‘श्रमणसंघ के रक्षक’ श्री रूपमुनिजी ‘रजत‘

जिनके आगमन से अंधेरों की मुंडेर पर दीपावलियाँ जगमगा उठीं। जिनके आँगन ने वातावरण को अपूर्व सौंदर्य से अभिस्नात कर दिया। जिनके अवतरण से अभावों की धरती पर समृद्धि के शिखर खड़े हो गए। जिनके अवतरण ने इतिहास का एक खाली पृष्ठ यश बोध के आखर को सादर समर्पित कर दिया। ये अवतरण था- एक उर्जस्वल विभूति का। उस विभूति को समाज ने लोकमान्य संत, शेरे राजस्थान, प्रवर्तक श्री रूपचंद जी म.सा. ‘रजत‘ के नाम से संबोधित कर अपना शीष नवाया।
ऐसे लोकमान्य संत, वरिष्ठ प्रवर्तक श्री रूपचन्द्रजी ‘रजत’ के देवलोकगमन से श्रमण संघ और जिनशासन का एक दिव्य सितारा अस्त हो गया है। मैं जब मेरी गुरु परम्परा के सम्बन्ध में अतीत में निहारता हूँ तो पूज्य प्रवर्तकश्री का सहयोग, सहकार और मैत्री के अनेक प्रसंग याद आते हैं। श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज के दादागुरु पूज्य महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज, पूज्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महाराज एवं पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज के साथ उनके बहुत ही आत्मीय सम्बन्ध रहे। उन्होंने उन महान गुरुदेवों के शिष्य-शिष्याओं के प्रति भी हमेशा असीम वात्सल्य भाव रखा और अवसर आने पर अपना मुक्त सहज सहयोग किया।
वस्तुतः सबके साथ उनके वैसे ही आत्मीय सम्बन्ध थे। श्रमण संघ के निर्माण और संगठन में अनेक संतों, महापुरुषों का योगदान रहा, उनमें मरुधर-केसरी पूज्य श्री मिश्रीमलजी महाराज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। यदि हम यह कहें कि पूज्य प्रवर्तक श्री रूपमुनिजी ने पूज्य मरुधर केसरी और अन्य अनेक संत महापुरुषों के अथक श्रम से निर्मित इस श्रमण संघ के संगठन को बनाए रखने में अपना विशिष्ट योगदान किया तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पूज्य प्रवर्तकश्री ने संगठन को बनाए रखने के साथ ही श्रमण संघ के रक्षक के रूप में भी अपनी भूमिका अदा की। जब लगा कि श्रमण संघ की एकता या गरिमा पर कोई चोट हो रही या होने वाली है तो पूज्य प्रवर्तकश्री ढाल बन गये। वे श्रमणसंघ की आशा और विश्वास के प्रतीक थे।
इससे भी आगे यदि यह कहा जाए कि वे जिनशासन के निर्भीक प्रहरी थे तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैन धर्म और समाज पर यदि कभी कोई प्रहार होने लगा तो उन्होंने उसे रोका। उनके प्रति छŸाीस कौमों के व्यक्ति श्रद्धा रखते थे। जैन दिवाकर मुनि चौथमलजी के बाद किसी जैन संत के प्रति सभी जातियों की ऐसी श्रद्धा संभवतः अन्यत्र दुर्लभ रही। उन्होंने श्रमण संघ की एकता, जैन एकता और सामाजिक एकता को एक साथ साधा। जिन्होंने भी शेरे-राजस्थान, प्रवर्तक श्री रूपचन्द्रजी म.सा. ‘रजत‘ की पावन सन्निधि पाई है, उनका अनुभव है कि वे वास्तव में लोकमान्य संत हैं। देशभर में जैन और जैनेतर सभी समुदायों और वर्गों के व्यक्ति उनके प्रति आस्था रखते हैं।
यह पूज्य प्रवर्तकश्री की साधना की शक्ति और पुनवानी थी कि कोई उनकी बात टालता नहीं था। उन्होंने अपने प्रभाव का उपयोग जिनशासन की प्रभावना, जीवदया और मानवसेवा में किया। उनके द्वार आया कोई कभी खाली नहीं लौटा।
श्रमण सूर्य, मरुधर केसरी पूज्य श्री मिश्रीमलजी महाराज की विरासत को उन्होंने अच्छी तरह से संभाला। शायद कम लोग जानते होंगे कि पूज्य प्रवर्तकश्री के गुरु पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज थे, जो दीक्षा के बाद थोड़े समय में ही महाप्रयाण कर गये। पूज्य गुरुदेव मोतीलालजी महाराज के देवलोकगमन के पश्चात् मुनि श्री रूपचंदजी को पूज्य मरूधर केसरी का सशक्त साधनामय आश्रय मिला। पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज की तरह ही उन्हें पूज्य श्री मरूधर केसरी जी महाराज का भी अन्यन्य प्रेम प्राप्त हुआ। श्रमणसूर्य मरूधर केसरी जी महाराज का प्रत्येक पल एक अबाध अवलोकन युक्त प्रशिक्षण था। वे संत ही नहीं, संस्थान थे। संस्थान ही नहीं, समाधान थे। प्रश्नों से घिरे रह कर संघर्षपूर्ण तरीके से राहत भरा उत्तर खोज लेना उनका स्वाभाविक गुण था। उनका यही गुण पूज्य प्रवर्तकश्री में संक्रमित हुआ। पूज्य प्रवर्तक मुनि श्री रूपचन्दजी को पूज्य मरुधर केसरी जी महाराज की अथाह अपार कृपा दृष्टि मिली। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के उस कृपादृष्टि की वृष्टि पूरे युग पर की। अपने युग को आप्लावित और तृप्त किया। उनका महाप्रयाण एक युग का अन्त है। हार्दिक श्रद्धांजलि!

– श्री दिनेशमुनि जी
(श्रमणसंघीय सलाहकार)

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