जब उत्तीर्ण सूची में नहीं था पहले राष्ट्रपति का नाम
प्रिंसिपल ने एफ.ए. में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिए तो राजेन्द्र प्रसाद का नाम उस सूची में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद एक मेधावी छात्र थे उन्हें अपने अनउत्तीर्ण होने पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उन्हें अपनी एफ.ए की परीक्षा में सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण होने का पूरा भरोसा था, इसलिए उन्होंने खड़े होकर प्राचार्य से कहा कि वे फेल नहीं हो सकते हैं इसलिए आप परीक्षा में हुए उत्तीर्ण विद्यार्थीयों की सूची को एक बार पुनः देख लें, प्रिंसिपल ने क्रोधित होकर राजेन्द्र प्रसाद से कहा कि वह फ़ेल हो गए होंगे अत: उन्हें इस मामले में तर्क नहीं करना चाहिए। राजेन्द्र का हृदय धक-धक करने लगा और वे हकलाकर घबराते हुए बोले ‘लेकिन, लेकिन सर’ क्रोधित प्रिंसिपल ने कहा, ‘पाँच रुपया ज़ुर्माना’ राजेन्द्र प्रसाद साहस कर दुबारा बोले तो प्रिंसिपल चिल्लाये और बोले ‘दस रुपया ज़ुर्माना’| राजेन्द्र प्रसाद बहुत घबरा गए। अगले कुछ क्षणों में ज़ुर्माना बढ़कर 25 रुपये तक पहुँच गया। एकाएक हैड क्लर्क ने राजेन्द्र को पीछे से बैठ जाने का इशारा किया और वे प्रिंसिपल से बोले कि सर एक ग़लती हो गई है, वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद कक्षा में प्रथम आए हैं। राजेन्द्र प्रसाद की छात्रवृत्ति दो वर्ष के लिए बढ़ाकर 50 रुपया प्रति मास कर दी गई। उसके बाद स्नातक की परीक्षा में भी उन्हें सर्वोच्च स्थानप्राप्त हुआ। इस घटना के बाद राजेन्द्र प्रसाद ने यह जान लिया था कि आदमी को अपना संकोच को दूर कर आत्मविश्वासी बनना चाहिए।
सरल एवं निष्कपट स्वभाव वाला सीधा-साधा ग्रामीण युवक राजेन्द्र प्रसाद बिहार पहली बार 1902 में कलकत्ता में प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश हेतु आया था | अपनी कक्षा में जाने पर वह छात्रों को ताकते रह गये क्योंकि वहां सभी छात्र नगें सिर एवं सभी पश्चिमी वेषभूषा की पतलून और कमीज़ पहने थे इसलिये उन्होंने सोचा ये सब एंग्लो-इंडियन हैं किन्तु जब हाज़िरी बोली गई तो राजेन्द्र को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे सभी हिन्दुस्तानी थे। जब राजेन्द्र प्रसाद का नाम हाज़िरी के समय नहीं पुकारा गया तो उन्होनें हिम्मत जुटा कर अपने प्रोफेसर को पूछा कि उनका नाम क्यों नहीं लिया गया। प्रोफेसर उनके देहाती कपड़ों को घूरता ही रहा एवं चिल्ला कर बोला“ठहरो”, मैंने अभी स्कूल के लड़कों की हाज़िरी नहीं ली है |राजेन्द्र प्रसाद ने हठ किया कि वह प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र हैं और उन्होंने प्रोफेसर को अपना नाम भी बताया। अब कक्षा के सभी छात्र उन्हें उत्सुकतावश देखने लगे क्योंकि उस वर्ष राजेन्द्र प्रसाद विश्वविद्यालय में प्रथम आये थे, प्रोफेसर ने तुरंत अपनी ग़लती को सुधार कर ससम्मान उनका नाम पुकारा और इस तरह राजेन्द्र प्रसाद के कॉलेज जीवन की शुरुआत हुई।
राजेन्द्र बाबू की दिनचर्या पर गांधीजी की छाप
