आज भी स्वामीजी का साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में कुछ कर गुजरने का भाव संचारित करता है। किसी ने ठीक ही कहा है – यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो व्यक्ति सहज ही सात्विक कर्म में लग कर अपने लक्ष्य पूर्ति हेतु ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। स्वामीजी की शिष्या अमेरीका की लेखक लीसा मिलर “ वी आर आल हिन्दूज नाऊ” शीर्षक के लेख में बताती है कि “ सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद कहता है कि “सत्य एक है, विद्वान् इसकी कई प्रकार से व्याख्या करते हैं| जीसस का एक मार्ग है, कुरान का दूसरा है,योगाभ्यास तीसरा मार्ग है | कोई भी अन्य से अच्छा नहीं है | स्वामीजी ने कहा कि मैं विश्व को एक परिवार क्यों मानूं इसका तर्क केवल वेदान्त के पास है | भारत ने धर्म की धारणा की इसी कारण वह “ सर्व भूत हित रत” बन सका | “ सर्व भवन्तु सुखिनः” की कामना कर सका | विवेकानन्दजी के शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन यानि 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला था और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेद कर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टिकी गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरुरामकृष्ण परमहंसका सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। परम पूजनीय स्वामीजी के 153वें जन्म दिवस पर सभी उन्हें श्रदा के साथ याद करते हुये उनके बताये गये मार्ग पर चलने का सकंल्प लेते हें |
प्रस्तुतिकरण एवं सकलंकर्ता—डा.जे. के. गर्ग
सन्दर्भ—भारत ज्ञान कोष, विभिन्न पुस्तकें, पत्र-पत्रिकायें.मेरी डायरी के पन्ने आदि
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