देश के कोने-कोने में मिलती हैं वीरांगनाओं की गाथाएं

-संजय सक्सेना, लखनऊ-
आज तमाम दलों के नेता भले ही महिलाओं को बराबर का हक देने के नाम पर अपनी सियासी रोटिंया सेंक रहे हों, लेकिन इतिहास उठा कर देखा जाये तो हिन्दुस्तानी की महिलाएं कभी अबला नहीं रहीं। यही देश है जहां महिलाओं को देवियों की तरह पूजा जाता है,तो जरूरत पड़ने पर यह देवियां वीरांगना बन शस्त्र उठाने में भी पीछे नहीं रहीं। हमें लगता है कि देश आजाद कराने में हमारे महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे महान पुरुषों का ही योगदान था,लेकिन आजादी के मतवालों का इतिहास इतना छोटा नहीं था,जितना उसे दर्शाने की कोशिश की गई। असल में जो सम्पन्न थे,उन्होंने अपने हिसाब से इतिहास लिखवाया। इसमें आजादी के उन मतवालों का नाम छूट गया जिनके पीछे कोई खड़ा नहीं था।यह लोग इतिहास के पन्नों में कोई जगह नहीं हासिल कर सके। फिर भी जो नाम सामने आते हैं वह भी हजारों-लाखों में हैं। देश का कोई कोना ऐसा नहीं होगा जहां आजादी के मतवालों का इतिहास न छिपा हो।
बात वीरों की ही नहीं तमाम वीरांगनाओं को भी इतिहास में वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार थी,जबकि हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई में महान पुरुषों के अलावा महान महिलाओं का भी अहम योगदान रहा था।
हकीकत तो यही है कि भारतीय वीरांगनाओं का जिक्र किए बिना 1857 से 1947 तक की आजादी की दास्तान ही अधूरी है इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं थीं। फिर भी आम या अपनी बहादुरी के बल इन लोगों ने अंग्रेसी हुकूमत के छक्के छुड़ा दिये थे।
1857 की गदर में दो नाम बड़ी शान से लिए जाते हैं। पहला नाम झांसी की राजनी लक्ष्मीबाई का और दूसरा नाम बेगम हजरत महल जिन्होंने लखनऊ में क्रांति का झंडा बुलंद किया था। भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है। रानी लक्ष्मीबाई न सिर्फ एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन सभी महिलाओं के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं और उनके लिए भी एक आदर्श हैं जो महिलाएं ये सोचती थी ‘वह महिलाएं हैं तो कुछ नहीं कर सकती।’ देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं। झांसी की रानी ने महिलाओं की एक अलग टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ बनाई हुई थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, ना मैं श्रृंगार करूंगी और ना ही सिंदूर लगाऊंगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलती-जुलती थी, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उसने उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और दूसरी तरफ स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई की सेना में जनाना फौजी इंचार्ज मोतीबाई और रानी के साथ चौबीस घंटे छाया की तरह रहने वाली सुंदर-मुंदर, काशीबाई, जूही, दुर्गाबाई भी दुर्गादल की ही सैनिक थीं। इन सभी ने अपने जान की बाजी लगाकर रानी लक्ष्मीबाई पर आंच नहीं आने दी और अंततोगत्वा वीरगति को प्राप्त हां गईं।
जंगे-आजादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज्यादा सयम तक आजाद रहा था। इस बीच बेगम महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की । बेगम की हिम्मत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे आजादी के दौरान नजरबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी । इतिहासकार ताराचंद लिखते हैं कि बेगम खुद हाथी पर चढ़ कर लड़ाई के मैदान में फौज का हौसला बढ़ाती थीं।
इतिहास में और पीछे चलें तो एक और नाम सुनने को मिलेगा। वह नाम है वर्ष 1824 में ‘फिरंगियों भारत छोड़ो’ का बिगुल बजाने वाली कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा का। जिनके अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की वजह से अंग्रेजों को दांतों तले उंगली चबाते देखा गया था। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी।
