मेवाड़-मुकुट मणि महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ असाधारण पहलू-

maharana_Pratapदानवीर भामाशाह का त्याग—
मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये किन्तु वो सफल नहीं हो सका। निरंतर सघर्ष के कारण महाराणा की आर्थिक हालत दिन-प्रतिदिन कमजोर होती गई एवं एक बार तो वो विचलित भी हो गये |विपत्तियों के इन क्षणों में भामाशाह ने अपने जीवन की सारी कमाई को राणाप्रताप को अर्पित कर मेवाड़ की रक्षा हेतु लड़ाई चालू रखने का निवेदन किया | भामाशाह की यह आर्थिक सहायता लगभग 25000 राजपूतों की सेना के 12 साल तक का वेतन और निर्वाह के लिए पर्याप्त थी|अपनी दानशीलता के लिए भामाशाह भी इतिहास पुरुष बने इसीलिये आज भी कई राज्यों में उनके नाम से जन कल्याणकारी योजनायें चला रहें हैं|

महाराणा प्रताप के विद्रोही भाई शक्तिसिंह द्वारा राणा प्रताप की सुरक्षा

महाराणा प्रताप का प्राण प्रिय घोड़ाचेतकभी युद्ध में जख्मी हो गया था।हल्दीघाटी के युद्धमें घायल होने के बाद राणाप्रताप बिना किसी सहायक के अपने पराक्रमी चेतक पर सवार होकर पहाड़ की ओर चल पड़े। दोमुग़लसैनिक घात लगाकर उनका पीछा कर रहे थे,परन्तु चेतक ने प्रताप को बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे लाँघ गया,परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक नाला तो लाँघ गया,पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा मेवाड़ी बोली में आवाज़ सुनाई पड़ी- “हो,नीला घोड़ा रा असवार।” प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह कोई अन्य नहीं किन्तु उनका विद्रोही भाई शक्तिसिंह था। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध की वजह से वो अकबर की शरण ले चूका था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से युद्ध कर रहा था। जब शक्तिसिंह ने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा,और उसने दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचा दिया तथा महाराणा प्रताप के प्राणों की रक्षा की।

डा. जे. के. गर्ग
डा. जे. के. गर्ग
जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहे थे,चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है,जहाँ पर स्वामी भक्त चेतक मरा था। प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट गये। सलीम को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, “मेरे भाई के कन्धों परमेवाड़राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।” सलीम ने अपना वचन निभाया,परन्तु सलीम ने शक्तिसिंह को अपनी सेवा से मुक्त कर दिया।

झाला सरदार का बलिदान

हल्दीघाटी का युद्ध अत्यन्त घमासान हो गया था। एक समय ऐसा आया जब शहजादा सलीम पर राणा प्रताप स्वयं आक्रमण कर रहे थे,दोनों लहूलुहान हो गये थे,इस द्रश्य को देखकर कर हजारों मुगलसैनिक सलीम की रक्षा करने हेतु उसी तरफ़ बढ़े और राणाप्रताप को चारों तरफ़ से घेर कर उन पर प्रहार करने लगे। राणाप्रताप के सिर परमेवाड़का राजमुकुट लगा हुआ था अत:मुगलों ने मिलकर उन्हीं को निशाना बना लिया था वहीं दुसरी तरफ राणाप्रताप के रणबाकुरें राजपूतसैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए अपने प्राण को हथेली पर रख कर संघर्ष कर रहे थे। दुर्भाग्यवश प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को भांपते हुए झाला सरदार मन्नाजीने स्वामिभक्ति का एक बेमिसाल आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ युद्ध भूमी में सैनिकों को चीरते हुए आगे बढे और राणाप्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर मुगलों से घमासान युद्ध करने लगे।मुगलों ने झाला सरदार मुन्नाजीको ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े इस तरह राणाप्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उनका सारा शरीर असंख्य घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से लोटते समय राणाप्रताप मेवाड़ के वीर मन्नाजी को अपने प्राणों की आहुती देते देखा। इस युद्ध में नगण्य संख्या में मोजूद राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का सामना किया,परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने उनका समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये। इतिहास के पन्नों में झाला सरदार मुन्नाजी का बलिदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा|

संकलनकर्ता डा. जे. के गर्ग
सन्दर्भ—गूगल सर्च,विभिन्न पत्रिकाएँ,सरकार,जदुनाथ (1994).A History of Jaipur: c. 1503 – 1938�,आइराना भवन सिंह (2004).महाराणा प्रताप– डायमंड पोकेट बुक्स.pp.28,आदि
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