स्वामी विवेकानन्द ने अपने उन्तालीस वर्ष के अल्प जीवनकाल (12 जनवरी 1863से 4 जुलाई 1902) में जो काम किये उनकों हजारों साल तक दुनियाँ के हर वर्ग के इन्सान याद करते रहेंगे। स्वामीजी की अनूठी भाषण शैली तथा ज्ञान को देखते हुए शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन के बाद अमेरिकन मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। स्वामीजी ने कहा कि” व्यक्ति-निर्माण राष्ट्र निर्माण” यानि राष्ट्र निर्माण तभी संभव है जब श्रेष्ठ व्यक्ति और आदर्श नागरिक तैयार कर सकें | विवेकानन्दजी मानते थे कि अतीत की नीवं पर ही भविष्य की श्रेष्ठताओं का निर्माण होता है | स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था कि ”अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा”। वे सदा अपने को ‘गरीबों का सेवक’ कहते थे। विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें जाति या धर्म के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं हो। विवेकानन्द मात्र सन्त ही नहीं थे किन्तु वे एक महान देशभक्त, श्रेष्ट वक्ता, मूलविचारक, प्रख्यात् लेखक एवं मानवतावादी भी थे। स्वामी विवेकानन्द अमरिका में संगठित कार्य के चमत्कार से प्रभावित हुए थे। उन्होंने ठान लिया था कि भारत में भी इस संगठन कौशल को पुनर्जिवित करना है। उन्होंने स्वयं रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर सन्यासियों तक को संगठित कर उन्हें समायोचित उत्तम कार्य करने का प्रशिक्षण दिया था। अमेरिका से लौटकर उन्होंने भारतवासियों को आह्वान करते हुए कहा था “नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़ भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।” और भारत की जनता भी स्वामीजी के आह्वान पर अपने उत्थान हेतु गर्व के साथ निकल पड़ी। स्वामी के वाक्य”‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ, अपने मानव जीवन को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये” स्वामीजी के आह्वान को भारतवासी अपने मानस पटल पर अकिंत कर अपने लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रगति के पथ पर चल पड़े |

स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, “जिसके जीवन में ध्येय नहीं वह तो खेलती-गाती, हँसती-बोलती लाश ही है। ”जब तक व्यक्ति अपने जीवन के विशिष्ट ध्येय को नहीं पहचान लेता तबतक तो उसका जीवन व्यर्थ ही है। युवको अपने जीवन में क्या करना है इसका निर्णय उन्हें ही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द परमात्मा में विश्वास से अधिक अपने आप पर विश्वास करने को अधिक महत्व देते थे। स्वामीजी कहा करते थे कि ” रुढीवादी धर्मावलम्बी कहते है कि ईश्वर में विश्वास ना करने वाला नास्तिक है किन्तु मै कहता हूँ कि जिस मनुष्य का अपने आप पर विश्वास नहीं है वो ही नास्तिक है” | स्वामीजी ने कहा कि जीवन में हमारे चारो ओर घटने वाली छोटी या बड़ी, सकारात्मक या नकारात्मक सभी घटनायें हमें अपनी असीम शक्ति को प्रगट करने का अवसर प्रदान करती है।
आज भी स्वामीजी का साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में कुछ कर गुजरने का भाव संचारित करता है। किसी ने ठीक ही कहा है – यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो व्यक्ति सहज ही सात्विक कर्म में लग कर अपने लक्ष्य पूर्ति हेतु ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। स्वामीजी की शिष्या अमेरीका की लेखक लीसा मिलर “ वी आर आल हिन्दूज नाऊ” शीर्षक के लेख में बताती है कि “ सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद कहता है कि “सत्य एक है, विद्वान् इसकी कई प्रकार से व्याख्या करते हैं| जीसस का एक मार्ग है, कुरान का दूसरा है,योगाभ्यास तीसरा मार्ग है | कोई भी अन्य से अच्छा नहीं है | स्वामीजी ने कहा कि मैं विश्व को एक परिवार क्यों मानूं इसका तर्क केवल वेदान्त के पास है | भारत ने धर्म की धारणा की इसी कारण वह “ सर्व भूत हित रत” बन सका | “ सर्व भवन्तु सुखिनः” की कामना कर सका | विवेकानन्दजी के शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन यानि 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला था और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेद कर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टिकी गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरुरामकृष्ण परमहंसका सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। परम पूजनीय स्वामीजी के 153वें जन्म दिवस पर सभी उन्हें श्रदा के साथ याद करते हुये उनके बताये गये मार्ग पर चलने का सकंल्प लेते हें |
प्रस्तुतिकरण एवं सकलंकर्ता—डा.जे. के. गर्ग
सन्दर्भ—भारत ज्ञान कोष, विभिन्न पुस्तकें, पत्र-पत्रिकायें.मेरी डायरी के पन्ने आदि
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