इसी प्रकार कम ही लोगों को पता होगा कि बैरकपुर में मंगल पांडेय को चर्बी वाले कारतूसों के बारे में सर्वप्रथम मातादीन ने बताया और मातादीन को इसकी जानकारी उसकी पत्नी लज्जो ने दी। लज्जो अंग्रेज अफसरों के यहां काम करती थी, जहां उसे यह सुराग मिला कि अंग्रेज गाय की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने जा रहे हैं। अगर यह कहा जाए कि 1857 की कदर की चिंगारी भडकाने और उसे हवा देने का काम नारी शक्ति ने किया तो यह भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।
मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल का नाम भी सामने आएगा, जिन्होंने दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में स्वातंर्त्य योद्धाओं को संगठित किया और देश प्रेम का परिचय दिया। सन् 1857 की क्रांति में बहादुरशाह जफर को प्रोत्साहित करने वाली बेगम जीनत महल ने ललकारते हुए कहा था ‘यह समय गजलें कह कर दिल बहलाने का नहीं है। दिल्ली के शहजादे फिरोजशाह की बेगम तुकलाई सुलतान जमानी बेगम को जब दिल्ली में क्रांति की सूचना मिली तो उन्होंने ऐशोआराम का जीवन जीने की बजाय युद्ध शिविरों में रहना पसंद किया। वहीं से उन्होंनें सैनिकों को रसद पहुंचाने और घायल सैनिकों की सेवा का प्रबंध अपने हाथो में ले लिया। अंग्रेजी हुकूमत इनसे इतनी भयभीत हो गई थी कि कालांतर में उन्हें घर में नजरबंद कर उन पर बम्बई न छोडने और दिल्ली प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
लखनऊ में बेगम हजरत महल की महिला सैनिक दल का नेतृत्व रहीमी के हाथों में था, जिसने फौजी भेष अपनाकर तमाम महिलाओं को तोप और बंदूक चलाना सिखाया। रहीमी की अगुवाई में इन महिलाओं ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। लखनऊ की तवायफ हैदरीबाई के यहां तमाम अंग्रेज अफसर आते थे और कई बार क्रांतिकारियों के खिलाफ योजनाओं पर बात किया करते थे। हैदरीबाई ने पेशे से परे अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए इन महत्वपूर्ण सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुंचाया। बाद में वह भी रहीमी के सैनिक दल में शामिल हो गई।
ऐसी ही एक वीरांगना ऊदा देवी थीं, जिनके पति चिनहट की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। ऐसा माना जाता है कि डब्ल्यू गार्डन अलक्जेंडर एवं तत्पश्चात क्रिस्टोफर हिबर्ट ने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट म्यूटिनी’ में लखनऊ में सिकन्दरबाग किले पर हमले के दौरान जिस वीरांगना के अदम्य साहस का वर्णन किया है, वह ऊदा देवी ही थीं। ऊदा देवी ने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया। अंग्रेज असमंजस में पड़ गये और जब हलचल होने पर कैप्टन वेल्स ने पेड़ पर गोली चलाई तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी। नीचे गिरने से उसकी लाल जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है।
कानपुर 1857 की क्रांति का प्रमुख गवाह रहा है। पेशे से तवायफ अजीजनबाई ने यहां क्रांतिकारियों की संगत में 1857 की क्रांति में लौ जलायी। एक जून 1857 को जब कानपुर में नाना साहब के नेतृत्व में तात्याटोपे, अजीमुल्ला खान, बालासाहब, सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खान क्रांति की योजना बना रहे थे तो उनके साथ उस बैठक में अजीजनबाई भी थीं। इन क्रांतिकारियों की प्रेरणा से अजीजन ने मस्तानी टोली के नाम से 400 महिलाओं की एक टोली बनायी जो मर्दाना भेष में रहती थीं। एक तरफ ये अंग्रेजों से अपने हुस्न के दम पर राज उगलवातीं, वहीं नौजवानों को क्रांति में भाग लेने के लिये प्रेरित करतीं।
कानपुर के स्वाधीनता संग्राम में मस्तानीबाई की भूमिका भी कम नहीं है। बाजीराव पेशवा के लश्कर के साथ ही मस्तानीबाई बिठूर आई थी। अप्रतिम सौन्दर्य की मलिका मस्तानीबाई अंग्रेजों का मनोरंजन करने के बहाने उनसे खुफिया जानकारी हासिल कर पेशवा को देती थी। नाना साहब की मुंहबोली बेटी मैनावती भी देशभक्ति से भरपूर थी।
