श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन क्यों हैं आवश्यक ?

दयानन्द शास्त्री
जाने और समझें श्राद्ध पक्ष(महालय/कनागत/पितृपक्ष) में ब्राह्मण भोजन क्यों हैं आवश्यक ??
धर्म ग्रंथों के अनुसार, ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में पितृ भी भोजन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ब्राह्मणों द्वारा किया गया भोजन सीधे पितरों तक पहुंचता है। श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन करवाना एक जरूरी परंपरा है।

पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म के बाद ब्राह्मण भोज कराने का विधान बताया गया है। हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक, श्राद्ध वाले दिन पितर लोग खुद ब्राह्मण वेष धारण कर भोजन ग्रहण करते हैं। इसलिए श्राद्धकर्म कराने वाले हर व्यक्ति को ब्राह्मण भोज अवश्य कराना चाहिए। ऐसा नहीं करने पर पितर संबंधित व्यक्ति को श्राप देकर चले जाते हैं।

श्राद्ध कर्म करने वाले संबंधित व्यक्ति को ब्राह्मण भोज के दौरान कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना चाहिए, जिससे पितरों का आशीर्वाद मिलता है।
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श्राद्ध के निमित्त भोजन में रखें इन सावधानियां को–

-खीर पूरी अनिवार्य है।
-जौ, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ है।
-ज़्य़ादा पकवान पितरों की पसंद के होने चाहिए।
-गंगाजल, दूध, शहद, कुश और तिल सबसे ज्यादा ज़रूरी है।
-तिल ज़्यादा होने से उसका फल अक्षय होता है।
-तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं।
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श्राद्ध के भोजन में क्या न बनाएं या परोसें ??
-चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा
-कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, प्याज और लहसन
-बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, खराब अन्न, फल और मेवे
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ब्राह्मणों का आसन कैसा हो ??
-रेशमी, ऊनी, लकड़ी, कुश जैसे आसन पर भी बैठाएं।
-लोहे के आसन पर ब्राह्मणों को कभी न बैठाएं।
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ऐसी मान्यता है कि ब्राह्मणों को भोजन करवाए बिना श्राद्ध कर्म अधूरा माना जाता है। इसलिए विद्वान ब्राह्मणों को पूरे सम्मान और श्रद्धा के साथ भोजन कराने पर पितृ भी तृप्त होकर सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं।

भोजन करवाने के बाद ब्राह्मणों को घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितृ भी चलते हैं।
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श्राद्ध तिथि पर सबसे पहले ब्राह्मणों को आमंत्रित करें।

ध्यान रखें..

ब्राह्मण देवता को दक्षिण दिशा में ही ​​बैंठाएं, क्योंकि दक्षिण दिशा में ही पितर लोग वास करते हैं। हाथ में अक्षत, फूल, जल और तिल लेकर संकल्प कराएं।
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गाय, कुत्ते, चींटी तथा देवगण को भोजन अर्पित करने के बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं।
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ब्राह्मण देवता को दोनों हाथों से ही भोजन परोसें, एक हाथ से परोसा भोजन पितर को नहीं मिलता है।
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बिना ब्राह्मण भोज के पितर श्राप देकर अपने लोक को लौट जाते हैं। भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों को कपड़े, अनाज और दक्षिणा देकर आशीर्वाद लें।इतना ही नहीं ब्राह्मण भोज के पश्चात उन्हें उनके द्वार तक छोड़ें।
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ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि ब्राह्मणों के साथ पितर भी अपने लोक को चले जाते हैं। ब्राह्मण भोज के बाद खुद तथा अपने रिश्तेदारों को भी भोजन जरूर कराएं।
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पितृ पक्ष में अगर कोई भिक्षा मांगे तो उसे आदर के साथ भोजन कराएं। कुत्ते और कौए का भोजन, कुत्ते और कौए को ही खिलाएं। दामाद, भांजे और बहन को भोजन कराए बिना पितर भी भोजन नहीं करते हैं।
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श्राद्ध के दिन यदि कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण, अतिथि या साधु-सन्यासी घर पर पधारें तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिए। श्राद्धकर्त्ता को घर पर आये हुए ब्राह्मणों के चरण धोने चाहिए। फिर अपने हाथ धोकर उन्हें आचमन करना चाहिए। तत्पश्चात उन्हें आसनों पर बैठाकर भोजन कराना चाहिए।

