हिन्दी सिनेमा में उर्दू भाषा और इकबाल का कलाम

Iqbalसिनेमा या हिन्दी सिनेमा में ऊर्दू भाषा पर चर्चा करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर सिनेमा है क्या? अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार,
1. Cinema is a place where people go to watch films for entertainment,
2. Cinema is the business and art of making films

उक्त दोनों परिभाषाओं से यह समझ में आता है कि सिनेमा एक कारोबार है और ऐसा कारोबार है जिसके द्वारा लोगों का ना केवल मनोरंजन किया जा सकता है अपितु कला की खिदमत और हिफाज़त भी की जा सकती है। इसे उर्दूभाषा में यूँ कहा जा सकता है कि फिल्म वह है जहाँ तमाम फनून यकजा हो अर्थात सभी कलायें सम्मिलित हो यानि रक़्स (डांस) मौसकी (संगीत), शायरी (काव्य), मुस्व्विरी (चित्रकारी) और ड्रामा (रंगमंच) आदि इन सबके मिश्रण को ही फिल्मों का नाम दिया जा सकता है।
हमारे देश में फिल्मों के आरम्भ से पहले ही विदेशों में इसका आगाज़ हो चुका था और 1830 से ही फिल्में बननी शुरू हो चुकी थी किन्तु भारत में बाकायदा 1913 में फिल्में बनने शुरू हुई। शुरू में मूक फिल्में बनती थी अतः पहली मूक फिल्म थी ’राजा हरिशचन्द्र’ और दादा साहेब फाल्के ने इस फिल्म का निर्माण किया था। मजेदार बात यह थी कि उस समय फिल्मों में औरतों के किरदार भी पुरूष अदा करते थे क्योंकि उस समय औरतों का फिल्मों में काम करना सामाजिक दृष्टि से अच्छा नहीं समझा जाता था तकरीबन 1931 के आसपास पहली नातिक फिल्म यानि बोलती फिल्म आलम आरा का निर्माण हुआ जिसे 14 मार्च 1931 को बम्बई के एक सिनेमाघर में प्रदर्शित भी किया गया और इस प्रकार हिन्दी सिनेमा का वो सफर प्रारम्भ हुआ जो आज तक निरन्तर जारी है,…
जहाँ तक उर्दू भाषा का प्रश्न है तो यह कहा जा सकता है कि उर्दू भाषा और हिन्दी सिनेमा एक दूसरे के पर्याय ही नहीं है अपितु वह आपस में इस प्रकार जुड़े हैं कि इन्हें अलग करके देखा ही नहीं जा सकता है। प्रारम्भ से ही उर्दू भाषा का फिल्मों में किसी न किसी रूप में प्रयोग होता रहा है फिर चाहे वह शायरी हो, या कहानी या फिर संवाद लेखन जिस ज़माने में थियेटर का काफी चलन था उस समय में उर्दू भाषा के ज्यादातर कवि और कहानीकार थियेटर से जुड़े हुए थे जिन्हें ’’मुन्शी’’ कहा जाता था, जब फिल्मों का उदय हुआ तो थियेटर पर सन्नाटा छा गया और थियेटर से जुड़े ज्यादातर लोग भी फिल्मों में शामिल हो गये। आगा हशर काशमिरी और इम्तियाज़ अली ताज और दूसरे बहुत से पारसी हज़रात इसका जीवन्त उदाहरण हैं। इसलिये कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा और उर्दू भाषा का अटूट रिश्ता है। क्योंकि वही ’’मुन्शी’’ अब फिल्मों में स्क्रिप्ट राईटर या संवाद लेखक बन चुके थे। बहुत से फिल्मों के लिये कहानी और गीत लिखने लगे थे फिल्मों से हर कौम और मजहब के लोग जुड़े हुए थे किन्तु सभी के लिये उर्दू भाषा सीखना चाव ही नहीं अपितु आवश्यकता बन चुकी थी यहां तक कि जब दिलिप कुमार ने मशहूर गायिका लता मंगेशकर के उच्चारण पर