कागद के ब्रह्म-लोक का लोक-रंग

० मोहन थानवी, बीकानेर

zराजस्थानी भाषा, साहित्य, कला-संस्कृति के क्षेत्र में वरिष्ठ साहित्यकार ओम पुरोहित ‘कागद’ राजस्थानी भाषा के विद्यार्थियों के मार्गदर्शक के रूप में सदैव हमारे बीच याद किए जाते रहेंगे। उनकी कृतियों में राजस्थानी भाषा की खुशबू पाठकों को मंत्र-मुग्ध करती है। ‘सुरंगी संस्कृति’ निबंध संग्रह ऐसी ही कृति है, जिसमें कागद के लोक-संस्कृति-संरक्षण के प्रति संरक्षण का भाव तो प्रकट होता ही है, इसके लिए भावी पीढ़ी से उनकी अपेक्षाएं भी परिलक्षित होती है। ओम पुरोहित ‘कागद’ राजस्थानी ही नहीं वरन् पंजाबी, गुजराती, सिंधी आदि सभी प्रादेशिक भाषाओं के विकास के प्रति सजग रहे, संवेदनशील रहे। संयोग की बात है कि कागद ऐसे परिवार के सदस्य रहे जहां भाषा, साहित्य, कला के संवर्धन के लिए जुट जाने की शिक्षा घुट्टी में पिलाई जाती है। जहां शब्द को ब्रह्म की तरह पूजा जाता है। ‘सुरंगी संस्कृति’ में एक ओर जहां लोक-रंग समाहित हैं, वहीं लोक प्रचलन से दूर होते जा रहे वे शब्द भी खिले हुए हैं जिनका वजूद बनाए रखने की अपील कागद जी युवा पीढ़ी से जीवन पर्यंत करते रहे।

मोहन थानवी
मोहन थानवी
‘सुरंगी संस्कृति’ कृति की विशेषता में केवल एक मुख्य बिंदु को यहां साझा करता हूं और मेरा मानना है कि इस एक बिंदु पर ही मंथन करेंगे तो अनेक घटक हमारे मन में आते चले जाएंगे। अप-संस्कृति का खतरनाक पसराव विषय इस पुस्तक की केंद्रीय चिंता और भाव-भूमि कही जा सकती है। ओम पुरोहित ‘कागद’ कृति में इसी शीर्षक से ब्रह्म-लोक, अर्थात शब्द संसार के लोकरंगों के धूमिल होते स्वरूप पर चिंता जताते हैं, कारण गिनाते हैं, सुधार की आशा व्यक्त करते हैं और न केवल सुझाव देते हैं वरन् शब्द-ब्रह्म लोक और लोक रंग के प्रति लापरवाही बरतने व इस लोक की अनदेखी करने की प्रवृत्ति वाले लोगों की भरसक भर्त्सना करते हुए राजस्थानी भाषा के विकास में जुट जाने का आह्वान भी करते हैं। यहीं पर कागद का लोक संस्कृति के प्रति लगाव प्रकट होकर पाठकों के सम्मुख आ जाता है।
इस कृति में राजस्थान की रंगारंग लोक जीवन शैली, आम बोलचाल के शब्द, कहावतों, मुहावरों सहित वे तमाम जीवन के चित्र पुस्तक में देखने को मिलते हैं, जो राजस्थानी संस्कृति को समाहित करती ऐसी अन्यान्य रचनाकारों की कृतियों में हम पढ़ सकते हैं लेकिन विषयों को विभाजित कर जिस लोक रुचि की शैली में कागद जी ने इसे प्रस्तुत किया है, ऐसी शैली विद्यार्थियों को इस कृति के प्रत्येक पाठ को स्मृति में रखने की प्रेरणा देती है।
राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता के लिए ओम पुरोहित ‘कागद’ ने पुरोधा बन कर अथक परिश्रम किया और इस कृति में भी इस यक्ष प्रश्न को रखा है – ‘मानता बिना अबोला’। इसके साथ ही कागद ने ‘कवि भूंगर नै रंग’ के माध्यम से कवि भूंगर की लोक रंग में रंगी छवि उकेरी है, कवि भूंगर काव्य के परंपरागत रचाव से हटकर अपनी बात कहते थे।
‘सावण री डोकरी’ के बारे में तो ओम पुरोहित ‘कागद’ ने सोशल मीडिया पर भी चर्चा चलाई थी, जिसमें बहुत से साथियों के साथ मैं भी शामिल हुआ था। लेकिन ‘सुरंगी संस्कृति’ कृति में कागद ने सावन की डोकरी के राजस्थानी रूप के अलावा देश-विदेश में प्रचलित स्वरूपों को भी सामने रखा है। ऐसी ही विशेषताओं के कारण ओम पुरोहित ‘कागद’ की यह कृति ‘सुरंगी संस्कृति’, इस विषय पर लिखी अन्यान्य कृतियों से इतर अपना खास स्थान बनाती है।
इस निबंध संग्रह को शिक्षा विभाग द्वारा पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विद्यार्थियों के लिए हितकर होगा। अप-संस्कृति के बढ़ते दौर में इस कृति का प्रत्येक पुस्तकालय, वाचनालय में होना भी आज की आवश्यकता है। जरूरत आज इस बात की है कि इस प्रकार की कृतियों का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार होना चाहिए, यह समय रहते समाज को सजग करने की दिशा में कागद जी का अवदान ही नहीं अविस्मरणीय कदम है, वे कवि के साथ ही भाषा और संस्कृति के विमर्शकार के रूप में पहचाने जाएंगे।

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