पितरों के निमित्त अयुग्म अर्थात एक, तीन, पाँच, सात इत्यादि की संख्या में तथा देवताओं के निमित्त युग्म अर्थात दो, चार, छः, आठ आदि की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। देवताओं एवं पितरों दोनों के निमित्त एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराने का भी विधान है।
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वायु पुराण में बृहस्पति अपने पुत्र शंयु से कहते हैं-

“जितेन्द्रिय एवं पवित्र होकर पितरों को गंध, पुष्प, धूप, घृत, आहुति, फल, मूल आदि अर्पित करके नमस्कार करना चाहिए। पितरों को प्रथम तृप्त करके उसके बाद अपनी शक्ति अनुसार अन्न-संपत्ति से ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। सर्वदा श्राद्ध के अवसर पितृगण वायुरूप धारण कर ब्राह्मणों को देखकर उन्ही आविष्ट हो जाते हैं इसीलिए मैं तत्पश्चात उनको भोजन कराने की बात कर रहा हूँ। वस्त्र, अन्न, विशेष दान, भक्ष्य, पेय, गौ, अश्व तथा ग्रामादि का दान देकर उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। द्विजों का सत्कार होने पर पितरगण प्रसन्न होते हैं।”

(वायु पुराणः 75.12-15)

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रखें इन बातों का ध्यान श्राद्ध का खाना बनाते समय —
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पितरों का आशीर्वाद पाने के लिए
(अपने पूर्वजों के लिए) श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष में अनुष्‍ठान किया जाता है। पितृ पक्ष में श्राद्ध वाले दिन ब्राह्मण भोजन का बहुत महत्व है। शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध वाले दिन पितृ स्वयं ब्राह्मण के रूप में उपस्थित होकर भोजन ग्रहण करते हैं। इसलिए अपने पितरों के श्राद्ध के दिन घर में ब्राह्मण भोज जरूर कराना चाहिए। हालांकि शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध का भोजन बनाते समय बहुत सावधानी रखना चाहिए नहीं तो पितृ नाराज भी हो सकते हैं। जी हां श्राद्ध का खाने बनाते समय पूरी शुद्धता के साथ हर चीज साफ और स्वच्छ होनी चाहिए। आइए जानिए श्राद्ध का भोजन बनाते और खिलाते समय किन बातों का ध्यान समय रखना चाहिए तभी पितरों का आशीर्वाद हैं।
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क्या हो श्राद्ध हेतु भोजन निर्माण की दिशा ??
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि श्राद्ध का खाना बनाते समय दक्षिण की तरफ मुंह करके खाना नहीं बनाना चाहिए। पूर्व की तरफ मुंह करके ही खाना बनाना चाहिए। आप किस दिशा की ओर मुंह करके खाना बनाते हैं और किस दिशा की ओर मुंह करके खाना खाते हैं, इस पर कई बातें निर्भर करती हैं क्योंकि वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में सब से महत्वपूर्ण हिस्सा रसोई को माना जाता है।आपका रसोई घर में किसी भी दिशा में हो, लेकिन खाना बनाने वाले का मुंह पूर्व दिशा की ओर ही रहे, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए।
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सम्भव हो तो करें चांदी के बर्तनों का प्रयोग (भोजन बनाने और खिलाने हेतु) —
शास्त्रों में चांदी को सबसे पवित्र, शुद्ध और अच्‍छी धातु माना गया है। श्राद्ध में ब्राह्मणों को चांदी के बर्तन में भोजन कराने से बहुत पुण्य मिलता है। इसमें भोजन कराने से समस्त दोषों और नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। अगर चांदी के बर्तन में रखकर पानी पितरों को अर्पण किया जाए तो वे संतुष्ट होते हैं।

चांदी की थाली या बर्तन उपलब्ध न हो तो सामान्य कागज की प्लेट या दोने-पत्तल में भी भोजन खिलाया जा सकता हैं।
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बिना चप्‍पल के बिना बनाए रसोईघर में श्राद्ध का भोजन —

ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि श्राद्ध का भोजन बनाते समय चप्‍पल (जूते) पहनने से बचना चाहिए।जैसा कि आजकल अधिकांश घरों में होता हैं।