समाज के बदलने से पहले अपने को बदलने का साहस होना चाहिये। “यह बात सच थी,” बापूजी की इस बात को राजेन्द्र बाबू ने अंतर्मन से स्वीकार किया वे कहते थे कि “मैं ब्राह्मण के अलावा किसी का छुआ भोजन नहीं खाता था। चम्पारन में गांधीजी ने उन्हें अपने पुराने विचारों को छोड़ देने के लिये कहा। आख़िरकार उन्होंने समझाया कि जब वे साथ-साथ एक ध्येय के लेये कार्य करते हैं तो उन सबकी केवल एक जाति होती है अर्थात वे सब साथी कार्यकर्ता हैं |
देशभक्त बाबूजी ने घमंडी अगंरेज को दिया माकूल जबाव-
एक बार राजेंद्र बाबू नाव से अपने गांव जा रहे थे। नाव में कई लोग सवार थे। राजेंद्र बाबू के नजदीक ही एक अंग्रेज बैठा हुआ था। वह बार-बार राजेंद्र बाबू की तरफ व्यंग्य से देखता और मुस्कराने लगता। कुछ देर बाद अंग्रेज ने उन्हें तंग करने के लिए एक सिगरेट सुलगा ली और उसका धुआं जान बूझकर राजेंद्र बाबू की ओर फेंकता रहा। कुछ देर तक राजेंद्र बाबू चुप रहे। लेकिन वह काफ़ी देर से उस अंग्रेज की इस हरकत को सहन नहीं पाये। उन्हें लगा कि अब उसे सबक सिखाना जरूरी है। कुछ सोचकर वह अंग्रेज से बोले, ‘महोदय, यह जो सिगरेट आप पी रहे हैं क्या आपकी ही है?’ यह प्रश्न सुनकर अंग्रेज व्यंग्य से मुस्कराता हुआ बोला, ‘अरे, मेरी नहीं तो क्या तुम्हारी है? महंगी और विदेशी सिगरेट है।’ अंग्रेज के इस वाक्य पर राजेंद्र बाबू बोले, ‘बड़े गर्व से कह रहे हो कि विदेशी और महंगी सिगरेट तुम्हारी है। तो फिर इसका धुआं भी तुम्हारा ही हुआ न। उस धुएं को हम पर क्यों फेंक रहे हो? तुम्हारी सिगरेट तुम्हारी चीज है। इसलिए अपनी हर चीज संभाल कर रखो। इसका धुआं हमारी ओर नहीं आना चाहिए। अगर इस बार धुआं हमारी और आया तो सोच लेना कि तुम अपनी जबान से ही मुकर रहे हो। तुम्हारी चीज तुम्हारे पास ही रहनी चाहिए, चाहे वह सिगरेट हो या इसका धुआं, राजेन्द्र बाबू की बात को सुनकर बेचारा अंग्रेज सकपकाया और उसने अपनी जलती हुई सिगरेट को बुझा दिया।
ये कहा सरोजनी नायडू ने
राजेन्द्र बाबू की असाधारण प्रतिभा,उनके स्वभाव को अनोखा माधुर्य,उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है | गांधीजी के निकटम शिष्यों में उनका वो ही स्थान है जो ईशा मसीह के निकट सेंट जाँन का था |
देश रत्न राजेन्द्र बाबू के लिये राष्ट्रीय कर्तव्य था सर्वोच्च
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी सगी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। सज्जनता एवं राष्ट्रपति बनने के बाद भी जनसेवा में समर्पित जीवन
राष्ट्रपति बनने पर भी उनका जनसाधारण एवं गरीब ग्रामीणों से निरंतर सम्पर्क बना रहा। वृद्ध और नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्कक़ायम रखा। वह वर्ष में से 150 दिन रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करते और आमतौर पर छोटे-छोटे स्टेशनों पर रूककर सामान्य लोगों से मिलते और उनके दुःख दर्द दूर करने का प्रयासकरते।
आजादी आन्दोलन में शामिल होने के लिये छोडी वकालत
उन दिनों डॉ. राजेन्द्र प्रसाद देश के गिने चुने नामी वकीलों में गिने जाते थे। उनके पास मान-सम्मान और पैसे की कोई कमी नहीं थी। लेकिन जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलनशुरू किया तो राजेन्द्र बाबू ने वकालत छोड़ दी और अपना पूरा समय मातृभूमि की सेवा में लगाने लगे। अपने मित्र रायबहादुर हरिहर प्रसाद सिंह के मुकदमों की पैरवी के लिए उन्हेंइंग्लैण्ड जाना पड़ा। वरिष्ट बैरिस्टर अपजौन इंग्लैण्ड में हरिहर प्रसाद सिंह का मुकदमा लड़ रहे थे इन्हीं के साथ राजेन्द्र बाबू को काम करना था। अपजौन राजेन्द्र बाबू की सादगीऔर विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए। एक दिन किसी ने अपजौन को कहा कि राजेंद्र बाबू भारत के सफलतम वकीलों में से हैं किन्तु उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने हेतु अपनीवकालत त्याग दी है और वे असहयोग आन्दोलन में गांधीजी के निकटतम सहयोगी बन गये हैं।
