जैन समाज के गौरव और मेवाड़ के गांधी श्री चांदमल सुखलेचा

भूले बिसरे लोग ,आज कहां है, वैसे नेता जो रिश्वत ही नहीं अपितु सिफारिश से भी परहेज करते थे, उसको पाप समझते थे l राजस्थान के मेवाड़ अंचल में राजसमंद जिले के निवासी श्री चांदमल सुखलेचा एक ऐसे ही प्रखर गांधीवादी कार्यकर्ता थे , जिन्होंने अपने 95 वर्ष के जीवन में सक्रिय सार्वजनिक जीवन के चलते कभी भी व्यक्तिगत लाभ के लिए अपने प्रभाव और नाम का इस्तेमाल नहीं किया । यह वर्ष उनका शताब्दी वर्ष है ,मेवाड़ के गांधी के रूप में अपनी पहचान रखने वाले इस इस शख्स ने अपने जीवन के 95 वर्ष में सक्रिय राजनीतिक जीवन के चलते व्यक्तिगत लाभ के लिए कभी अपने प्रभाव और नाम का इस्तेमाल नहीं किया ।
*शताब्दी वर्ष में इस महान गांधीवादी व्यक्तित्व को शत शत नमन हार्दिक श्रद्धांजलि सहित प्रणाम*
यह सुप्रसिद्ध गांधी वादी विचारक जो देवगढ़ मदारिया क्षेत्र में मेवाड के गांधी जैसी पहचान रखने वाले स्वतन्त्रता सेनानी थे जिन्होंने प्रदेश कांग्रेस द्वारा विधान सभा चुनाव के लिए पार्टी टिकट की पेशकश को अपने घर आयी एक महिला के अनुरोध पर उनके पक्ष मे अपनी दावेदारी त्याग दी और उनकी आशंका को समाप्त करने के लिए उन्हें यह वचन दिया कि वे जीवन पर्यंत कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे और यह भीष्म प्रतिज्ञा जीवन भर निभाई । जो आज के दौर में बेमिसाल है । ये सज्जन और कोई नहीं , मेरे श्रद्धेय फूफा सा. थे ,जो खादी ग्रामोद्योग मंडल के चेयरमैन होने के 20 वर्ष तक न्याय पंचायत के निर्विरोध सरपंच रहे। यह वर्ष उनका शताब्दी वर्ष है । नतमस्तक श्रद्धान्जलि के साथ उनका स्मरण करते हुए तहेदिल से हार्दिक अभिनन्दन !🙏श्री सुखलेचा जी सादगी की प्रतिमूर्ति और सच्चे जैन थे ।वे किसी का दिल दुखाने से भी परहेज करते थे , इसी कारण जब आम चुनाव के समय प्रदेश कांग्रेस पार्टी द्वारा भीम देवगढ़ विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी के रूप में नामांकित किया गया तो वे अपने घर आई एक राजपूत महिला जो देवगढ़ राजपरिवार की विधवा बेटी थी , उनके अनुरोध पर पार्टी का टिकट ख़ुशी-ख़ुशी उनकी झोली में डाल दिया और उनकी आशंका को समाप्त करने के लिए उन्होंने जीवन पर्यंत कोई चुनाव नहीं लड़ने का वचन दिया और उन्होंने अपना यह वचन आजीवन निभाया । वे ईद के चांद की तरह रोशन चरित्र वाले सादगी पसंद और उसूलों के पक्के इंसान थे । श्री सुखलेचा जी पर सारे जैन समाज को नाज है ,गर्व है ।उनका जन्म मेवाड़ अंचल के राजसमंद जिले में छापली ग्राम में हुआ , जो वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की विजय स्थली के रूप में विख्यात है ।उनकी किशोरावस्था में मेवाड़ की देसी रियासतों में सामंतवाद का बोलबाला था और जमींदारों के अत्याचार से बचने के लिए प्रजा अपने क्षेत्र को छोड़कर अजमेर मेरवाडा में ब्यावर अजमेर की ओर शरण ले रही थी और इस पलायन से किसानों की मुश्किलें बढती जा रही थी । वे जमींदारों के अन्याय और शोषण को देख कर किसान सत्याग्रह की आवाज बुलंद करने के प्रजामंडल के नेताओं से सम्पर्क में आये ।
*कालेज में दाखिला*
भीम से हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे कॉलेज की पढ़ाई के लिए ब्यावर आ गए ,जहां छात्रावास में रहते हुए , वे प्रजामंडल के अनेक नेताओं के संपर्क में आए । मेवाड़ प्रजामंडल के अध्यक्ष भूरे लाल बया के संपर्क में आने के बाद में प्रजामंडल आंदोलन से जुड़ गए । इसी दौरान विनोबा भावे ,सिद्धराज ढड्डा , गोकुलभाई भट्ट ,महादेव भाई देसाई मोहनलाल सुखाड़िया ,हीरालाल शास्त्री, माणिक लाल वर्मा आदि नेताओं के संपर्क में आने से वे स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही बन गये।
*असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी*
ब्रिटिश काल के उस दौर में उस पूरे इलाके से कॉलेज की पढ़ाई करने वाले , वे पहले व्यक्ति थे । बाद में महात्मा गांधी के आव्हान पर उन्होंने ग्रेजुएशन की पढ़ाई इंटरमीडिएट के बाद ही छोड़ दी और स्वाधीनता की लड़ाई में कूद पड़े। इस दौरान कई बार जेल यात्रा भी की । इस समय वे जेल में भूखे रहकर अथवा केवल चने खाकर अपना गुजारा करते थे।कभी-कभी दो दो दिन तक बिना भोजन के भी रहना पड़ा । इन्हीं दिनों में उन्हे पंडित जवाहरलाल नेहरू , डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं के साथ मुलाकात और विचार-विमर्श का अवसर भी उपलब्ध हुआ ।
*उसूल के पक्के सिद्धांत वादी*
प्रजा मण्डल के साथ किसान सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी के कारण कालांतर में वे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड भीम के चेयरमैन बनाये गये । वे लगभग 20 वर्षों तक न्याय पंचायत के निर्विरोध सरपंच भी रहे । इसके अलावा वर्षों तक खादी ग्रामोद्योग मंडल के चेयरमैन के एवं निदेशक रहे परंतु अपनी भीष्म प्रतिज्ञा का पालन करते हुए जीवन पर्यंत कोई चुनाव नहीं लड़ा । अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया ।वे उसूल के पक्के सिद्धांत वादी इंसान थे । इस आलेख में राजपरिवार की जिस महिला का जिक्र हुआ है, वे और कोई नहीं रानी लक्ष्मी कुमारी चुण्डावत थी जो कालांतर में राजस्थान प्रदेश साहित्य अकादमी तथा कांग्रेस की अध्यक्षा बनी और विधान सभा से वे सांसद बनकर राज्य सभा भी पहुँची तथा भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म श्री अलंकरण भी दिया गया । वे पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह जी के ससुराल पक्ष में राव नाहर सिह की बहिन थी ।और बाई सा के नाम से लोकप्रिय हुई।
*सादा जीवन – उच्च विचार*
सौम्य व्यवहार और सरल स्वभाव के कारण अपने क्षेत्र की जनता में वे बहुत लोकप्रिय थे । रहन सहन और साधारण पहनावा उनकी सहज पहचान थी ।महात्मा गांधी की प्रेरणा से उन्होंने छात्र जीवन में खादी को अपनाया और जीवन पर्यंत उसे निभाया ।वेशभूषा से खादी के श्वेत वस्त्र धारी श्री सुखलेचा जी अपने उपयोग के लिए केवल दो ही पोशाक रखते थे ,जिसमे धोती कुरता , टोपी ,रुमाल , मफलर यहां तक की उनका धेला भी खादी का होता था ।
*डायरी लेखन*
वे प्रतिदिन डायरी नियमित रूप से लिखते थे वे प्राय दो तरह की डायरी का उपयोग करतेथे ,छोटी डायरी गीता दैनंदिनी और बड़ी डायरी गांधी डायरी हुआ करती थी । डायरी लेखन जो उनके विद्यार्थी जीवन से शुरू हुआ ,वह उनके जीवन की संध्या तक अनवरत जारी रहा ।यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे अपनी किशोरावस्था में कक्षा 7 से लेकर कक्षा 10 सेकेंडरी स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने तक मुझे उनका निकट सानिध्य प्राप्त हुआ l दरअसल हुआ यह था कि आज से 50 वर्ष पूर्व जब गांधी शताब्दी वर्ष था ,एक दिन अचानक मेरे दादा जी ने फूफा जी को याद किया और उन्हें मैं मिलने आने हेतु संदेश भिजवाया। दादा जी मेवाड़ रियासत के आसन ठिकाने में कामदार के रूप में कार्यरत थे , उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था , इस कारण