आपत्ति की तो लता जी ने बाकायदा टीचर रख कर उर्दू भाषा सीखी थी और यह परम्परा आज भी कायम है फिल्म इंण्डस्ट्री में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कलाकारों को उर्दू सिखाते हैं संवाद अदायगी और गीतों के बोलों के सही उच्चारण सिखाते हैं तमाम गायक बिना उर्दू भाषा के सही उच्चारण के बगैर अपने गाने को अधूरा मानते हैं। जितने भी बड़े फिल्मकार और कलाकार हैं वह सभी उर्दू भाषा के जाने-माने शायर और अदीबो से ना सिर्फ उस जमाने में जुड़े थे बल्कि आज भी उनके साथ काम करते हैं। उर्दू भाषा में भी बहुत सी पत्रिकायें थी जिनमें फिल्मों की खबरे आती थी जिनमें मासिक पत्रिका ’’शमा’’ सर्वोपरि थी। इसके अलावा अन्य पत्र-पवत्रिकाओं में रूबी, कहकशा, रंग बिरंग, संडे एडवांस और फिल्म वीकली आदि सम्मिलित हैं। प्रारम्भ में फिल्म सेंसर बोर्ड में भी सर्टीफिकेट उर्दू भाषा में ही दिया जाता था। अतः कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा की तरक्की में उर्दू भाषा का अहम हिस्सा है और हिन्दी सिनेमा उर्दू भाषा के बिना अधूरा है। फिल्मों में उर्दू भाषा की कहानी के साथ-साथ सबसे ज्यादा उर्दू के गीतों और शायरी ने धूम मचाई और फिल्मों की लोकप्रियता को बढ़ाया। गीतों के साथ-साथ कव्वालियां भी आम लोगों में बहुत पसंद की गई, हिन्दी सिनेमा के बहुत से मशहूर नायक-नायिकाओं ने उर्दू भाषा में बहुत अच्छी शायरी तक की है जिसमें मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी का नाम लिया जा सकता है।
बहरहाल जिस प्रकार से आम शायर या गीतकारों के कलाम को फिल्मों में लोकप्रियता प्राप्त हुई वहीं उर्दू के नामवर और काबिल शायरों जैसे मिर्जा गालिब, दाग देहलवी, जिगर मुरादाबादी, हसरत जयपुरी, बहादुर शाह जफ़र, अमीर खुसरो, कुली कुतब शाह, फानी, मजाज़, कैफी आज़मी, कमर जलालाबादी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूनी आदि के काव्य को भी सम्मिलित किया गया इन्हीं शायरों में अल्लामा सर मुहम्मद इकबाल का नाम भी शामिल है। इकबाल उर्दू के काफी नामवर और लोकप्रिय शायर हैं उनकी शायरी फलसफयाना शायरी है। इकबाल ऐसे पहले इन्सान थे जिसने दुनिया के तमाम फलसफियों का अध्ययन किया है। उनकी शायरी फलसफयाना भी है मजह़बी भी है तो उसमें वतन परस्ती भी है इश्क भी है और इन्सानियत भी। इकबाल ने खुदी का फलसफा भी प्रस्तुत किया है।
खिरदमन्दो से क्या पूछो के मेरी इब्तदा क्या है
के मैं इस फ्रिक में रहता हूँ मेरी इन्तेहा क्या है।
खुदी को कर बुलन्द इतना के हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।
इक़बाल अपने कलाम से हिन्दी सिनेमा में भी काफी लोकप्रिय हुए सबसे पहले फिल्म ’सुखी जीवन में’’ (1942) में इकबाल की मशहूर नज़म को शामिल किया गया जिसके मौसीकार सी रामचन्द्र थे और फिल्म के हिदायतकार दादा भगवान और हरिशचन्द्र थे ये नज़्म तमाम हिन्दुस्तान में इतनी मशहूर हुई के आज भी बच्चे बच्चे की जबान पर इसके बोल हैं…
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलस्तिा हमारा।