मध्यप्रदेश में रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई ने 1857 के संग्राम के दौरान अंग्रेजों का प्रतिकार किया और घिर जाने पर आत्मसमर्पण करने की बजाय स्वयं को खत्म कर लिया। मध्य प्रदेश में ही जैतपुर की रानी ने अपनी रियासत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दतिया के क्रांतिकारियों को लेकर अंग्रेजी सेना से मोर्चा लिया। तेजपुर की रानी भी इस संग्राम में जैतपुर की रानी की सहयोगी बनकर लड़ीं। मुजफ्फरनगर के मुंडभर की महावीरी देवी ने 1857 के संग्राम में 22 महिलाओं के साथ मिलकर अंग्रेजों पर हमला किया। अनूप शहर की चौहान रानी ने घोड़े पर सवार होकर हाथों में तलवार लिए अंग्रेजों से युद्ध किया और अनूप शहर के थाने पर लगे यूनियन जैक को उतार कर हरा राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया। इतिहास गवाह है कि 1857 की क्रांति के दौरान दिल्ली के आस-पास के गावों की लगभग 255 महिलाओं को मुजफ्फरनगर में गोली से उड़ा दिया गया था। 1857 की गदर में भारतीय महिलाओं में गजब की देश की भक्ति देखने को मिली। चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर ‘दि फिलासाफी आफ बम’ दस्तावेज तैयार करने वाले क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी ‘दुर्गा भाभी’ नाम से मशहूर दुर्गा देवी बोहरा ने भगत सिंह को लाहौर जिले से छुड़ाने का प्रयास किया। 1928 में जब अंग्रेज अफसर साण्डर्स को मारने के बाद भगत सिंह व राजगुरु लाहौर से कलकत्ता के लिए निकले, तो कोई उन्हें पहचान न सके इसलिए दुर्गा भाभी की सलाह पर एक सुनियोजित रणनीति के तहत भगत सिंह पति, दुर्गा भाभी उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर वहाँ से निकल लिये। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की।
जब 1947 की दास्तान छेड़ी जाती है तो इसमें भारत कोकिला के नाम से जानी जाने वाली सरोजनी नायडू जो 1914 में पहली बार महात्मा गांधी से इंग्लैंड में मिली और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गईं के अलावा सिस्टर निवेदिता का नाम शीर्ष में आता है। जिन्होंने न केवल महिला शिक्षा के क्षेत्र में ही महत्वपूर्ण योगदान दिया बल्कि भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देशभक्तों की खुले आम मदद भी की। नोबेल के जीवन में निर्णायक मोड़ 1895 में उस समय आया जब लंदन में उनकी स्वामी विवेकानंद से मुलाकात हुई। भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान हमेशा याद रखा जाएगा। 1946 में वह सविंधान की सदस्य बनी । सुचेता ने आंदोलन के हर चरण में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और कई बार जेल गईं। बात आजादी की लड़ाई की हो तो मीरा बैन को कौन भूल सकता है जिनका असली नाम ‘मैडलिन स्लेड’ था।ये गांधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर भारत आ गई और यहीं की होकर रह गई। गांधी जी ने इन्हें मीरा बेन का नाम दिया था। मीरा बेन सादी धोती पहनती, सूत कातती, गांव-गांव घूमती। वह गोरी नस्ल की अँग्रेज थीं, लेकिन हिंदुस्तान की आजादी के पक्ष में थी। कस्तूरबा गांधी जिन्हें भारत में बा के नाम से जाना जाता था। कस्तुरबा गांधी गांधीजी की धर्म पत्नी थी । इन्होंने 1913 में गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन में साथ दिया और तीन महिलाओं के साथ जेल गई । इसी प्रकार वीरांगना दुर्गा बाई देशमुख, महात्मा गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित थीं. शायद यही कारण था कि उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया और भारत की आजादी में एक वकील, समाजिक कार्यकर्ता, और एक राजनेता की सक्रिय भूमिका निभाई। वहीं आजादी की मतवाली विजय लक्ष्मी पंडित ज्वाहरलाल नेहरू की बहन थी । सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेंजो ने उन्हें जेल में बंद कर दिया। विजय लक्ष्मी ने विदेशों में आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। संयुक्तम वह देश की पहली महिला अध्यक्ष थी। इसके अलावा वह स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत भी थीं । कमला नेहरू विवाह के बाद इलाहाबाद आई तो वह एक सामान्य दुल्हन भर थी,लेकिन समयय आने पर यही शांत स्वभाव की महिला लौह स्त्री साबित हुई । वह धरने-जुलूस में अंग्रेजों का सामना करती, भूख हड़ताल करती और जेल की पथरीली धरती पर सोती थी। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की थी।

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