उन्होंने अपने दामाद से मिलने की इच्छा व्यक्त की । फूफा जी आए दिन भर साथ रहे , बुआ सा भी साथ थे । दादाजी ने आग्रह कर मेरे माता जी को हलवा बनाने का निर्देश दिया । इस पर फूफा जी ने उन्हें रोका तो उन्होंने कहा, मारे क्यू अंतराय लगा हो सा आपरे लारे म्हानै भी सीरो खावा रो जोग मिल रह्यो है यानि आप के साथ मुझे भी हलवा खाने का अवसर मिल जाएगा। बातचीत का दौर चलता रहा। फिर एकाएक दादा जी ने संकेत से मुझे अपने पास बुलाया और फूफाजी से कहा , ई बाबू पै म्हारो घणो जीव है, पर ये आखो दिन कागज काटतो हीज रेवै , इको भविष्य काई हो ई यो आपरे भरोसे है । भणवा में तो ई री रुचि है सो इने आगे पढावा की जुमेवारी आप लो ,जहां ताई पढबो चावे ।इस पर फूफा सा ने उनको आश्वस्त करते हुए कहा मै पढाउंगा,इसकी आप बिलकुल चिंता मत करो । उसके बाद सभी ने भोजन कर लिया तो उन्होंने कहा आप दोनों भी अब पधारो ।आपसे मिलणो हो ग्यो , अब मारो जीव सोरो है । उस समय किसी को आभास तक नहीं था कि आज की रात दादा जी के जीवन की आखिरी रात थी । देर तक हम सभी बातें करते रहे । मैं उनके पांव दबा रहा था फिर ज्यादा रात होने पर उन्होंने सबसे बात करते हुए चिरनिद्रा में सो गए । उन दिनों मैं छठी कक्षा में रहा था।स्कूल में अर्द्ध वार्षिक परीक्षा प्रारंभ हो गयी थी । प्रातः दादा जी के दाह संस्कार के बाद शमशान भूमि से सीधे साईकिल सवार के साथ मुझे परीक्षा देने के लिए स्कूल जाना पड़ा । यह वर्ष जीवन में कई परिवर्तन लेकर आया ।अगले वर्ष से फूफाजी ने मेंरा दाखिला अपने गांव छापली में करवा कर मुझे अपने पास बुला लिया ।उनके निकट सान्निध्य के कई संस्मरणों की स्मृति मेरे मन में ताजा हो आयीहै । यह लगभग 50 वर्ष पुरानी बात है कि मेरे विद्यालय का वार्षिकोत्सव आयोजित हो रहा था और वहां के प्रधानाध्यापक जी भी फूफा जी के ही गांव छापली से थे सो उन्होंने उस अवसर पर समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था सुप्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता श्री चांदमल सुखलेचा जी को । गांधी शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो चुकी थी , इस अवसर पर विद्यालय में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें महात्मा गांधी जी की विभिन्न 100 चित्र भिन्न-भिन्न मुद्राओं में कार्ड शीट पर पोस्टर बनाकर प्रदर्शित किए गए थे। मुख्य अतिथि का ध्यान जब उस ओर गया तो उन्होंने यह चार्ट तैयार करने वाले विद्यार्थी के बारे में पूछा तो उन्हें बताया गया कि ये श्रमसाध्य कार्य को विद्यालय की छठी कक्षा के छात्र द्वारा अंजाम दिया गया है जो अभी केवल मात्र ग्यारह वर्ष का है तो समारोह में उनके द्वारा सम्बंधित छात्र की मेहनतऔर लगन कीभूरी भूरी सराहना की ।बालक मे छुपी हुई प्रतिभा और कल्पना शक्ति का अंदाज़ अंदाज विद्यालय के वार्षिक उत्सव पर आयोजित प्रदर्शनी में प्रदर्शित पोस्टर को देखकर हो गया था आखिर उन्होंने गांधी युग का जमाना जो देख रखा था उन्होंने बच्चे को पुरस्कृत करने की घोषणा की ।और जब पुरुस्कार वितरण की बारी आयी तो मुझे सामने पाकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और मेने भी उनके पांव छूकर उनका आशीर्वाद लिया और फिर पारितोषिक प्राप्त किया । लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से उनका अनुमोदन किया । इस आलेख में जिस बालक का जिक्र किया गया है वह कोई और नहीं आसन ठीकरवास निवासी बाबूलाल सामरा था और मुख्य अतिथि अतिथि स्वयं श्री सुखलेचा
जी थे , जो बालक के फूफाजी थे और विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्री दुर्ग सिंह जी थे जो उन्हीं के गांव छापली निवासी थे । जब मेरा दाखिला अगले वर्ष वहां के विद्यालय में करवाया गया तो हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक जी श्री कानमल जी साहब नाहर थे ,जो अजमेर निवासी थे । मेरी किशोरावस्था उनके ही सानिध्य में व्यतीत हुई ,जहां मैंने हाई स्कूल तक अपनी स्कूली शिक्षा पूर्ण की । उनके द्वारा प्रदत्त संस्कार मेरे जीवन का सदैव मार्ग प्रशस्त करते रहे ।गांधी जयंती के अवसर पर उन्होंने मुझे भारत सरकार द्वारा विशेष रूप से जारी ₹10 का चांदी का सिक्का प्रदान किया जिसे मैंने मेडल की भांति आज तक सम्भाल कर रखा हुआ है बतौर उनकी स्मृति और आशीर्वाद शुरू स्वरूप ।
यह समय वर्ष 1971 का था जब भारत पाक युद्ध जारी था और भारतीय सेनाओं ने बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की अगुवाई वाली मुक्ति वाहिनी का सहयोग करते हुए पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त करवाया और एक नए देश का सृजन बांग्लादेश के नाम से दुनिया के नक्शे पर उभर कर सामने आया । यह तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की जबरदस्त कूटनीतिक सफलता थी जिसने द्वारा उन्होंने पाकिस्तान को विखंडित कर दो टुकड़ों में बांट दिया ।उन दिनों गांवों तक टेलिविजन की पहुंच नहीं थी । तब लोग बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा से युद्ध का आंखों देखा हाल और भारतीय फौजियों की विजय यात्रा की बारे में नवीनतम जानकारी से अवगत होते थे ।इस दौरान मैंने वहां अपने फूफाजी के सानिध्य में रहते हुए अपने सामान्य ज्ञान का विकास किया और विद्यालय में आयोजित होने वाली प्रत्येक पाठ्यत्तर प्रवृत्तियों में बढ़-चढ़कर भाग लिया और उनके प्रोत्साहन से न केवल प्रतिवर्ष अपनी कक्षा में अव्वल रहकर प्रथम स्थान प्राप्त किया वरन माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी प्राप्त की तथा उन दिनों विद्यालय में आयोजित होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं यथा आशुभाषण ,वाद विवाद प्नतियोगिता निबंध लेखन तथा एकाभिनय एवं नाटक मंचन इत्यादि प्रवृत्तियों में बढ़-चढ़कर भाग लिया ।फूफा जी का सबसे छोटा बेटा ललित जिसने पिलानी के प्रतिष्ठित बिरला इंस्टीट्यूट बिट्स से इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियर की उपाधि ऑनर ऑनर्स सहित प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की उसको सम्मान जनक नौकरी के लिए दक्षिण में विशाखापट्टनम से लेकर दैश की राजधानी दिल्ली और राजस्थान की औद्योगिक राजधानी कोटा तथाु गुलाबी नगरी जयपुर तक विभिन्न संस्थानों की शरण में जाना पड़ा तथा अपने सेवाकाल के दौरान 8 वर्ष की अवधि में दस दस स्थानांतरण झेलने़े पड़े मगर फूफा जी ने अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल अपने बेटे के हित के लिए कभी नहीं किया । उनका कहना था ,अगर नौकरी करना है तो सरकार जहां भी भेजे , वहां जाने के लिए तत्पर रहो वरना घर बैठो । यह अपने उसूलों के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा थी । जबकि उन दिनों रानी लक्ष्मी कुमारी चुंडावत मोहनलाल सुखाड़िया हीरालाल देवपुरा गुलाबचंद कटारिया चंदनमल वेद इत्यादि राजनेताओं से उनके निकट संबंध थे मगर उन्होंने एक भी बार इस बाबत उनसे अनुरोध नहीं किया । एक और उदाहरण उनके एक अन्य पुत्र जो बेंगलुरु में व्यवसाय रत हैं और बचपन से लकवा ग्रस्त होने के कारण वे चलने फिरने में असमर्थ हैं ।उन्होंने एक बार अपने पिताजी से आग्रह किया कि इस समय श्री मोहनलाल सुखाड़िया कर्नाटक के गवर्नर हैं और वे आपके अच्छे मित्र हैं, अगर आप उनसे कहें तो मुझे बेंगलुरु में गोल्ड शोरूम के लिए लाइसेंस मिल सकता है ।इस पर उनका कहना था कि तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया कि मैं उन्हें इसके लिए दरखास्त करूंगा । अगर वहां कर्नाटक में तुम्हारा व्यवसाय ठीक प्रकार नहीं चल रहा है तो राजस्थान चले आओ। यह थी उनके सिद्धांत वादी उसूलों की एक झलक जिस के लिए उन्होंने जीवन पर्यंत कभी कोई समझौता नहीं किया ।
एक और बात उन्हें अपने क्षेत्र में आवागमन हेतु स्थानीय बस ऑपरेटर्स द्वारा फ्री पास उपलब्ध करवाया गया था मगर उन्होंने सदैव यह कहा कि बस का किराया तुम लोग माफ कर सकते हो मगर सरकार का टैक्स दो मुझे जरूर देना ही है तो सिर्फ टैक्स टिकट ही बना दो । इस तरह उन्होंने सरकारी राजस्व मैं कमी अथवा चोरी को कभी गवारा नहीं किया ।
इस आलेख के प्रारंभ में मैंने अपने स्वनाम धन्य दादा जी का जिक्र किया है उन का नाम था , सेठ घासी राम जी सामरा । वे सहजता की सौम्य प्रतिमूर्ति थे। दादाजी बचपन से ही मेरे प्रेरणास्रोत रहे । रियासत और ठिकाने में कामदार रहने की वजह से वे सभी लोगों से बड़ी शिष्टता से और आदर के साथ पेश आते थे । बार-बार बातचीत में वे बड़ो हुकम सा फरमाओ सा इत्यादि शब्दों का उच्चारण करते थे। मेवाड़ क्षेत्र में प्रायः सभी जगहों पर मृत्यु भोज का चलन था । दादा जी ने अपने जीवन काल में ही प्रयागराज त्रिवेणी की यात्रा कर गंगोज का आयोजन किया जिसे पच कोशिया के नाम से आदर दिया जाता था ।
उन्होंने अपने जीवन की संध्या को नजदीक जानकर पूरे चोखले में पांच पांच कोस तक सभी गांव वासियों को सपरिवार सामूहिक भोज का निमंत्रण दिया और उसके प्रतीक स्वरूप अपने गांव में पथवारी का निर्माण कराया । दादा जी ने अपने दामाद को सदैव पुत्रवती स्नेह दिया और वे अपने इकलौते पुत्र जो उनसे अवस्था में बहुत छोटे थे , उनका भी संरक्षक बना बना दिया ।
मुझे इस बात का गौरव है कि मैं एक ऐसे पिता की संतान हूं जिन्होंने अपनी लकवा ग्रस्त माताजी की पूरे 18 वर्षों तक सेवा की, जिस की आज के इस युग में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती है ।वे सच्चे अर्थों में सेवाभावी और साक्षात श्रवण कुमार के सादृश्य सम्मान के हकदार है ।
यह वर्ष हमारा देश पंडित जवाहरलाल नेहरु की 130 वी जयंती मना रहा है , उसी तरह से चूंकि हमारे दादाजी भी नेहरू जी के समकालीन थे और उनकी भी इस वर्ष 130 वी जयंती है ।इस अवसर पर मैं उन्हें पूरी श्रद्धा के साथ भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करना अपना फर्ज समझता हूं और अपने पिताश्री के प्रति तहे दिल से सम्मान पूर्वक सेवाभावी मातृ भक्त श्रवण कुमार के नाम से संबोधित करता हूं और इस आलेख का समापन करने से पूर्व अपने ह्रदय की तमाम गहराइयों से अपने श्रद्धेय फूफा जी सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक मेवाड़ के गांधी के रुप में ख्याति प्राप्त स्व .श्री चांदमल जी साहब सुखलेचा को शताब्दी वर्ष पर श्रद्धा पूर्वक स्मरण करते हुए शत-शत नमन करता हूं । वे जैन समाज के गौरव और हमारे आदर्श प्रेरणा पुरुष हैं
*उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि*

बी एल सामरा

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