बैरिस्टर अपजौन को आश्चर्य हुआ और वे सोचने लगे कि राजेन्द्र बाबू इतने दिनों से मेरे साथ काम कर रहे है पर अपने मुंह से आज तक अपने बारे में कुछ नहीं बताया। अपजौनएक दिन राजेन्द्र बाबू से बोले- लोग सफलता, पद और पैसे के पीछे भागते हैं और आप हैं कि इतनी चलती हुई वकालत को आपने ठोकर मार दी। आपने गलत किया। राजेन्द्र बाबू नेजवाब दिया “ एक सच्चे हिंदुस्तानी को अपने देश को आजाद कराने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए, वकालत छोड़ना तो एक छोटी सी बात है”। अपजौनउनकी देश भक्ति की भावना के सम्मुख नत मष्तक हो गये।
देश रत्न राजेन्द्र बाबू के लिये राष्ट्रीय कर्तव्य था सर्वोच्च
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी सगी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। सज्जनता एवं राष्ट्रपति बनने के बाद भी जनसेवा में समर्पित जीवन
राष्ट्रपति बनने पर भी उनका जनसाधारण एवं गरीब ग्रामीणों से निरंतर सम्पर्क बना रहा। वृद्ध और नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्कक़ायम रखा। वह वर्ष में से 150 दिन रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करते और आमतौर पर छोटे-छोटे स्टेशनों पर रूककर सामान्य लोगों से मिलते और उनके दुःख दर्द दूर करने का प्रयासकरते।
राष्ट्रपति ने मागीं अपने निजी सेवक से माफी
राजेन्द्र बाबू 12 वर्षों तक राष्ट्रपति भवन में रहे, उनके कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन की राजसी भव्यता और शान सुरूचिपूर्ण सादगी में बदल गई थी। राष्ट्रपति भवन में कार्यरतकर्मचारी तुलसी से एक दिन सुबह उनके कमरे में झाड़पोंछ करते वक्त उसके हाथ से राजेन्द्र प्रसाद जी के डेस्क से एक हाथी दांत का पेन नीचे ज़मीन पर गिर गया और पेन टूटगया जिससे स्याही कालीन पर फैल गई। चुकिं यह पेन उन्हें किसी ने भेंट किया था और यह पेन उन्हें प्रिय भी था। राजेन्द्र बाबू ने अपना गुस्सा दिखाने के लिये तुलसी को तुरंतअपनी निजी सेवा से हटा दिया, उस दिन वे बहुत व्यस्त रहे, मगर सारा काम करते हुए उनके ह्रदय में एक कांटा चुभता रहा और वे सोचने लगे कि उन्होंने तुलसी के साथ न्याय नहींकिया है। शाम को राजेन्द्र बाबू ने तुलसी को अपने कमरे में बुलाया तब तुलसी ने राष्ट्रपति को सिर झुकाये और हाथ जोड़े खड़े देखा तो वह हक्का भक्का हो गया, राष्ट्रपति ने धीमेस्वर में कहा, “तुलसी मुझे माफ़ कर दो।” तुलसी इतना चकित हुआ कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया। राष्ट्रपति ने फिर नम्र स्वर में दोहराया,”तुलसी, तुम क्षमा नहीं करोगे क्या?” इसबार सेवक और स्वामी दोनों की आंखों में आंसू आ गये। ऐसी थी उनकी मानवीयता और बड़प्पन |3 दिसम्बर 2018 को राजेन्द्र बाबु के 134 वें जन्म दिन पर हम भारतीय उनके श्रीचरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं |