ज़कात फर्ज है। उसकी फरजीयत का इन्कार करने वाला काफिर और न अदा करने वाला फासिक और अदायगी में देर करने वाला गुनहगार मरदूदुश्शहादत है। चन्द शर्ते है। मुसलमान आकिल बालिग होना, माल बकदरे निसाब का पूरे तौर पर मिलकियत में होना, निसाब का हाजते अस्लीया और किसी के बकाया से फागि होना मालेतिजारत या सोना चांदी होना है और माल का पूरा साल गुजर जाना। सोने का निसाब साढ़े सात तोला है जिसमें चालीसवां हिस्सा यानी सवा दो माशा जकात फर्ज है और चांदी का निसाब साढ़े बावन तोला है जिस में एक तोला तीन माशा छ: रत्ती जकात फर्ज है।
सोना चांदी के बजाय बाजार भाव से उनकी कीमत लगा कर रुपया वगैरहा देना भी जायज है। सोना-चांदी के जेवरात भी जकात वाजिब होती है। तिजारती माल की कीमत लगाई जाए फिर उससे सोना चंादी का निसाब पूरा हो तो उसके हिसाब से जकात निकाली जाए। अगर सोना चांदी न हो और न माले तिजारत हो तो कम से कम इतने रुपये हो कि बाजार में साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोना खरीजा जा सके तो उन रुपयों की जकात वाजिब होती है।
जिन्दगी बसर करने के लिए जिस चीज की जरुरत होती है जैसे जाड़े और गर्मियों में पहनने के कपड़े, खानादरी के सामान, पेशावरों के औजार और सवारी के लिए साइकिल और मोटर वगैरहा यह सब हाजते अस्लीया में से है इनमें जकात वाजिब नहीं। डिजाइन योर करियर इन इनोवेशन
मालिके निसाब पर किसी का बाकी न हो या इतना हो कि अगर बाकी अदा कर दे तो भी निसाब बचा रहे तो इस सूरत में जकात वाजिब है और अगर बाकी इतना हो कि अदा कर दे तो निसाब न रहे तो इस सूरत में जकात वाजिब नहीं। हाजते अस्लीया से जिस तारीख को पूरा निसाब बच गया उस तारीख से निसाब का साल शुरु हो गया फिर साले आइन्दा अगर उसी तारीख को पूरा निसाब पाया गया तो जकात देना वाजिब है। अगर दरमियाने साल में निसाब की कमी हो गयी तो यह कमी कुछ असर न करेगी।
गेहूं, जौ, ज्वार, बाजरा, धान और हर किस्म के गल्ले और अल्सी, कुसुम, अखरोट, बादाम और हर किस्म के मेवे, रुई, फूल, गन्ना, खरबूजा, तरबूज, खीरा, ककड़ी, बैंगन और हर किस्म की तरकारी सब मेें उश्र वाजिब है।
जो पैदावार बारिश या जमीन की नमीं से हो उसमें दसवां हिस्सा वाजिब होता है और जो पैदावार चरसे डोल, पम्पिंग मशीन या ट्यूबवेल वगैरहा के पानी से हो या खरीदे हुए पानी से हो उसमें बीसवां हिस्सा वाजिब होता है।
सरकार को जो माल गुजारी दो जाति है वह रकम उश्र से मुजरा नहीं की जाएगी। अगर जमीन बटाई पर दी तो उश्र दोनों पर वाजिब है।
उश्र का माल उन लोगों को दिया जाता है जो फकीर यानी वह शख्स कि जिसके पास कुछ माल है लेकिन निसाब भर नहीं, मिसकीन यानि वह शख्स कि जिसके पास खाने के लिए गल्ला और बदन छिपाने के लिए कपड़ा भी न हो, कर्जदार यानी वह शख्स जिसके जिम्मा कर्ज हो और उसके पास कर्ज से फाजिल कोई माल बकदरे निसाब न हो, मुसाफिर जिसके पास सफर की हालत में माल न रहा उसे जरुरत भर को जकात देना जायज है। जिन लोगों को जकात देना जायज नहीं उनमें मालदार यानी वह शख्स जो मालिके निसाब हो, बनी हाशिम यानि हजरते अली, हजरते जाफर, हजरते अकील और हजरते अब्बास व हारिस बिन अब्दुल मुत्तलिब की औलाद को देना जायज नहीं। अपनी नस्ल और फरा यानी मां, बाप, दादा, दादी, नाना-नानी वगैरह और बेटा, बेटी, पोता-पोती, नवासा, नवासी को जकात देना जायज नहीं।
औरत अपने शौहर को और शौहर अपनी औरत को अगरचे तलाक दे दी हो जब तक की इद्दत में हो जकात नहीं दे सकता। मालदार मर्द के नाबालिग बच्चे को जकात नहीं दे सकता और मालदार की बालिग औलाद को जबकि मालिके निसाब न हो दे सकता है।
वहाबी या किसी दूसरे मुरतद बद मजहब और काफिल को जकात देना जायज नहीं। सैयिद को जकात देना जायज नहीं इसलिए कि भी बनी हाशिम में से है। जकात का माल मस्जिद में लगाना, मदरसा तामीर देना या उससे मैयित को कफन देना या कुआं बनवाना जायज है यानि अगर इन चीजों में जकात का माल खर्च करेगा तो जकात अदा न होगी। जो लोग अपने आपको खानदानी फकीर कहते है अगर वह लोग साहिबे निसाब हो तो उन्हें जकात और उश्र देना जायज नहीं।
जकात और सदकात में अफजल यह है कि पहले अपने भाई-बहनों को दे फिर उनकी औलाद को फिर चचा और फूफियों या फिर उनकी औलाद को फिर मामू और खाला को फिर उनकी औलाद को फिर दूसरे रिश्तेदारों को फिर पड़ोसियों को फिर
अपने पेशा वालों को फिर अपने शहर या गांव के रहने वालों और ऐसे तालिबे इल्म को भी जकात देना अफजल है जो इल्मेदीन हासिल कर रहा हो बशर्ते कि यह लोग मालिके निसाब न हो।
-एस. एफ. हसन चिश्ती