यदि कोई अन्य व्यक्ति (हलवाई या कारीगर) भी ऐसे में श्राद्ध का भोजन बनाये तो ध्यान रखें, जूते ना पहने हो।
हां आप लकड़ी की चप्‍पल पहनकर भोजन निर्माण कर सकते हैं क्‍योंकि लकड़ी को शुद्ध माना जाता है। पुरातन समय में चमड़े का जूता पहनना, कई धार्मिक कारणों से मान्य नही था। इसलिए खड़ाऊ का ही इस्तेमाल किया जाता था। सम्भव हो तो आप भी खाना बनाते समय लकड़ी के खड़ाऊ का इस्‍तेमाल करें।
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समझें श्राद्ध में खीर का महत्व–
श्राद्ध में खीर का विशेष महत्‍व है, लेकिन कोशिश करें कि खीर गाय के दूध से बना हो। भैंस के दूध को प्रयोग नही करना चाहिए। श्राद्ध में दूध, दही, घी का इस्तेमाल किया जाता है। इस बात का ध्यान रखें कि दूध, दही, घी गाय का ही हो।

पंडितों के अनुसार खीर सभी पकवानों में से उत्तम है। खीर मीठी होती है और मीठे खाने के बाद ब्राह्मण संतुष्ट हो जाते हैं जिससे पूर्वज भी खुश हो जाते हैं। पूर्वजों के साथ-साथ देवता भी खीर को बहुत पसंद करते हैं इसलिए देवताओं को भोग में खीर चढ़ाया जाता हैं।
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लहसुन और प्‍याज से बचें —
श्राद्ध के दिन लहसुन, प्याज रहित सात्विक भोजन ही घर में बनाना चाहिए। मूली, बैंगन, आलू, अरबी आदि जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियां पितरों के श्राद्ध के दिन नहीं बनाई जाती है।
इस दिन उड़द की दाल के बड़े, दूध घी से बने पकवान, चावल की खीर, बेल पर लगने वाले मौसमी सब्जियां जैसी लौकी, तोरी, भिंडी, सीताफल और कच्चे केले की सब्जी ही बनानी चाहिए।

श्राद्ध के दिन प्याज, लहसुन रहित सात्विक भोजन ही घर बनाना चाहिए, जिसमें देसी-घी, दूध से बने व्यंजन, चावल, पूरी, बेल पर लगने वाली मौसमी सब्जियां जैसे कि तोरई, लौकी आदि सब्जी ही बनानी चाहिए।
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नमक का करें सही इस्‍तेमाल–
भोजन की शुद्धता के लिए नॉर्मल नमक की बजाय आपको सेंधा नमक का इस्‍तेमाल अच्‍छा माना गया है। आयुर्वेद में रोजाना सेंधा नमक को प्रयोग में लाने की बात कही गई है क्योंकि यह सबसे शुद्ध होता है और इसमें किसी भी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
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श्राद्ध में ब्राह्माण भोजन से पहले अग्नि को भाग जरूर करना चाहिए, इसेस ब्राह्माण द्वारा किया गया भोजन सीधे पितरों को मिलता है, ब्रह्माराक्षस उसे दूषित नहीं कर पाते है।

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क्या आप सभी में से किसी ने कभी सोचा है कि हम श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन क्यों कराते हैं ? इस रीति के पीछे क्या राज है ?

भारत देश में प्रचलित अनेक परम्पराएं काफी पुरातन समय से चली आ रही है। पहले समाज चार वर्गों में बांटा गया था।
ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र।

सभी के अपने अलग-अलग कार्य नियत थे। ब्राह्मण का कार्य पूजा-पाठ और वेद पठन थाl ब्राह्मण की आय का साधन, जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत चलने वाले सभी संस्कारों को करना था,जिसमें मिली दक्षिणा से वह अपने परिवार और उसकी आवश्यकता को पूरा करता था। क्षत्रिय वर्ग के लोगों का कार्य समाज की रक्षा करना और संचालन करना था। समाज की नीतियों को संभालना था। अपने देश और धर्म की रक्षा करना क्षत्रिय का फर्ज थाl देश की रक्षा के लिए युद्ध करने का अधिकार क्षत्रिय वर्ग को थाl शस्त्र चलाने का अधिकार इनके पास सुरक्षित था।
तृतीय वर्ग वैश्य वर्ण के लोगों का कार्य रोजगार करना और व्यापार करना था। साहूकार से लेकर,दुकानदार तक सभी इसी वर्ण में आते थे और उनकी आय का साधन उनका अपना व्यापार था। सभी वर्ग के लोग अपना अपना कार्य करते थे।

