भारत के विभिन्न भागों में इस पर्व को भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता हैं। महाराष्ट्र में इस दिन को ‘गुड़ी पड़वा’ के रुप में मनाते है। ‘गुड़ी’ का अर्थ होता है – ‘विजय पताका’। आज भी घर के आंगन में गुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। दक्षिण भारत में चंद्रमा के उज्ज्वल चरण का जो पहला दिन होता है उसे ‘पाद्य’ कहते हैं। गोवा और केरल में कोंकणी समुदाय इसे ‘संवत्सर पड़वो’ नाम से मनाते है। कर्नाटक में यह पर्व ‘युगाड़ी’ नाम से जाना जाता है। आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में ‘उगाड़ी’ नाम से मनाते हैं। कश्मीरी हिन्दू इस दिन को ‘नवरेह’ के तौर पर मनाते हैं। मणिपुर में यह दिन ‘सजिबु नोंगमा पानबा’ या ‘मेइतेई चेइराओबा’ कहलाता है।
दरअसल इस समय वसंत ऋतु का आगमन हो चुका होता है और उल्लास, उमंग, खुशी और पुष्पों की सुगंध से संपूर्ण वातावरण चत्मकृत हो उठता है। प्रकृति अपने यौवन पर इठला रही होती है। लताएं और मंजरियाँ धरती के श्रृंगार के प्रमुख प्रसंधान बनते है। खेतों में हलचल, हंसिए की आवाज फसल कटाई के संकेत दे रही होती है। किसान को अपनी मेहनत का फल मिलने लगता है। इस समय नक्षत्र सूर्य स्थिति में होते है। इसलिए कहा जाता है कि इस दिन शुरु किये गये कामों में सफलता निश्चित तौर पर मिलती है।
इस दिवस के अनेकों महत्व होने के उपरांत भी भारतीयों की ये अनभिज्ञता ही रही है कि वे अपनी संस्कारों और जड़ों से कटकर आधी रात को शराब के नशे में बेसुध होकर पाश्चात्य नववर्ष मनाना उचित समझते है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हम अपने चेहरे से परतंत्रता के दाग नहीं हटा पाएं है। जब आजादी के बाद नवंबर 1952 को पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी। तब समिति ने अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को स्वीकार करने की सिफारिश की थी। किन्तु, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकृत कर लिया। इसके लिए यह तर्क दिया कि जब संसार के अधिकतर देशों ने समान कालगणना के लिए ईस्वी सन् स्वीकार कर लिया है तो दुनिया के साथ चलने के लिए हमें भी इसका प्रयोग करना चाहिए। इस तरह हमने सुविधा को आधार बनाकर राष्ट्रीय गौरव से समझौता कर लिया है। लेकिन बांग्लादेश व नेपाल का सरकारी कैलेंडर विक्रम संवत् ही है।
ईस्वी सन् का प्रारंभ ईसा की मृत्यु पर आधारित है। परंतु उनका जन्म और मृत्यु अभी भी अज्ञात है। ईसवी सन् का मूल रोमन संवत् है। यह 753 ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य के समय शुरू किया हुआ था। उस समय उस संवत् में 304 दिन और 10 मास होते थे। उस समय जनवरी और फरवरी के मास नहीं थे। ईसा पूर्व 56 वर्ष में रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने वर्ष 455 दिन का माना। बाद में इसे 365 दिन का कर दिया। उसने अपने नाम पर जुलाई मास भी बना दिया। बाद में उसके पोते अगस्टस ने अपने नाम पर अगस्त का मास बना दिया। उसने महीनों के बाद दिन संख्या भी तय कर दी। इस प्रकार ईसवी सन् में 365 दिन और 12 मास होने लगे। फिर भी इसमें अंतर बढ़ता गया। क्योंकि पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने के लिए 365 दिन 6 घंटे, 9 मिनट और 11 सैकंड लगते हैं। ईसवी सन् 1583 में इसमें 18 दिन का अंतर आ गया। तब ईसाइयों के धर्मगुरू पोप ग्रेगरी ने 4 अक्तूबर को 15 अक्तूबर बना दिया और आगे के लिए आदेश दिया कि 4 की संख्या से विभाजित वाले होने वर्ष में फरवरी मास 29 दिन का होगा। 400 वर्ष बाद इसमें 1 दिन और जोड़कर इसे 30 दिन का बना दिया जाएगा। इसी को ग्रेगरियन कैलेंडर कहा जाता है जिसे सारे ईसाई जगत ने स्वीकार कर लिया। ईसाई संवत् के बारे में ज्ञातव्य है कि पहले इसका आरंभ 25 मार्च से होता था परंतु 18वीं शताब्दी से इसका आरंभ 1 जनवरी से होने लगा।
अंततः आज हमें अपनी संस्कृति को बदलने की नहीं बल्कि कैलेंडर बदलने की जरुरत है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था – ‘यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहने वाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है।’
– देवेंद्रराज सुथार
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर में अध्ययनरत।
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