बाबुल तुम बगिया के तरूवर….

(स्व: गोपाल सिंह नेपाली.)
(8 मार्च महिला दिवस के लिए विशेष)

बाबुल तुम बगिया के तरूवर, हम तरूवर की चिडिया.
दाना चुगते उड जाए हम, पिया मिलन की घडिया.
उड जाएं तो लौट न आए, जो मोती की लडियां.
छितराये नौ लाख सितारें, नभ ने तेरी छाया में.
मंदिर मूरत तीरथ देखें, हमने तेरी काया में.
हमने दुख में भी सुख देखा, तुमने बस कन्या मुख देखा.
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो, हम कोमल पखुंडियां. उड जाएं……..
हमको सुध न जनम के पहले, अपनी कहां अटारी थी.
आंख खुली तो नभ के नीचे, हम थे, गोद तुम्हारी थी.
ऐसा था वह रैन बसेरा, जहां सांझ भी लगे सवेरा.
बाबुल तुम पगडी समाज की, हम पथ की कंकडियां. उड जाएं….
बचपन के भोलेपन पर, जब छिटके रंग जवानी के.
प्यास प्रीति की जागी तो, हम मीन बने बिन पानी के.
जनम जनम के प्यासे नयना, चाहे नही कुंआरे रहना.
बाबुल तुम गिरीराज हिमालय, हम झरनों की कडियां. उड जाएं ….
चढती उम्र बढी तो, कुल मर्यादा से टकराई.
पगडी गिरने के डर से, दुनियां जा डोली ले आई.
जो घूंघट से डर डर झांके, वरा उसे बाजे बजवा के.
पहनाई चूडी सुहागकी, या डाली हथकडियां. उड जाएं….
वेदशास्त्र थे लिखे पुरूष के, मुश्किल था बचकर जाना.
हारा दांव बचा लेने को, पति को परमेश्वर माना.
दुल्हन बनकर, दिया जलाया. दासी बन घर-बार चलाया.
मां बनकर ममता बांटी तो, महल बनी झोंपडियां. उड जाएं…
जनम जनम के नखरें पर, सजधज के जायें वारी.
फिर भी समझें गए रात-दिन, हम ताडन के अधिकारी.
पहले गए पिया जो हमसे, अधम बने हम यहां अधम से.
हमी चल बसे पहले तो, जग बांटे रेवडियां. उड जाएं…
जनम लिया तो जले पिता-मां, यौवन खिला ननद भाभी.
ब्याह हुआ तो जला मोहल्ला, पुत्र हुआ तो वंध्या भी.
मन के अंदर जले नारी, उस पर बाहर दुनियां सारी.
मर जाने पर, मरघट में, जल जल उठी लकडियां. उड जाएं
(स्व: गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी साहित्य के प्रसिध्द युवा कवि थे. दुर्भाग्य से 31 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन होगया था.)

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