चौथा वर्ग शूद्र था,जिस वर्ण के लोगों का कार्य सफाई करना था। चूँकि,शूद्र का कार्य समाज और मुहल्ले की सफाई का था,तो स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से लोग इन्हें छूते नहीं थे,क्योंकि उस समय गटर-पाइप लाइन्स नहीं थे। मल,मूत्र और गंदगी सीधा नाली में ही होती थी। शौचालय भी ऐसे होते जिसमें मल एकत्रित रहता था। उसको भरकर ये लोग नाली में बहा देते थे। तो कीटनाशक भी कहाँ थे उस समय,गोबर और कंडे जलाकर कीटाणु खत्म कर दिए जाते थे,तो कीटाणु ना फैले इसलिए,सफाईकर्मी को छूने की मनाही थी,लेकिन धीरे-धीरे कुरूतियों के कारण शूद्र को कुलीन और मलिन समझ कर समाज से नीचा और तुच्छ समझा जाने लगा,जो बनाई गई वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध और अनुचित था।
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अब बात करते हैं,प्रथम वर्ण यानी ब्राह्मण की,तो यह सबसे पूजनीय वर्ण था,इसलिए समाज में प्रथम स्थान मिला। उस समय वर्ण व्यवस्था के साथ ही चलती थी संस्कार व्यवस्था।
१६ संस्कार,जिसमें जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी संस्कार जुड़े थेl इन सभी का संचालन का कार्य ब्राह्मण को था,क्योंकि संस्कार विधा के लिए वेद पढ़ने जरूरी थे।
वेद पाठन ब्राह्मण का कार्य था। ब्राह्मण को याचन हेतु मिली दक्षिणा से संतुष्ट रहना होता था। संतोष और ईश्वर भक्ति ही उनकी पहचान थी।

ब्राह्मणों को माँगना धर्म के विरुद्ध था,इसलिए हर वर्ग का व्यक्ति,जो समाज का हिस्सा था,श्रद्धा से हर कार्य में प्रथम भाग ब्राह्मण को दे उसे सन्तुष्ट करता था।

भगवान की भक्ति और चिंतन में लीन रहने के कारण धरती पर ईश्वर को खुश करने हेतु,व्यक्ति ब्राह्मण को ही साधक मानते थे।
अपितु,वर्ण व्यवस्था की हानि से जहाँ सभी वर्ग के नीति और कार्यो में हस्तक्षेप हुआ,सभी व्यवस्था गड़बड़ा गई।

अब व्यक्ति किसी वर्ण और कार्य के बंधन से मुक्त हो अपनी रुचि अनुसार कार्य करने लगे। संस्कारों का पतन हो गया,सभी व्यवस्था क्षीण हो गई।
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ब्राह्मण को भोजन इसलिए कराया जाता था,क्योंकि उसकी व्यक्तिगत आय का कोई जरिया नहीं था। वैवाहिक कार्य में भी नियमानुसार चार महीने का निषेध था,तो इन चार मास में जब कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता था,तब उसकी आय का जरिया सिर्फ चढ़ावा या दक्षिणा ही थी।
मृत्यु के जो भी संस्कार होते हैं,वो अलग ब्राह्मण करवाते थे, क्योंकि उसकी अलग विधा और नियम होते थे। जो शुभ कार्य कराने वाले ब्राह्मण होते थे,वो इन चार महीने को आपकी भाषा में बेरोजगार समझ-बोल सकते हैं।

अब जो शिक्षित वर्ग `किसी गरीब को खाना खिला दो,श्राद्ध करने से बेहतर है`,ऐसी सोच रखते हैं,वो पढ़कर फिर सोचें कि शास्त्रों में जो भी वर्णन है,उसके पीछे बहुत गहरे राज और बहुत सोच-विचार कर ही बनाया गया होगा।

अपने घर के पितर को अगर हम एक दिन भोज नहीं दे सकते तो क्या हम सही कर रहे हैं ?

मृत्यु जितना शाश्वत सच है, शास्त्र और पुराण भी उतना ही सत्य है। हम यही संस्कार अपनी पीढ़ी को स्थानांतरित कर रहे हैं। तो,अपनी मृत्यु के पश्चात का दृश्य अभी से सोंचकर चलें।

पाश्चात्यता को उतना ही अपनाएं,जितना हितकर होl बिना सोचे और जाने किया गया अनुसरण गति को नहीं,दुर्गति को आमंत्रण देता है।

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