इसके ठीक दो साल बाद लगभग 1944 में फिल्म इस्मत में इकबाल की एक और नज़्म शामिल की गई जो प्रार्थना या दुआ है –
लब पे आती है दुआ बनके तम्मना मेरी
जिन्दगी शमा की सूरत हो खुदाया मेरी…
1947 में फिल्म ’’आबदा’’ में तनवीर नकवी और अजीज मीनाई के साथ इकबाल के भी दो गीतों को सम्मिलित किया गया था जो उनकी मशहूर नज्म ’’शिकवा’’से लिये गये थे हिन्द पिक्चर्स की इस फिल्म के निर्देशक थे ऩजीर और संगीतकार थे अल्ला रखा कुरेशी दोनों गीतों के बोल इस प्रकार हैं –
1. कौनसी कौम फक़त तेरी तलब गार हुई…
2. हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे…
1955 में फिल्म आबे हयात में भी इकबाल ने गीत लिखे थे ऐसी बहुत सी फिल्में है जिनमें इकबाल का तराना-ऐ-हिन्दी गाया जाता था। भाई बहन, गुलिस्ता हमारा है, और हमारा घर भी उन्हीं फिल्मों में से है। ऐसी बहुत सी फिल्में है जिनके गीतों में शायरों ने अल्लामा इकबाल की शायरी से मिसरे लेकर गीत लिखे हैं इनमें साहिर लुधियानवी ने फिल्म फिर सुबह होगी में गीत लिखा –
चीन व अरब हमारा हिन्दुस्तान हमारा
रहने को घर नहीं सारा हिन्दुस्तान हमारा।
पहला मिसरा इकबाल की नज़्म का है इसी प्रकार से फिल्म काबुली वाला के मशहूर गीत-
ऐ मेरे प्यारे वतन में तू ही मेरी आरजू तू ही मेरी जुस्तुजु इकबाल की नज्म का ही मिसरा है। 1972 में दास्तान फिल्म का गीत-
’’ना तो जमींन के लिये है ना तो आसमान के लिये
तेरा वजूद है अब सिर्फ दास्तान के लिये।’’
इसका पहला मिसरा भी इकबाल की जऩ्म का है। आशा भौंसले ने संगीतकार ओ.पी. नय्यर के लिये गाये एक गाने की शुरूआत इन अशआर से की है –
अनोखी वजअ है सारे जमाने से निराले हैं
ये आशिक कौनसी बस्ती के यारब रहने वाले हैं
फला फूला रहे यारब चमन मेरी उम्मीदों का
जिगर का खून दे दे के ये बूटे मैंने पाले हैं।
इसी प्रकार से एक और फिल्म आबे हयात के एक गीत में आशा जी ने इकबाल का यह शेयर पढ़ा है।
नशा पिला के गिराना तो सब को आता है साक़ी
मजा तो जब है के गिरतो को थाम ले साक़ी।
फिल्म गाइड में देव आनन्द ने एक डायलाग में इकबाल के मशहुर शेर खुदी को कर बुलन्द इतना का इस्तेमाल किया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि हो सकता है कहीं और भी बहुत सी मालूमात बाकी हो जहां इकबाल के कलाम को और फिल्मों में अब तक इस्तेमाल किया गया हो, वह सिर्फ महान शायर ही नहीं बल्कि एक अच्छे इन्सान भी थे। अन्त में कहा जासकता है कि बहुत से शायरों की भांति फिल्मों में इकबाल के कलाम को बखूबी बरता गया है हिन्दी फिल्मों में इकबाल के इस योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है।
पाठ्य पुस्तकें
1. हमारी फिल्में और उर्दू। मोहम्मद खालिद आबीदी
2. वाॅलीवुड पाठ विमर्श के संदर्भ – ललित जोशी
3. तारीखे अदबे उर्दू – नुरूल हसन नकवी
4. नये तनकीदी जावीये – खुशहाल जैदी

डाॅ. फरगाना
रिसर्च एसोसिएट (पी.डी.एफ.)
उर्दू एवं परसियन विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।

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