिए भी तो स्वतंत्र है, लेकिन विरोधी स्वर को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर देने या दूसरों पर अपनी सोच जबरन थोपने की इजाजत किसी भी धर्म में नहीं है, परंतु सब हो रहा हैं कुछ दलाल, ब्रोकर व लाइजनिंग में जुटे पत्रकारों को छोड़ दे तों ऐसे पत्रकारों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि हजारों में है, जो हर तरह के असामाजिक तत्वों की पोल अपनी कलम के जरिए उजागर करते है और हर वक्त लालफीताशाही से लेकर नेता, माफिया व पुलिस के निशाने पर रहते है। बात आंकड़ों की किया जाएं तो पत्रकारों के साथ होने वाली घटनाओं की संख्या हाल के दिनों में बड़े पैमाने पर बढ़ी है।
पत्रकारिता के लिहाज से देखा जाये तो पत्रकारिता एक जोखिम भरा काम है खबर बनाने वाला पत्रकार खुद सबसे बड़ी खबर है, लेकिन उसकी अपनी खबर, किसी अख़बार की सुर्खी नहीं बनती, वो दूसरों को सुखिऱ्यों में लाता हैं खबर के चक्कर में खुद भूखा रहता है लेकिन खबर लिखता हैं। चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिये हर घटना पर सबसे पहले जाता हैं । घपलों-घोटालों, बलात्कार के आरोपियों, खनन आदि में संलिप्त बाहुबलियों व सरकारी खजानों को लूटने वाले सफेदपोशों के काले कारनामों को जनता के सामने रखने वाले पत्रकारों को अकसर खरीदने की कोशिश की जाती हैं, उन्हे लालच दिया जाता हैं फिर भी यदी पत्रकार नही बिकता तो उसे लूट, हत्या, मारपीट, फर्जी मुकदमों में फंसा दिया जाता हैं। वास्तविकता यह हैं कि पत्रकार से समाज को बहुत अपेक्षाए हैं वह किसी मजहब-जाति का नहीं बल्कि वह समाज में व्याप्त कुरीतियों, बुराईयों का दुश्मन है, लेकिन अफसोस हैं कि इन कुरीतियों व काले कारनामों के ठेकेदार बोली का जवाब बोली से देने के बजाएं बुलेट या अपनी ओछी हरकतों से देते है। लालफीताशाही आफिसर अपने पद का दुरुपयोग कर पत्रकारों का उत्पीडऩ करते है। पत्रकार की खबर ही उसकी जान की दुश्मन बन चुकी हैं। ऐसा लगता है कलम की ताकत बंदूक और लालफीताशाही के उत्पीडऩात्मक रवैये से कहीं ज्यादा है।
् कुछ लोग खुद को स्थापित करने लिए तो कुछ व्यापारिक घराने अपनेकाले कारनामों को छिपाने के लिये मीडिया का रास्ता चुनते हैं, जिन्हे पत्रकारिता की परिभाषा तक नहीं आती वो पैसों के बल पर अपना चैनल तक आरम्भ कर देते हैं लेकिन पैसों के दम पर पत्रकारिता नही कि जा सकती ऐसे चैनल कुछ समय पश्चात बन्द हो जाते हैं वहीं कुछ लोग सोशल मीडिय़ा जैसे वेबपोर्टल या वेब चैनल बनाकर भी मीडिया में आने लगे है जिससे पत्रकारिता का स्तर गिरने लगा हैं क्योकि उनका उद्देश्य पैसा कमाना होता हैं सभी जानते हैं कि ईमानदारी से दाल रोटी का जुगाड़ हो सकता हैं फाईव स्टॉर होटलों में खाने का नहीं। वहीं कलम के धनी कुछ लोग चंद पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर समाज के प्रति अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। सत्य को स्वीकारना इतना आसान नहीं होता है और इसीलिए कुछ लोग सत्य उजागर करने वाले से बैर रखते हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोग मीडिया में अपना सब कुछ दाव पर लगाकर भी इस रास्ते को ही चुनते हैं और अफ़सोस की फिर भी उनकी वह पूछ नहीं होती, जिसके की वे हक़दार होते हैं।
मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इस आज़ादी में बिना किसी दख़लंदाजी के अपनी राय कायम करने तथा किसी भी मीडिया के जरिए, चाहे वह देश की सीमाओं से बाहर का मीडिया हो, सूचना और विचार हासिल करने और सूचना देने की आज़ादी शामिल है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुछेद 19 में किया गया है। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की आज़ादी बहुत कमज़ोर है। एक तरफ़ प्रेस जहाँ जनता का आइना होता है, वहीं दूसरी ओर प्रेस जनता को गुमराह करने में भी सक्षम होता है इसीलिए प्रेस पर नियंत्रण रखने के लिए हर देश में अपने कुछ नियम और संगठन होते हैं, जो प्रेस को एक दायरे में रहकर काम करते रहने की याद दिलाते हैं। प्रेस की आज़ादी को छीनना भी देश की आज़ादी को छीनने की तरह ही होता है। चीन, जापान, जर्मनी, पाकिस्तानजैसे देशों में प्रेस को पूर्णत: आज़ादी नहीं हैं इस लिहाज से हमारे यहंा हालत ठीक है। आज मीडिया के किसी भी अंग की बात कर लीजिये, हर जगह दाव-पेंच का असर है। खबर से ज्यादा आज खबर देने वाले का महत्त्व हो चला है। लेख से ज्यादा लेख लिखने वाले का महत्तव हो गया है।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर हम मंाग करते हैं कि जब लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ कार्यपालिका, न्यायपालिका एंव विद्यायिका को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं तो फिर लोकतन्त्र के चोथा स्तम्भ पत्रकारिता को भी सरकार की तरफ से सुरक्षा दी जानी चाहिये। यदी कोई मीडिय़ाकर्मी आत्महत्या करता हैं या उसकी हत्या करवा दी जाती हैं तो उसकी जॅाच विशेष जॉच ऐजेन्सी से करवायी जानी चाहिये ऐसा करने से पत्रकार निष्पक्ष पत्रकारिता कर पायेगा।
रेणु शर्मा
संपादक गीतंाजलि पोस्ट
Journalist.renu1@gmail.com

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