विवेकानन्द ने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे देश के पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी अत्याधिक जरूरत है। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था किन्तु एक सच्चे वेदान्ती संत की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी।
स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, “जिसके जीवन में ध्येय नहीं वह तो खेलती-गाती, हँसती-बोलती लाश ही है। ”जब तक व्यक्ति अपने जीवन के विशिष्ट ध्येय को नहीं पहचान लेता तबतक तो उसका जीवन व्यर्थ ही है। युवको अपने जीवन में क्या करना है इसका निर्णय उन्हें ही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द परमात्मा में विश्वास से अधिक अपने आप पर विश्वास करने को अधिक महत्व देते थे। स्वामीजी कहा करते थे कि ” रुढीवादी धर्मावलम्बी कहते है कि ईश्वर में विश्वास ना करने वाला नास्तिक है किन्तु मै कहता हूँ कि जिस मनुष्य का अपने आप पर विश्वास नहीं है वो ही नास्तिक है” | स्वामीजी ने कहा कि जीवन में हमारे चारो ओर घटने वाली छोटी या बड़ी, सकारात्मक या नकारात्मक सभी घटनायें हमें अपनी असीम शक्ति को प्रगट करने का अवसर प्रदान करती है।
प्रस्तुतिकरण एवं सकलंकर्ता—डा.जे. के. गर्ग
सन्दर्भ—भारत ज्ञान कोष, विभिन्न पुस्तकें, पत्र-पत्रिकायें.मेरी डायरी के पन्ने आदि
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